Friday, December 8, 2017

रोज एक शायरी

हर दौर में जमाने ने देखे हैं कमीने दो-चार आदमी
मैं फिर क्यों अफसोस करूं, जो एक कमीना देख लिया।

#अधूरी_शायरी #रोज_एक_शायरी #रचना_डायरी
©® रामकृष्ण डोंगरे #तृष्णातंसरी


Tuesday, December 5, 2017

रोज एक शायरी

खेलने को तुमको एक खिलौना चाहिए था,
कमबख्त तुमको बस दिल मेरा चाहिए था।

#अधूरी_शायरी #रचना_डायरी

रचना समय : 14 नवंबर 2017, रायपुर, छत्तीसगढ़

©® रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा' तंसरी


शशि कपूर: कला चेतना से भरे मासूम चेहरे का खामोश हो जाना

अजय बोकिल

सहजता से बोला गया एक डायलाॅग भी तमाम स्टाइलिश संवादों पर कैसे भारी पड़ सकता है, इसे समझने पहले ‘शशि कपूर स्टाइल आॅफ एक्टिंग’ को समझना होगा। यादगार फिल्म दीवार’में अमिताभ के खाते में दसियों दमदार डायलाॅग थे। उस पर बिग- बी की आवाज उन डायलाॅग्स में और जान डाल देती थी। लगता था छल-प्रपंच भरी इस दुनिया में प्रतिशोध ही जीने का सही रास्ता है। लेकिन सिर्फ और सिर्फ एक डायलाॅग अमिताभ की सारी एक्टिंग को पानी भरने पर मजबूर कर देता है और वह है- मेरे पास मां है! यानी सौ सुनार की और एक लुहार की।

सोमवार (4 दिसंबर, 2017) को दिवंगत अभिनेता शशि कपूर के पास ‘मां’ के अलावा भी बहुत कुछ था। एक मशहूर फिल्मी खानदान में पैदा होने के बाद भी उनमें कोई हेकड़ी नहीं थी। दरअसल 60 के दशक में शशि कपूर फिल्म इंडस्ट्री के चाकलेटी चेहरों के बीच एक ऐसा फेस थे, जो काफी कुछ विदेशी सा लगता था। उनके नाक-नक्श ग्रीक हीरो की तरह लगते थे। मानो कोई गलती से ग्रीक देवताअों के स्वर्ग से हिंदुस्तानी खलिहान में चला आया हो। जो तन से युवा और मन से किशोर हो। यूं शशि कपूर ने ढाई दशक में फिल्मों में कई रोल अदा किए, लेकिन उन्हें याद तो कुछ भूमिकाअो, अपने सामाजिक तथा कला सरोकारों के ‍िलए किया जाएगा। साम्प्रदायिक दंगों पर बनी फिल्म ‘धर्मपुत्र’ में उनका रोल एकदम अलग तरह का था तो हिट फिल्म ‘वक्त’ में ‘जी को मारकर’ जिंदगी बिताने वाले युवा के रूप में उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। उम्र में बड़े होने के बाद भी शशि कपूर ने पर्दे पर अमिताभ के छोटे भाई का रोल कई फिल्मों में  बड़ी शिद्दत से अदा किया था। उन्होने प्ले ब्वाॅय टाइप भूमिकाएं भी कीं। लेकिन यह उनके स्वभाव के अनुकूल कभी नहीं लगीं। कारण कि शशि कपूर के चेहरे में एक स्थायी मासूमियत और दुनिया की चालािकयों से स्तब्ध हो जाने का परमनेंट भाव था। शशि जब पर्दे पर नाचते थे तो लगता था कि यह काम उनसे जबरन कराया जा रहा है। हां, फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ में  शशि जब ‘हम को तुम पे प्यार आया..प्यार आया..’ चीखते हुए इश्क में बावले हो जाते हैं, तब महसूस होता है कि सच्ची मोहब्बत करने वाला जब प्यार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करना चाहता है तो उसका हाल क्या होता है। शशि कपूर की पर्दे पर और जाती जिंदगी में भी इमेज एक क्लीन और ईमानदार इंसान की रही है। वह जो भी कहता है, सच सच और बेलाग ढंग से कह देता है। जिसमें कोई बनावटीपन नहीं है। शशिकपूर का यह नेचर अपने अग्रज राज कपूर की देसी और गंवई छवि एवं  शम्मी कपूर की मस्त मौला तथा चुहलबाज इमेज से बिल्कुल हटकर है। शशि कपूर को देखकर हमेशा यही लगा कि ये आदमी कभी विलेन नहीं हो सकता। वह कांटो पर भी चलेगा तो फूलों की संवेदना के साथ चलेगा। 

शशि कपूर को फिल्मी किरदारों से ज्यादा फिल्म इंडस्ट्री और थियेटर क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए याद किया जाएगा। सच्चा कलाकार न तो पैसे से संतुष्ट होता है और न ही प्रसिद्धी से भरमा जाता है। उसके मन में कुछ ऐसा करने की भूख होती है, जिससे सरस्वती संतुष्ट हो। कला की देवी मुस्कुराए। संस्कृति का पैमाना छलके। इतिहास खुद बांहे फैलाकर उसकी तलाश करे। फिल्मी चकाचौंध में रहकर भी शशि कपूर में सच्चे अभिनय की तड़प थी। इसलिए उन्होने अपनी जीवन साथी भी मशहूर अदाकारा जेनिफर कैंडल को बनाया। ’36 चौरंगी लेन’ में जेनिफर का अभिनय भला कौन भूल सकता है। इस फिल्म को ‘सेल्युलाइड पर लिखी कविता’ कहा गया। फिल्मों से नाम और पैसा कमाने के बाद 1978 में शशिकपूर ने  दो माइलस्टोन काम किए। उन्होने अपने पिता और महान ‍अभिनेता पृथ्वीराज कपूर की याद में मुंबई में ‘पृथ्वी  थियेटर्स’ की स्थापना की। साथ ही खुद की फिल्म कंपनी ‘फिल्म वाला’ भी शुरू की। दोनो प्रयास वास्तव में ‍शशि कपूर के भीतर छुपे और कुलबुलाते कलाकार तथा  सर्जक के बैटिंग ग्राउंड थे। उन्होने इसे पूरी तरह भुनाया भी। शशि कुछ ऐसा करना चाहते थे, जो कपूर परिवार के ग्लैमर से हटकर हो और उसके बाद भी याद रखा जाए। ‘फिल्म वाला’ के बैनर तले शुरू हुआ यह ‘जनून’, ‘उत्सव’ तक अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा। दुनिया ने शशि की कला को एक नए शीशे में देखा, उससे अभिभूत हुई। उसके अनोखेपन को महसूस किया।

पिछले कई दिनों से शशि कपूर काफी बीमार चल रहे थे। जीवन संगिनी का जिंदगी की शाम से पहले साथ छोड़ जाने का दर्द तो था ही। शरीर भी थकने लगा था।  इस बीच उन्हें पद्म विभूषण और प्रतिष्ठित दादा साहब फालके अवाॅर्ड से नवाजा गया। तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री अरूण जेटली उन्हें यह पुरस्कार  देने शशिजी के घर पहुंचे। यह पुरस्कार लेते समय शशि का चेहरा अवाक था। मानो बहुत देर कर दी, हुजर आते-आते। फिर भी पुरस्कार तो पुरस्कार है। उसकी अपनी आत्मा होती है। अगर यह पुरस्कार शशि कपूर को न दिया जाता तो शायद यह पुरस्कार ही ग्लानिभाव से भर जाता। क्योंकि दादा साहब फाल्के की जिंदगी ही कुछ नया करने में बीती। भले ही उन्हें फाके करने पड़े हों। शशि का ‘जुनून’ भी कुछ ऐसा ही था। कुछ अलग और लीक से हटकर करने की जिद और कला को उसने नए रूपों में निखारने की चाह। सिनेमा से उलीचकर थियेटर को सींचने वाले फिल्म इंडस्ट्री में बिरले ही होते हैं। क्योंकि यह घर फूंक तमाशा है। लेकिन शशि कपूर ने यह काम पूरी निष्ठा और प्रतिदान की अपेक्षा के बगैर किया। अगर सलीम जावेद‍ फिर से ‘दीवार’ के लिए डायलाॅग लिखें तो उन्हे शशिकपूर के लिए लिखना पड़ेगा- ‘मेरे पास कला है।‘ और कला कभी काल की गुलाम नहीं होती।

‘राइट ‍क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 5 दिसंबर 2017 को प्रकाशित)


Friday, December 1, 2017

मेरी फेसबुक पोस्ट : बहुरूपिया को मदद या भीख क्यों

आज ही का एक किस्सा है। कुछ मिनटों पहले एक एटीएम के गार्ड को 5 रुपये दिए मैंने।

एटीएम से पैसे निकाले ही थे कि उसने कहा

- भैया 5 रुपये दो ना। चाय पीना।
पहले मैंने मना करते हुए कहा कि भाई पांच रुपये नहीं।

ये मैंने टालने के लिए भी कहा था और ये अंदाज लगाकर भी कि मेरे पास 5 रुपये खुल्ले नहीं है। लेकिन याद आ गया कि पर्स में पांच का नोट रखा है।

पहले साफ कर दूं कि भीख देने और भिखारियों को बढ़ावा देने के मैं सख्त खिलाफ हूं। इसलिए कभी सड़क पर, बाजार में, ट्रेन में, मंदिर के बाहर किसी भी बच्चे, बूढ़े या मासूम बच्चे को गोद में लेकर घूमने वाली महिला को 1-2 रुपये या 5-10 रुपये नहीं देता हूं।

मंदिर की दान पेटी इसमें अपवाद है। लेकिन वहां भी सिर्फ कभी-कभी या फैमिली के साथ होने पर ही।

अब मुद्दे की बात। उस गार्ड के साथ मैंने 5-10 मिनट बात की। उसको 5 रुपये देते -देते मैंने दो-तीन खतरनाक किस्से भी सुना दिए कि कैसे लोग दूसरों की दरियादिली, उदारता का फायदा उठाते है और भरोसा तोड़ते है।

एक किस्सा मेरे शहर छिंदवाड़ा का है। देखा-सुना। एक बुजुर्ग महिला बस स्टैंड के आसपास की सड़कों पर घूम-घूमकर अपना दुखड़ा सुनाते हुए पांच रुपये मांगा करती थी। भैया, मुझे घर जाना है। बस किराये के लिए 5 रुपये दे दो।

कई लोगों से पांच रुपये की 'वसूली' करने के बाद भी वो महिला कभी अपने घर नहीं पहुंची ! महीनों तक शहर में घूमती रहती थी।

एक किस्सा और है। मजदूर टाइप के कुछ लोगों ने,  हम भूखे है खाने के लिए कुछ पैसे दे दो साहब। कहकर कुछ लोगों से 100-200 रुपये झटक लिए। उन साहब ने कहा- आप लोग अमुक पते पर चले जाइए। मैंने माताजी से कहकर घर पर आप लोगों का खाना बनवा दिया है।

मगर वे लोग घर नहीं पहुंचे। खाना बेकार हो गया। भरोसा टूट गया।

दुनिया में ज्यादातर लोग मदद मांगने के नाम धोखा देते हैं। बहरुपियों की इस दुनिया में आप क्या करेंगे। किसकी मदद करके आप खुद को दानी या मददगार साबित कीजिएगा।

(मेरी फेसबुक पोस्ट, 1 दिसंबर, 2015)


Thursday, November 16, 2017

अधूरी शायरी : ये जग सोता है

#रोज_एक_शायरी

होता है अक्सर,
ऐसा भी होता है।
हम जागते है और
ये जग सोता है।

#रचना_डायरी #अधूरी_शायरी
रचना काल और स्थान : 11 नवंबर 2003, नागपुर

©® रामकृष्ण डोंगरे #तृष्णा तंसरी


MAKE JOKE OF : कानपुरिया कॉमेडी का नया अंदाज

⚡⚡ *कॉमेडी का नया अंदाज make joke of*⚡⚡

यूपी की भाषा बॉलीवुड से लेकर टेलीविजन इंडस्ट्री में छायी हुई है लेकिन अगर बात केवल कानपुर की करें तो इस शहर के मिजाज से लेकर लोकल भाषा का अंदाज सबसे जुदा है। इन दिनों सोशल मीडिया पर कनपुरिया भाषा में बने Make Joke Of  वीडियोस खूब छाये हुए हैं। कार्टून कैरेक्टर्स के मुंह से निकलते डायलॉग दर्शकों को एक अजीब सी खुशी देते हैं। तो *आइये आज जानते हैं यूट्यूब के पॉपुलर चैनल मेक जोक ऑफ के बारे में कुछ खास बातें...*

Make Joke Of  के यूट्यूब पर 507,890 सब्सक्राइबर हैं। जब कि हर एक वीडियो पर 4 लाख से ज्यादा व्यूज हैं। इस वीडियो को बनाने वाले कुछ कलाकार हैं जो कनपुरिया भाषा में एनिमेटेड वीडियो बनाकर सोशल मुद्दों पर तंज कसते हैं। 

मेक जोक ऑफ यूट्यूब चैनल 12 अक्टूबर 2016 में शुरू हुआ था। फेसबुक पर भी Make Joke Of  पेज को 43 हजार लोग फॉलो करते हैं। इन वीडियोज का कंटेंट ओरिजिनल और सिंपल होता है. लेकिन अपनी असली इनोसेन्स कॉमेडी को देखकर दर्शक अपना पेट पकड़ने को मजबूर हो जाते हैं। 

इन आर्टिस्टों की खास बात यह है कि इन लोगों ने कानपुर की भाषा का तो इस्तेमाल किया है लेकिन अपने कंटेंट में कहीं भी अभद्र भाषा प्रयोग नहीं की। यही वजह है कि ये चैनल तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है। जब हमने इनसे सवाल-जवाब के लिए बातचीत करने की कोशिश की तो इन्होंने व्यस्तता का हवाला देते हुए सामने आने से साफ-साफ मना कर दिया। मेक जोक ऑफ के वीडियो बनाने वाले मेकर्स का कहना है कि ये दुनिया के सामने अपनी पहचान नहीं लाना चाहते। एक व्यक्तिगत समस्या के चलते ये सामने नहीं आना चाहते हैं।

*Make Joke Of  के लोकप्रिय वीडियो*

- इंटरव्यू का वीडियो
- स्कूल में सख्त टीचर 
- ट्यूशन टीचर का फनी इंटरव्यू 
- मकान मालिक-किरायेदार के फैमिली मसले 
- एंग्री बाबा
- डॉक्टर क्लीनिक

https://www.youtube.com/channel/UCvgteBQjoaxE0bhFkpu8qAw


Wednesday, November 15, 2017

अधूरी शायरी

हंसते भी रहे हम,
रोते भी रहे हम।
बारूद को सीने में दबा के,
सोते भी रहे हम।

#रोज_एक_शायरी #अधूरी_शायरी #रचना_डायरी
रचना काल : 7 अगस्त 2004
©® रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा' तंसरी


15 साल बाद डॉ. दीपक आचार्य से एक यादगार मुलाकात

छिंदवाड़ा में डॉ. दीपक आचार्य के साथ। तस्वीर 25 नवंबर 2017.



छिंदवाड़ा में डॉ. दीपक आचार्य Deepak Acharya सर से 15 साल के बाद दुबारा यादगार और प्रेरक मुलाकात...

दीपक सर से डीडीसी कॉलेज में कल्चरल एक्टिविटी के बहाने मुलाकात या निकटता हुई। मैं बीए कर रहा था और सर वहां पर साइंस की क्लास को पढ़ाते थे। 

आप इन दिनों गुजरात में रहते हैं। आपने छिंदवाड़ा की रहस्यमय दुनिया पातालकोट पर काफी रिसर्च और काम किया है। आपने कई कंपनियों में साइंटिस्ट के तौर पर काम किया। फिर अभुमका हर्बल के नाम से खुद की कंपनी बना ली है।

छिंदवाड़ा और छिंदवाड़ा के लोगों के बारे में हमेशा सोचने वालों में से एक दीपक सर ने यहां के प्रतिभाशाली युवाओं का एक अॉनलाइन डाटाबेस तैयार किया है। जो
http://www.patalkot.com/chhindwara/ यहां पर मौजूद हैं।

आप प्रिंट और अॉडियो वीडियो मीडियम पर हर्बल ज्ञान को लेकर लिखते रहते हैं।


हमारी बैलगाड़ी : बचपन की सवारी...

बैलगाड़ी और हम

तस्वीर में नजर आ रही इस बैलगाड़ी से जुड़े वैसे तो कई किस्से है। लेकिन मैं आपको एक दो वाकये सुनाता हूं।

बचपन की बात है। जब मैं बमुश्किल पहली - दूसरी में पढ़ता रहा होगा. जैसा कि अक्सर होता है. अगर कोई भी बैलगाड़ी या कोई वाहन हमारे घर के सामने से गुजरता है। तो बच्चे अक्सर उसके पीछे लग जाते हैं। मतलब उस पर सवार हो जाते हैं। बैठ जाते हैं। तो यही कुछ हमारे साथ भी हुआ। शाम का वक्त था 4-5 बजे का. और हम कुछ बच्चे एक बैलगाड़ी के पीछे लटक गए।

बैलगाड़ी हमारे घर से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर दूर तारा गांव के लिए जा रही थी। तो बैल अपनी रफ्तार से बैलगाड़ी को लेकर दौड़ रहे थे।

बाकी बच्चे तो गाड़ी से उतर गए लेकिन मैं उतर नहीं पाया। डर के मारे कि उतरने पर चोट लग जाएगी। उसके बाद वह बैलगाड़ी जिस काम के लिए जा रही थी। यानी चारा भूसा या कड़बी लाने। उसको भरने के बाद शाम के 7 या 8:00 बजे तक को बैलगाड़ी वापस मेरे घर के सामने आई। तब तक मेरा रो रो कर बुरा हाल और पूरे घर वाले भी मुझे ढूंढ ढूंढ के परेशान हो गए थे।

तो यह बचपन का एक किस्सा। इसके अलावा गांव में बैलगाड़ी महिलाएं भी चलाती है। ये कोई नई बात नहीं है। कई जगह परंपरा के नाम पर उन्हें मना किया जाता है। हमारी दादी खुद बैलगाड़ी चलाकर खेत के पत्थर उठाकर फेंका करती थी बाहर।

एक बार बैलगाड़ी में हमारा एक भांजा चक्के के बीच में फंसते फंसते बचा था। तो गांव देहात की ये बैलगाड़ी सबसे भरोसेमंद सवारी गाड़ी होती है। जिस पर हर काम होता है। हालांकि इन दिनों सभी तरह के वाहन गांव में भी पहुंच गए हैं। इसलिए बाजारों में सब्जी लेकर जाना है। मार्केट- बाजार का काम अब बैलगाड़ी से कम ही होता.

अगर आपके पास भी कुछ किस्से हो। बैलगाड़ी से जुड़े। तो जरूर शेयर कीजिए।


Monday, November 13, 2017

आप मेरे बहुत ही प्यारे और नेकदिल दोस्त हो...

मेरी प्यारी सी दुनिया में परिवार के अलावा बहुत ही प्यारे और नेकदिल यार- दोस्त, शुभचिंतक और मार्गदर्शक शामिल हैं।

मुझे आप सभी से जुड़कर, मिलकर और आपके विचारों को पढ़कर बहुत अच्छा लगता है। कुछ मामलों में हमारे विचार अलग भी वो सकते हैं। मगर इसके चलते दिलों का रिश्ता कभी बिगड़ता नहीं।

इसके लिए आप सभी का शुक्रिया। धन्यवाद।

मैं सभी से एक ही बात कहना चाहता।
मेरे ही शब्दों में -

एक बस 'तुमसे' दोस्ती हो जाए,
फिर चाहे जमाने से दुश्मनी हो जाए।

©® *रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा' तंसरी*

#डोंगरे_की_बात


Tuesday, October 24, 2017

दफ्तरों के चक्कर और घूसखोर सिस्टम ...



जमाना ऑनलाइन का, फिर भी सरकारी दफ्तरों के चक्कर और घूसखोर सिस्टम ...

तो इंतजार ख़त्म। लीजिए दूसरी खबर... निराशा भरी।

जब भी मैं घर आता हूं. गांव के काम। बाहर के कागजी काम। मुझे या छोटे भाई को ही करना पड़ता है। जैसे- बैंक या तहसील के। इसी सिलसिले में आज मुझे एक अनुभव हुआ। इसे आप बुरा अनुभव भी कह सकते हैं। आज मैंने तहसील ऑफिस, कलेक्ट्रेट और कोर्ट कचहरी के चक्कर काटे. हर जगह आपको धक्के खाने के अलावा कुछ भी नसीब नहीं होता. सब कुछ ऑनलाइन के जमाने में आपको किसी एक काउंटर पर। किसी एक ऑफिस में सही और पूरी जानकारी नहीं मिलती। जैस कि मैं प्लाट की रजिस्ट्री से जुड़ी नकल और संशोधन कॉपी निकलवाने था जो कि साल 2000 से पहले की है।

इसके लिए मैं तहसील ऑफिस गया। वहां से मुझे पता चला कि इसके लिए कलेक्ट्रेट के कमरा नंबर ** में आवेदन देना पड़ेगा। वहां जाने पर पता चला कि नहीं आपको इसके लिए रिकॉर्ड रूम में जाना पड़ेगा। रिकॉर्ड रूम में खंगालने पर मुझे जिस वर्ष का रिकॉर्ड चाहिए था वही गायब था।

इसके बाद मैंने वहां से कोर्ट कचहरी का रुख किया. 

कोर्ट कचहरी में एक जानकार वकील से जब मैंने अपनी समस्या शेयर की। तो उन्होंने कहा कि ठीक है। आरटीआई लगाकर हम इसकी सारी डिटेल निकलवा लेंगे। जहां से भी गड़बड़ी हुई है पता चल जाएगा। और इसकी उन्होंने मुझे मोटी फीस बताई। जो मेरे लिए अभी संभव नहीं थी।

अब आप समझ ही गए होंगे कि फीस क्या रही होगी। इस पर मैंने उनसे कहा कि पहले मैं अपने स्तर पर दोबारा प्रयास कर लेता हूं। फिर आपसे संपर्क करता हूं। उन्होंने मुझे सलाह दी कि आप दोबारा रिकॉर्ड रूम जाइए और वहां के चपरासी को 20 ₹, 30 रुपये दे दीजिए। वह आपको सारे खसरा नंबर दिखा देगा। आप उन में से अपना रिकॉर्ड देख लेना।

तो जनाब रिश्वत देने लेने का सिलसिला हर सरकारी दफ्तर के हर कर्मचारी को अच्छे से पता है। और वही आपको बताता भी। और आप मजबूर होते हैं। सामने वाले का उतरा हुआ चेहरा देखकर। उसका चेहरा देखकर आप मना नहीं कर पाते हैं।

इसके बावजूद सिस्टम के लोगों की लापरवाही या गलती के चलते मेरे कुछ पेपर अधूरे हैं। जिसकी वजह से अब मैं परेशान हो रहा हूं। मैं आज भी दफ्तर के चक्कर काटता रहा। कल भी दफ्तर के चक्कर काटूंगा। हो सकता है ऐसे ही कई दिन काटता रहूं। और मोटी फीस देकर अपनी समस्या का हल करवाऊं।

मैं पत्रकार हूं। लेकिन मैं पत्रकार बनकर कहीं कोई दबाव डालकर। क्या करवा सकता हूं। जब सिस्टम में गड़बड़ी है तो आप किसको क्या बोलिएगा। आम आदमी रोज परेशान होता है। लेकिन वह अपनी पीड़ा किसी से कह नहीं पाता। तो शायद हमको पता नहीं चल पाता। लेकिन परेशान हर कोई है। सरकारी लापरवाही से। सरकारी सिस्टम से।

सब कुछ ऑनलाइन हो जाए. फिर भी अगर इंसान अपनी गलतियां. यानी सरकारी कर्मचारी अपनी गलतियां करना नहीं छोड़ेगा. तो आम आदमी को कोई फायदा नहीं होने वाला. क्योंकि ऑनलाइन रिकॉर्ड में वही चीज अपडेट होती है. जो सरकारी दस्तावेजों में होती है. अगर दस्तावेजों में ही गड़बड़ी है. तो आम आदमी को वापस हार्ड कॉपी देखना ही पड़ेगा. और हार्ड कॉपी की गड़बड़ियों को झेलना ही पड़ेगा। अगर उनमें नाम कहीं छूट गया है। तो वह सालों तक परेशान होता रहेगा.

#छिंदवाड़ाकीसैर #छिंदवाड़ा_डायरी #लापरवाह_सिस्टम_रिश्वतघोर_कर्मचारी


Friday, September 29, 2017

विजयादशमी पर कोई तो संकल्प लीजिए

तुम मर्यादा पुरुषोत्तम राम नहीं हो
तुम पतिव्रता माता सीता नहीं हो,
लेकिन तुम
दशानन रावण जरूर बन जाना...
किसी भी स्त्री को उसकी इच्छा के बगैर
कभी हाथ मत लगाना।
.....
ऐसी भी बुराइयों पर जीत हासिल कीजिए,
विजयादशमी पर कोई तो संकल्प लीजिए।

🚩🚩आपको और आपके परिवार को
दशहरा की शुभकामनाएं! 🚩🚩

*रामकृष्ण डोंगरे*
*चीफ सब एडिटर*
*दैनिक भास्कर रायपुर*


Thursday, September 21, 2017

क्या आप भी वाट्सएप पीड़ित हैं...

ये दर्द आपका भी हो सकता है...

मैं वर्तमान में 100 से भी ज्यादा (संख्या अलग अलग हो सकती है। फिर भी 10-20 से ज्यादा ही) WhatsApp ग्रुप का सदस्य हूं। और प्रतिदिन लगभग 5000 से भी ज्यादा मैसेजेस जाते हैं। इसमें एक या दो मैसेज काम के या पर्सनल होते है। इसके अलावा सभी मैसेजेस गुड मॉर्निंग, गुड नाइट, हैप्पी दिवाली, हैप्पी दशहरा, हैप्पी फलाना, हैप्पी ढिमका आदि निरर्थक सारहीन उद्देश्यहीन संदेश होते हैं।

इससे ना सिर्फ मेरा डाटा, फोन की मेमोरी और मोबाइल की बैटरी डाउन होती हैं। बल्कि मेरा अमूल्य समय भी नष्ट होता है।

इसके अलावा लोगों को शिकायत होती है कि आपको WhatsApp किया था। आपने देखा नहीं। आप लापरवाह हो या आप हमारे मैसेज या हमें महत्व नहीं देते आप घमंडी हो।

मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूं और मेरे पास समय का अभाव होता है अतः जिन्हें भी मुझसे गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग, हैप्पी दिवाली, हैप्पी दशहरा, कहने की इच्छा हो वह मुझे पर्सनल मैसेज भेज सकते हैं। (*हां लेकिन सिर्फ शॉट मैसेज, लिखे हुए। इमेज या वीडियो मैसेज नहीं।) मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

मैं अब इस फूहड़ता और बकवास से तंग आ चुका हूं,  इसलिए WhatsApp के सभी ग्रुप से एग्जिट कर रहा हूं।

मेरे इस तरह अपने समय का सदुपयोग करने के उद्देश्य से  सभी ग्रुप से एग्जिट होने से मेरे आप में से किसी भी व्यक्ति से व्यक्तिगत संबंध खराब नहीं होंगे ऐसी मेरी आशा है ।

इसके बावजूद जिस भी व्यक्ति को बुरा लग रहा हो निश्चित रूप से वह व्यक्ति मुझसे संबंध निभाने के लायक नहीं है अतः उसे मैं क्षमा याचना नहीं करूंगा ।

धन्यवाद
एक वाट्सएप यूजर
(मूल पोस्ट को थोड़ा संशोधित किया गया है)

कृपया मुझसे संबंध रखने वाले सज्जन मुझे फ़ोन कर सकते है या SMS पर सूचित कर सकते है। या पर्सनल वाट्सएप कर सकते हैं। मैं वाट्सएप ग्रुप का बहिष्कार करता हूँ।

*वाट्सएप ग्रुप पर बेतहाशा मैसेज, फोटो और वीडियो से पीड़ित शख्स की चिट्ठी*


गौरव अरोरा ने कहा - मैं वाट्सएप का बहिष्कार करता हूं

[9/21, 1:18 PM] Gaurav Arora: मैं वर्तमान में 100 से भी अधिक WhatsApp ग्रुप का सदस्य हूं। और प्रतिदिन लगभग 5000 से भी ज्यादा मैसेजेस जाते हैं। जिसमें एक या दो मैसेज इसके अलावा सभी मैसेजेस गुड मॉर्निंग, गुड नाइट, हैप्पी दिवाली, हैप्पी दशहरा, हैप्पी फलाना, हैप्पी ढिमका आदि निरर्थक सारहीन उद्देश्यहीन संदेश होते हैं।

इससे ना सिर्फ मेरा डाटा, फोन की मेमोरी और मोबाइल की बैटरी डाउन होती हैं बल्कि मेरा अमूल्य समय भी नष्ट होता है।

इसके अलावा लोगों को शिकायत होती है कि आपको WhatsApp किया था आपने देखा नहीं। आप लापरवाह हो या आप हमारे मैसेज या हमें महत्व नहीं देते आप घमंडी हो।

मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूं। और मेरे पास समय का अभाव होता है अतः जिन्हें भी मुझसे गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग हैप्पी दिवाली, हैप्पी दशहरा कहने की इच्छा हो वह या तो मुझे अपने पास बुला ले या मेरे घर आ जाएं, मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

मैं अब इस फूहड़ता और बकवास से तंग आ चुका हूं,  इसलिए WhatsApp के सभी ग्रुप से एग्जिट कर रहा हूं।

मेरे इस तरह अपने समय का सदुपयोग करने के उद्देश्य से  सभी ग्रुप से एग्जिट होने से मेरे आप में से किसी भी व्यक्ति से व्यक्तिगत संबंध खराब नहीं होंगे ऐसी मेरी आशा है ।

इसके बावजूद जिस भी व्यक्ति को बुरा लग रहा हो निश्चित रूप से वह व्यक्ति मुझसे संबंध निभाने के लायक नहीं है अतः उसे मैं क्षमा याचना नहीं करूंगा ।

धन्यवाद

आपका गौरव अरोरा
बिजनेसमैन, छिंदवाड़ा
जिला छिंदवाड़ा
मध्यप्रदेश

मैं वाट्सएप से त्रस्त हूँ और वाट्सएप का बहिष्कार करता हूँ।

कृपया जो भी व्यक्ति मुझसे संवाद करना चाहे, मुझे कॉल करे, SMS करे, मिलने आ जाए या मुझे मिलने बुलवा ले।

गौरव अरोरा आगे लिखते हैं,

WhatsApp एक बहुत सशक्त माध्यम है किंतु इसके दुरुपयोग ने बहुत से लोगों को निराश किया है ।

मैं कम से कम 10 बहुत सफल अरबपति व्यापारी या बहुत सफल लेखक या बहुत सफल प्रशासनिक अधिकारी, बहुत सफल प्रोफेसर मित्रों को जानता हूं। जिन्होंने चुनिंदा WhatsApp ग्रुप बना रखे हैं और उसमें बड़े अनुशासन का पालन करते हैं।

मेरा नाम गौरव अरोरा। आयु 42 वर्ष। निवासी - छिंदवाड़ा,  मध्यप्रदेश। प्रोपराइटर पंजाब साइंस एवं Sports। हमारा
प्रतिष्ठान 14 से भी अधिक राज्यों में स्वास्थ्य विभाग को  एनुअल मेंटेनेंस कॉन्ट्रैक्ट सेवाएं देता है। जिसमें हम वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के रजिस्टर्ड भारत में कुल 3 रजिस्टर्ड सर्विस प्रोवाइडर हैं। जिसमें से हम एक हैं।

अपने व्यवसाय के कारण मुझे बहुत व्यस्त होना होता है। इसके अतिरिक्त मैं जबलपुर यूनिवर्सिटी से बैचलर इन होम्योपैथी का साढे 5 वर्ष का फुल टाइम  बीएचएमएस  कोर्स कर रहा हूं। एवं तृतीय वर्ष में अध्यनरत हूं। इसके कारण भी मुझे बहुत बहुत व्यस्त रहना होता है। इसके अलावा मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से 1998 में MBA किया था और अभी मैं कई मल्टीनेशनल कोल कंपनीज में कोऑर्डिनेटर और फ्रीलांस एडवाइजर के रूप में कार्य करता हूं। साथ ही इग्नो के MBA प्रोग्राम का छिंदवाड़ा में काउंसलर एवं गेस्ट फेकल्टी हूं। आईआईएम अहमदाबाद की गेस्ट फैकल्टी हूं। साथ ही बेंगलुरु यूनिवर्सिटी की भी गेस्ट फैकल्टी हूं।

इतनी सब व्यस्तताओं के कारण मैं सुबह 5:00 बजे से रात्रि 11:00 बजे तक अनवरत कार्य करता हूं। दोपहर में सिर्फ 1 घंटे विश्राम करता हूं। WhatsApp से मुझे ऐसी आशा थी कि मैं अपने समय का पहले से भी बेहतर उपयोग कर पाऊंगा। किंतु हताशा के साथ-साथ निराशा भी है कि WhatsApp पर जोड़ने वाले अधिकांश लोग इस माध्यम के सामान्य शिष्टाचार और अनुशासन का पालन नहीं करते। इस कारण वह लोग जो व्यस्त रहते हैं उन्हें बहुत परेशान होना पड़ता है। इसलिए मैंने इस माध्यम का तब तक बहिष्कार करने का निर्णय किया है जब तक लोग इसके सामान्य शिष्टाचारों से परिचित नहीं हो जाते, जिन्होंने चुनिंदा whatsapp ग्रुप बना रखे हैं और उसमें बड़े अनुशासन का पालन करते हैं।

Wednesday, September 13, 2017

बच्चों के खिलाफ अपराध और समझाइश का बुरा असर

बच्चों के खिलाफ लगातार अपराध के बाद अपनी बेटी को गुड टच, बैड टच बताने वाली मां फिर भी क्यों चिंतित हैं। पढ़िए एक मां की चिट्ठी....

कई लोग आजकल कह रहे हैं कि बच्चे को ये सिखाओ, वो सिखाओ, बैड टच बताओ, गुड टच बताओ.. ऐसे गाइड करो, वैसे काउंसिलिंग करो..

लेकिन अब सुनिए इसके साइड इफेक्ट्स..... मैं अपनी बेटी को लगातार गुड टच, बैड टच के बारे में बताती हूं.. रोज खेल-खेल में उसके संपर्क में रह रहे लोगों (टीचर, आया, ऑटो ड्राइवर, घर की मेड, अंकल, आंटी, पड़ोसी, मोहल्ले वाले, क्लासमेट्स, फैमिली मेंबर्स) की गतिविधियों के बारे में जानकारी लेती हूं.. उसे भरोसा दिलाती हूं कि उसके मां-बाप उसे कुछ नहीं होने देंगे.. और मम्मा-पापा से कुछ नहीं छिपाना... वो बहुत समझदार है, सेंसेटिव भी है, सतर्क भी है.. क्योंकि ये अलर्टनेस मैं खुद भी रखती हूं इसलिए मुझे देखकर उसमें बचपन से है.. उसे मैं पूरा क्वालिटी टाइम देती हूं.. वर्किंग होने के बावजूद उसे मेरे द्वारा मिलने वाले वक्त, स्नेह, गाइडेंस में मैंने कोई कमी नहीं होने दी है

... लेकिन एक दिन उसने मुझसे कहा कि कहीं मम्मा मुझे कोई कुछ कर तो नहीं देगा...

मैंने उससे पूछा कि कोई कुछ नहीं करेगा, लेकिन तुम्हारे मन में ये सवाल आया क्यों? उसने कहा कि वो टीवी में न्यूज पर देखती है.. इसके अलावा मैं भी तो उसे हमेशा समझाती रहती हूं... यानि कि कुछ तो ऐसा है सोसायटी में , लोग बुरे हैं अपने आसपास समाज में जो उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं..... मैंने कहा कि बेटा बुराई और अच्छाई हर जगह है.. ऐसा नहीं कि सब बुरा है.. लेकिन अपने को सतर्क रहना है. खेलना है, कूदना है, पढ़ना-लिखना है.. लेकिन सतर्क रहना है.. चाहे हम घर के अंदर हों या बाहर.. मैंने उसके उम्र के मुताबिक और भी कई तरीके से उसकी काउंसिलिंग कर दी.. और डर और सतर्कता के बीच के फर्क को समझा दिया.... हालांकि मैं खुद इस बात को सोचने पर मजबूर हो गई.. कि काश कि सोसायटी ऐसी होती कि उसे यही बात मैं तब बताती, जब उसकी उम्र 10 के पार होती .. लेकिन मुझे उसे ये सारी बातें तब बतानी पड़ रही हैं, जब उसका ध्यान अपनी सुरक्षा जैसी बातों पर होना ही नहीं चाहिए...       
              
हालांकि मेरी बेटी निडर है.. लेकिन फिर भी है तो बच्ची ही... आखिर ये सब सुनकर, माता-पिता से लेकर स्कूल और टीवी पर बच्चों को दिए जा रहे गाइडेंस के डोज को लेकर मन में उसके सवाल तो उठते ही हैं.. कि क्या सोसायटी में इतने भेड़िए हैं उसे नुकसान पहुंचाने के लिए... बच्चों के मन पर बुरा प्रभाव तो पड़ता ही है... लेकिन मां-बाप भी क्या करें.. सुरक्षा के लिए बच्चों को समझाना जरूरी है.. और बच्चे भी अफसोसजनक माहौल में पल रहे हैं. पहले जब लड़की जवान होने लगती थी, तो मां-बाप को चिंता होती थी कि कहीं ऊंच-नीच न हो जाए.. लेकिन अब तो ये चिंता पैदा होते ही शुरू हो जाती है.. वो भी न सिर्फ बेटियों के लिए.. बल्कि बेटों के लिए भी.. क्योंकि रेप के शिकार लड़के भी लगातार हो रहे हैं... क्या कहिएगा आप...

बच्चों को सतर्कता के नाम पर हर वक्त बताना पड़ता है.. कि बेटा नाना-नानी के साथ सतर्क रहो, मामा के साथ रहो, अंकल-आंटी के साथ रहो, तो बुआ-मासी के साथ रहो, बेटा मोहल्ले में अंकल के साथ रहो, तो स्कूल में टीचर्स के साथ रहो, बेटा खेलते वक्त रहो, तो बेटा ऑटो वाले से रहो, दुकान वाले से रहो.. तो दोस्तों से रहो.. रिक्शावाले से रहो.. मतलब इससे रहो, उससे रहो... सबसे रहो...

सोचिए बच्चों के मन पर क्या असर पड़ता है.... मैं भी ज्ञान देती रहती हूं बेटी को .. लेकिन कभी-कभी दया आती है उस पर... क्या करूं.....????????

(वरिष्ठ टीवी जर्नलिस्ट प्रज्ञा प्रसाद की वाट्सएप पोस्ट। आप फिलहाल स्वराज एक्सप्रेस चैनल की वेबसाइट लल्लूराम डॉट कॉम में कार्यरत हैं।)