Wednesday, September 4, 2013

पत्रकारिता में मेरे दस साल...

अपने संग्रह के साथ मेरी तस्वीर, वर्ष 2001
पत्रकारिता में मेरी एंट्री साल 2003 में लोकमत समाचार के छिंदवाड़ा ब्यूरो से हुई। इस लिहाज से साल 2013 आते ही इस क्षेत्र में मेरे दस साल पूरे हो गए। पीछे लौटकर देखने या 'क्या खोया, क्या पाया' का आकलन करने का फिलहाल वक्त नहीं है। फिर भी उस वर्ष का यहां विस्तार से जिक्र करना चाहता हूं। लेकिन पहले एक बात बताना लाजिमी समझता हूं कि लोकमत से जुड़ने का आईडिया मुझे वरिष्ठ पत्रकार जगदीश पवार ने दिया था।

लोकमत के लिए ट्रेनी रिपोर्टर के रूप में मैंने 21 जुलाई को चार खबरें लिखी। जिनमें थी- आकाशवाणी और एआईआर एफएम गोल्ड, प्रोजेक्ट ज्ञानोदय, दीनदयाल पार्क के पास का सब्जी बाजार और पीको फॉल बना रोजगार। उस समय लोकमत के ब्यूरो चीफ थे श्री धर्मेंद्र जायसवाल जी, सिटी रिपोर्टर पंकज शर्मा, मैं और अंशुल जैन। 25 जुलाई को शायद लोकमत में मेरी पहली न्यूज छपी, श्रोताओं की पसंद-नापसंद में उलझा विविध भारती की जगह एफएम गोल्ड। 28 जुलाई को एक और न्यूज प्रकाशित हुई पीको फॉल बना रोजगार..। इसके बाद लगातार कई खबरें छपी। फोटोग्राफर बाबा कुरैशी जी को कैसे भूल सकता हूं जो मेरी खबरों के लिए फोटो लाया करते थे। इस दौरान मैंने सबसे पहले जाना कि फोटो भी मैनेज की जाती है। पंकज भाई मेरी खबरें एडीट किया करते थे।

खबर लिखने से पहले छपी थी मुझ पर खबर...
भाई अमिताभ दुबे ने साल 2000 या 2001 में मुझ पर एक खबर लिखी थी। जो कि मेरे सिक्कों, डाक टिकटों और पुरानी चीजों के कलेक्‍शन पर थी। इस खबर को पढ़कर मुझमें एक नया जोश पैदा हुआ था। शायद यहीं से मेरे अंदर प्रतिभाओं की खबरों को न्यूज पेपर में बेहतर जगह देने की इच्छा पैदा हुई थी। आज भी जब किसी ऐसे यूथ की खबर आती है तो उसकी प्रतिभा की कद्र करने का मन करता है।

खबरें लिखने का सिलसिला मैंने सन् 2001 से ही शुरू कर दिया था, जब साहित्यिक संस्‍था 'अबंध' के समाचार लिखकर अखबारों में देता था। इसके अलावा डीडीसी कॉलेज और पीजी कॉलेज के यूथ फेस्टिवल के समाचार भी मैंने 2000-2002 के बीच में लिखे। इसके अलावा भोपाल से प्रकाशित 'सुखवाड़ा' और संवाद पत्रिका 'शब्द शिल्पियों के आसपास' के लिए अवैतनिक रूप से संवाददाता के रूप में भी इसी दौरान जुड़ गया था।

जब मिली पत्रकारिता में न आने की सलाह...
28 जुलाई को ही वरिष्ठ पत्रकार गुणेंद्र दुबे जी से मुलाकात हुई। उन्‍होंने मीडिया में न आने वाली सलाह दोहराई- 'पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो, हिंदी से एमए कर रहे हो... प्रोफेसर बनो।' मगर मेरे अंदर तो जुनून सवार था मीडिया को लेकर। रेडियो सुन-सुनकर पहले आकाशवाणी में कॅरियर देखते दिन बीते, जब वहां से नाउम्मीद हुए तो अखबारी दुनिया में ही कूद पड़े। 2 अगस्त, 2003 को ही परासिया ब्यूरो चीफ के लिए भास्कर का ऑफर मिला। मगर काफी सलाह मशवरे के बाद मैंने एमए फाइनल की पढ़ाई पूरी करने का हवाला देते हुए ऑफर को प्रेमपूर्वक अस्वीकार कर दिया। यह ऑफर मुझे मिला था गिरीश लालवानी जी के जरिए।

अगले दस सालों की दास्तान काफी लंबी है। जिस पर विस्तार से फिर कभी बात करूंगा। फिलहाल उन पड़ावों का सिर्फ जिक्र। 2004 में एमए कम्‍प्लीट करने के बाद जुलाई में छिंदवाड़ा से राजधानी भोपाल आ गया। 14 जुलाई को दैनिक स्वदेश ज्वाइन किया। यहां रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों काम शामिल थे। 2005 में संपादक अवधेश बजाज की सांध्य दैनिक अग्निबाण की टीम में शामिल हो गया। यहां आर्ट एंड कल्चर और जनरल रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी मिली। इसी साल माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि में एडमिशन लिया। फिर 2006 में राज्य की नईदुनिया में आ गया। यहां अजय बोकिल जी, आशीष्‍ा दुबे, पंकज शुक्ला, विनय उपाध्याय जी से काफी कुछ सीखने को मिला। 2007 में माखनलाल से एमजे पूरा करते ही कैंपस के जरिए दिल्ली आ पहुंचा। यहां अमर उजाला, नोएडा में नई पारी की शुरुआत हुई। जो अब तक जारी है।

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