Tuesday, April 9, 2013

एक स्‍त्री ही नहीं चाहती लड़की !!! जिम्मेदार कौन ???

मेरी प्यारी भतीजी निधि।
(निधि के बहाने ...)
ये है निधि। मेरी प्यारी भतीजी। शुरू-2 में फोन पर बात करने में हिचकिचाती थी। बाद में खूब बात करने लगीं। फोन पर अगर मैंने पूछा- 'क्या कर रही हो?' तो तुरंत जवाब देगी- 'खेल रही हूं।' उससे बात करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। बहुत छोटी थी तब मेरी गोद में नहीं आती थी। इसकी वजह यह रहती थी कि महीनों बाद मेरा घर जाना होता था। इसके चलते मुझे पहचान नहीं पाती थी। फिर धीरे-2 मेरे पास आने लगी। उसके जन्म के साल मैं भोपाल में था। इस साल जून की 23 तारीख को छह साल की हो जाएंगी।

बड़े भैया के तीन बच्चों में निधि सबसे छोटी है। दो भाइयों की एक बहन। वहीं, मेरी दीदी के भी तीन बच्चे है। तीनों ही लड़के है। इस नाते हुईं पांच भाइयों की इकलौती बहन। यहां दिलचस्प बात यह है कि बड़े भैया के दो बच्चों होने के बाद मेरी जिद थी कि अब बस किया जाए। मगर एक लड़की की चाहत, एक बहन की चाहत ने निधि को हमारी दुनिया में ला दिया। इसके लिए हम सब ईश्वर के शुक्रगुजार है। कई परिवारों में लड़के की चाहत देखी जाती है और लड़कों की इस चाहत में लड़कियों की लाइन लग जाती है।  एक-दो-तीन-चार...। लेकिन इसके उलट हमारे घर में शुरू से ही लड़कियों की चाहत रही है। हमारे पापा इकलौते थे, यानी उनकी कोई बहन (हमारी बुआ) होने का सवाल ही नहीं था। हम तीन भाइयों की एक ही बहन है। इस तरह हमें लड़की की चाहत शुरू से ही रही। 

समाज या परिवार के दबाव में आकर महिलाएं भी अपना बच्चा लड़की नहीं सिर्फ लड़का चाहती हैं। मैंने जब इसके तह में जाने की कोशिश की तो क्या पता चला? एक लड़की को, एक औरत को दुनिया में काफी कुछ सहना पड़ता है इसलिए वह लड़की को पैदा नहीं करना चाहती। अगर ऐसा ज्यादातर महिलाएं सोचती है तो इसका कारण क्या है। हम। हमारा समाज। हमारा परिवेश। हमारी मान्यताएं। यानी इस समस्या के लिए हम सब जिम्मेदार है।

Monday, April 8, 2013

उस दिन हारती, तो फिर जीत नहीं पाती

(  अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 1 अप्रैल, 2013 को  प्रकाशित।)
भारती डोंगरे
बात उन दिनों की है, जब मैं इंदौर के परदेसीपुरा में एक हॉस्टल में रहती थी। मेरी जॉब का टाइम सुबह 9 से शाम साढ़े छह बजे का होता था। आफिस जाने के लिए मुझे दो बस बदलनी पड़ती थी। परदेसीपुरा से एमवाय और फिर एमवाय से मुसाखेड़ी जाना होता था। परदेसीपुरा से सुबह 7 बजे निकलती थीं। तब जाकर 9 बजे आफिस पहुंचती थीं। शाम को भी यही होता था। गाड़ी मिल गई तो ठीक, वर्ना गाड़ी के लिए लंबा इंतजार। एक दिन शाम को ऑफिस से निकली। मूसाखेड़ी से एमवाय तक तो आसानी से पहुंच गईं, मगर वहां से परदेसीपुरा जाने के लिए गाड़ी नहीं मिल रही थी। वह जगह सुनसान थी। कई बदमाश लड़कों ने पूछा, ‘मैडम आपको घर छोड़ दें।’ मैं बुरी तरह से घबरा गई थीं। मैं माता रानी का जाप कर रही थी, तभी वहां कई गाड़ियां आईं, लेकिन उनमें आदमी ही आदमी दिख रहे थे। मैं तकरीबन एक घंटे तक वहीं हिम्मत बांधकर खड़ी रही। मेरी निर्भयता देखकर वे लड़के कोई हरकत नहीं कर पाए। आखिरकार एक घंटे खड़े रहने के बाद एक वैन आई, जिसमें एक लड़की भी बैठी थी। मैंने माता रानी का धन्यवाद किया और हॉस्टल पहुंचकर घरवालों को फोन लगाकर खूब रोई। लेकिन मेरी दृढ़ता सुनकर सभी ने मेरी हौसला अफजाई की। अगर उस दिन हारती, तो शायद कभी जीत नहीं पाती।