Saturday, June 14, 2008

अगर पिता है घर, नहीं किसी का डर

फादर्स डे पर स्पेशल :
अगर पिता है घर,
नहीं किसी का डर


पिता की मृत्यु की सदी

पिता के लिए कई संबोधन है ... बाबूजी, जी आदि

हम सभी भाई -बहन पिताजी को भाऊ कहते थे



सबसे प्रिय 70 शब्दों में पिता का कोई स्थान नहीं



[जब बात पिता की होती है ... सबसे पहले हमें अपने पिता याद आते है . मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं है ... हम सभी भाई -बहन उन्हें भाऊ कहते थे ... पिता के लिए वैसे तो कई संबोधन है ... बाबूजी, जी आदि . मगर अब पापा शब्द ज्यादा चल पड़ा है ... हमारे समुदाय में , हमारे गाँव और आसपास के गाँव में भी पिताजी को भाऊ ही कहा जाता है ... मुझे याद है ... मेरे नाना जी को भी ... माँ , मौसी , मामा जी सभी लोग भाऊ ही बुलाते थे. मेरे पिता जी ... यानी भाऊ एक अच्छे इन्सान थे ... उन्होंने शायद ही कभी हम भाई - बहनों को कभी मारा हो ... माँ, कल्पना दीदी , अशोक भइया, छोटा भाई रामधन और मैं यानी पूरा परिवार उन्हें बहुत याद करता है ... साथ ही हम सभी उनकी कमी महसूस करते है . ]

फ़र्ज़ का परचम पिता

इक नन्हें दिल में कितने ही लिए मौसम पिता
सह रहे हो चुपके -चुपके कैसे -कैसे गम पिता .

क्या है माँ , क्या है पिता , मैं कह रहा हूँ तुम सुनो
माँ तो है ममता की मूरत , फ़र्ज़ का परचम पिता .

खुश नसीब हैं वे जिनके पिता साथ होते हैं ,
पिता के दो नहीं हजारों हाथ होते हैं .

बाप की आंखों में दो बार आंसू आते हैं
बेटी घर छोड़े तब , बेटा मुंह मोड़े तब .

फादर्स डे पर एक किताब से परिचय ...

पिता ... पिता पर केंद्रित स्वादित साहित्य
स्वादन- वल्लभ डोंगरे, संसार के समस्त पिताओं को समर्पित
प्रकाशन - सतपुडा प्रकाशन, भोपाल वर्ष - 2007-08

आसमान से ऊंचा कौन है ?
... पिता

वल्लभ डोंगरे जी ने ... पिता की मृत्यु की सदी नाम से सम्पादकीय में यहीं लिखा है ... आसमान से ऊंचा कौन है ? ... पिता. वे लिखते है कई देशों में बच्चों का लालन -पालन वहां की सरकार के जिम्मे होता है . माता -पिता की भूमिका वहां केवल महज़ बच्चा पैदा करने तक सीमित होती है .
आगे उन्होंने लिखा है की 102 देशों के 40 हजार लोगों में हुए सर्वे में संसार के सबसे प्रिय 70 शब्दों में पिता का कहीं कोई स्थान नहीं था . पिता को हाशिये पर करता यह समय पिता की मृत्यु का उदघोष करता प्रतीत होता है ...यह सदी पिता की मृत्यु की सदी कहलाने को तैयार सी लगती है ... ऐसे समय में पिता को साहित्य में सहेजना पिता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना है .

इस किताब में कविता , कहानी , ग़जल , संस्मरण , और पत्र भी है ... पिता के पत्र .

निदा फाजली, कुमार अंबुज , एकांत श्रीवास्तव , यश मालवीय जैसे कई बड़े कवियों की कविताये है , वहीं ग़जलकारों कुंवर बैचेन, आलोक श्रीवास्तव जैसे कई नाम शामिल है ...

कहानियों में... पिता नाम से धीरेन्द्र अस्थाना की एक कहानी है .

पत्र कई सारे है ... घनश्याम दस बिड़ला का पत्र , औरंगजेब का पत्र , आदि .

कुल मिला कर किताब पठनीय है .

Thursday, June 5, 2008

पोस्ट से पहले, पेश है एक ब्लॉग



तीन बिन्दु डॉट ब्लागस्पाट डॉट कॉम पर
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पूजा का ब्लॉग ... जो जारी है ...

जो जारी है ...
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`रजनीगंधा` अब महकती है
http://teenbindu.blogspot.com/2008/05/blog-post_14.html

एक कविता ...

http://teenbindu.blogspot.com/2008/05/blog-post_13.html
http://teenbindu.blogspot.com/2008/05/blog-post.html

बात है अधूरी सी
रात है स्याह गहरी सी

पीछे कुछ छूटता नहीं
साथ कुछ भी चलता नहीं

मुक्ति सच में हो

http://teenbindu.blogspot.com/2008/04/blog-post.html
इंटरनेट पर एक खबर है। खबर अपने आप में चौंकाने वाली तो है ही, संग में एक साथ कई सवाल उठाती है। खबर के अनुसार बिहार और झारखंड में कई स्थानों पर भूतों और प्रेतों से कथित तौर पर पीड़ित लोगों को प्रेत बाधा से मुक्ति दिलवाने के लिए मेलों का आयोजन किया जाता है। इन मेलों में कथित `पहुंचे हुए` पंडे और ओझा भूत उतारते हैं।



Wednesday, May 14, 2008

`रजनीगंधा` अब महकती है

रजनीगंधा 15 साल की थी जब उसकी शादी हुई। ससुराल में भी सभी मैला ढोने का काम करते हैं। उसने बताया, ``शादी से कुछ महीने पहले जब मां पहली बार अपने साथ काम पर ले गईं तो चक्कर आ गए थे। इसके बाद कई दिन कई बार उल्टी कर देती। मगर जाना पड़ता। क्योंकि, मां कहतीं कि ससुराल में तो जाना ही पड़ेगा। यह काम करना ही होगा।``

रजनीगंधा मैला ढोने का काम नहीं करना चाहती थी। लेकिन, पहले मां के दबाव में और फिर परिवार की आर्थिक जरूरत के मद्देनजर यह करना ही पड़ा। फिर उसने इसे नियति मान कर समझौता कर लिया।

उसका नाम रजनीगंधा है। उसकी उम्र 39 साल है। अलवर के जिरका फिरोजपुर के पास उसका मायाका है और हिजौरीगढ़ में उसका ससुराल है। वह महीनेवार अठारह सौ रूपए कमाती है। दो बेटियां हैं और एक बेटा है। बड़ी बेटी के हाथ पीले करने है, संभवत: इसी बरस जबकि छोटी बेटी पढ़ रही है। बेटा भी पढ़ रहा है और पुलिस में भर्ती होना चाहता है। रजनीगंधा की आंखों में चमक है और चेहरे पर संतोष भी। उसकी आंखों में अब सपने भी हैं जिनके पूरे होने की न सिर्फ वह कामना करती है बल्कि कोशिश भी करती है। मगर, पहले ऐसा नहीं था।

कभी रजनीगंधा देश के उन सैकड़ों स्त्री पुरूषों में से एक थी जिनकी जिंदगियां एक ऐसा काम करते-करते बीतती रही हैं जो न केवल गैर कानूनी है बल्कि एक सभ्य समाज के माथे पर कलंक की तरह है। भारत सरकार द्वारा मैला ढोने की प्रथा गैर कानूनी करार दे दी गई है। मगर आज भी देश के कई राज्यों में यह कथित ``प्रथा`` बिना किसी रोकटोक के जारी है।

रजनीगंधा का सपना है कि वह यहां से सिलाई कढ़ाई सीख कर अपनी खुद की सिलाई की दुकान खोले। रजनीगंधा के हाथों मैला ढोने का काम `छूटने` के बाद अब उसका पति भी किसी और काम की तलाश में है ताकि इस घिनौने काम से मुक्त हो सकें।

लगभग सौ साल पहले महात्मा गांधी ने बंगाल में हुई कांग्रेस की बैठक में वाल्मीकि समुदाय के लोगों की काम की परिस्थितियों और उनकी विवशताअों का मसला उठाया था। तब से आज तक एक पूरी सदी बीत चुकी है मगर एक कु-प्रथा है कि मिटती नहीं।

Tuesday, May 13, 2008

अब..?


बात है अधूरी सी
रात है स्याह गहरी सी

पीछे कुछ छूटता नहीं
साथ कुछ भी चलता नहीं

खामोशी है पैनी सी
उंगलियों को कुरेदती सी

बेचैनी सागर की लहरों सी
खुद को पत्थरों से ठोकती सी

अजीब सी बेकरारी है नहीं,
प्रेम नहीं,कोई और ही सी महामारी है


रोशनी है कहीं-कहीं कौंधती सी
आस पास को चीरती भेदती सी

और मैं सिमटती सी
तलाशती हूं ``क्या हूं मैं अब?``

Tuesday, April 15, 2008

मुक्ति सच में हो

इंटरनेट पर एक खबर है। खबर अपने आप में चौंकाने वाली तो है ही, संग में एक साथ कई सवाल उठाती है। खबर के अनुसार बिहार और झारखंड में कई स्थानों पर भूतों और प्रेतों से कथित तौर पर पीड़ित लोगों को प्रेत बाधा से मुक्ति दिलवाने के लिए मेलों का आयोजन किया जाता है। इन मेलों में कथित `पहुंचे हुए` पंडे और ओझा भूत उतारते हैं।

खबर पर गौर करें, इन मेलों में आने (लाए जाने) वालों में महिलाएं ही अधिक होती हैं। जिन्हें, डंडे की चोट पर स्वीकार करवाया जाता है कि उन पर प्रेत छाया है। मार खा कर लॉक अप में पुलिस उस जुर्म को कबूल करवा पाने में सफल हो जाती है जो गिरफ्त ने किया न हो तो एक महिला की क्या बिसात! वैसे खबर की ओट न भी ली जाए तो हम और आप यह जानते ही हैं इस देश में महिलाओं को ही अक्सर भूत बाधा का सामना करना पड़ता है। समाज में महिलाएं ही अक्सर चुड़ैल करार दी जाती हैं। इन भूतों को भी महिलाएं ही प्यारी होती हैं। पुरूष नहीं। वे अक्सर महिलाओं को ही निशाना बनाते हैं। वह भी ऐसी महिलाओं को, जो पहले से ही अपने परिवार या समुदाय में दबी-कुचली परिस्थिति में दोयम दर्जे का जीवन जी रही होती हैं। बीमार या उपेक्षित होती हैं। न जाने क्यों यह भूत प्रजाति ऐसी महिला पर कब्जा करती है जिसका खुद अपने पर कोई `कब्जा` नहीं होता! ऐसे में ऐसी महिला को कब्जा कर कोई भूत दूसरों पर अपनी `ताकत` (या सत्ता) कैसे साबित कर सकता है!? वह एक कमज़ोर महिला पर हावी हो कर कैसे उसके आस पास के लोगों को परेशान करने की कोशिश में `सफल` हो सकता है! यह बात भूत योनि की समझ में नहीं आती, तो पता नहीं क्यूं।

वैसे यहां आपत्ति उस मानसिकता पर भी है जिसके तहत इस खबर में पीड़ित शब्द का उपयोग किया गया है। मानो, वाकई `भूत आना` कोई बीमारी हो। ईश्वरप्रदत्त बीमारी? महिला के बुरे कर्मों का फल? या फिर, अपनों की बेड इंटेशन की शिकार? या समाज के भीड़तंत्र से पीड़ित ? दरअसल मुक्ति चाहिए तो सही, मगर किसको किससे? यह जानने की जरूरत है।


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