Monday, April 8, 2013

उस दिन हारती, तो फिर जीत नहीं पाती

(  अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 1 अप्रैल, 2013 को  प्रकाशित।)
भारती डोंगरे
बात उन दिनों की है, जब मैं इंदौर के परदेसीपुरा में एक हॉस्टल में रहती थी। मेरी जॉब का टाइम सुबह 9 से शाम साढ़े छह बजे का होता था। आफिस जाने के लिए मुझे दो बस बदलनी पड़ती थी। परदेसीपुरा से एमवाय और फिर एमवाय से मुसाखेड़ी जाना होता था। परदेसीपुरा से सुबह 7 बजे निकलती थीं। तब जाकर 9 बजे आफिस पहुंचती थीं। शाम को भी यही होता था। गाड़ी मिल गई तो ठीक, वर्ना गाड़ी के लिए लंबा इंतजार। एक दिन शाम को ऑफिस से निकली। मूसाखेड़ी से एमवाय तक तो आसानी से पहुंच गईं, मगर वहां से परदेसीपुरा जाने के लिए गाड़ी नहीं मिल रही थी। वह जगह सुनसान थी। कई बदमाश लड़कों ने पूछा, ‘मैडम आपको घर छोड़ दें।’ मैं बुरी तरह से घबरा गई थीं। मैं माता रानी का जाप कर रही थी, तभी वहां कई गाड़ियां आईं, लेकिन उनमें आदमी ही आदमी दिख रहे थे। मैं तकरीबन एक घंटे तक वहीं हिम्मत बांधकर खड़ी रही। मेरी निर्भयता देखकर वे लड़के कोई हरकत नहीं कर पाए। आखिरकार एक घंटे खड़े रहने के बाद एक वैन आई, जिसमें एक लड़की भी बैठी थी। मैंने माता रानी का धन्यवाद किया और हॉस्टल पहुंचकर घरवालों को फोन लगाकर खूब रोई। लेकिन मेरी दृढ़ता सुनकर सभी ने मेरी हौसला अफजाई की। अगर उस दिन हारती, तो शायद कभी जीत नहीं पाती।

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