Saturday, November 23, 2013

प्याज 25 पैसे क्या महंगा हुआ... रायपुर हो गया था बंद !

(महंगाई डायन हो गई... आम आदमी सोच रहा है। आखिर क्या खाए.. और क्या पहने। उस पर हमारे नेताजी बयानों के तीर चला रहे है। कोई कहता है कि पांच रुपये, 12 बारह रुपये में भरपेट खाना मिलता है। हाल ही में एक नेताजी ने कहा कि गरीब दो सब्जी खाने लगे... इसलिए महंगाई बढ़ रही है। अब आप ही सोचिए। क्या सही और क्या गलत। सब्जियों के दाम 30-40 से लेकर 100 रुपये के पार चले गए। ऐसे में आम आदमी कह रहा है- रसोई में क्या बनाए, क्या खाए... और क्या फ्राई करें...। रायपुर से फ्राई-डे...फ्राइडे डायरी में इस बार प्याज की कीमत पर एक दिलचस्प वाकया। प्याज की कीमत 25 पैसे बढ़ गई थी तो रायपुर बंद...)

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'बेटा, प्याज की कीमत 25 पैसे बढ़ गई थी तो पूरा रायपुर बंद हो गया था सन 70 में।' कल वीकली ऑफ था। सामान खरीदने गया तो एक बुजुर्ग दुकानदार ने यह बात बताई। श्यामनगर में उनकी किराना दुकान है। बुजुर्ग बताने लगे कि सन 1980 से पहले उनकी दुकान रायपुर के बैरन बाजार इलाके में थी।

उस समय प्याज के दाम एक रुपये किलो थे। दुकान में हर सामान पर हम लोग पांच पैसे का पॉफिट या मार्जिन रखते थे। 1970 में अचानक प्याज के दाम 25 पैसे बढ़ गए। सवा रुपये किलो प्याज कोई खरीदना नहीं चाहता था। पूरा रायपुर बंद हो गया। लोग जगह-जगह धरना, प्रदर्शन करने लगे। कलेक्टर का इस मामले में हस्तक्षेप करने लगा।

रायपुर कलेक्टर ने व्यापारियों-दुकानदारों की एक मीटिंग बुलाई।

हम लोगों ने कलेक्टर से साफ तौर पर कह दिया- 'अगर आप हमें 95 पैसे प्रति किलो से प्याज उपलब्ध करा देते है तो हम उसे एक रुपये किलो में ही बेचेंगे।'

...आखिरकार कलेक्टर को हमारी बात माननी पड़ी।

हमें प्याज 95 पैसे प्रति किलो के हिसाब से मिला। तब जाकर प्याज के दाम एक रुपये किलो पर आए।

... और आज के हालात देखिए... देश में प्याज की कीमत 30-40-50 होते हुए 80-100 रुपये प्रति किलो हो गई। मगर कहीं कोई हंगामा नहीं। कोई विरोध-प्रदर्शन या बंद नहीं।

अब पहले जैसी बात नहीं रही...।

बुजुर्ग को अचानक नमक की याद आ गई। कहने लगे, बिहार और बंगाल में देखिए नमक क्या भाव बिक रहा है। 200-250-500 से लेकर 600 रुपये किलो। ये सब क्या है...।

कोई कुछ कहता ही नहीं।
कोई कुछ नहीं करता।

मुझे भी लगा... बुजुर्ग सही फरमा रहे है। आखिर हम कुछ कर क्यों नहीं पा रहे हैं ???


##रायपुर से फ्राई-डे (फ्राइडे) डायरी## 

Wednesday, September 4, 2013

पत्रकारिता में मेरे दस साल...

अपने संग्रह के साथ मेरी तस्वीर, वर्ष 2001
पत्रकारिता में मेरी एंट्री साल 2003 में लोकमत समाचार के छिंदवाड़ा ब्यूरो से हुई। इस लिहाज से साल 2013 आते ही इस क्षेत्र में मेरे दस साल पूरे हो गए। पीछे लौटकर देखने या 'क्या खोया, क्या पाया' का आकलन करने का फिलहाल वक्त नहीं है। फिर भी उस वर्ष का यहां विस्तार से जिक्र करना चाहता हूं। लेकिन पहले एक बात बताना लाजिमी समझता हूं कि लोकमत से जुड़ने का आईडिया मुझे वरिष्ठ पत्रकार जगदीश पवार ने दिया था।

लोकमत के लिए ट्रेनी रिपोर्टर के रूप में मैंने 21 जुलाई को चार खबरें लिखी। जिनमें थी- आकाशवाणी और एआईआर एफएम गोल्ड, प्रोजेक्ट ज्ञानोदय, दीनदयाल पार्क के पास का सब्जी बाजार और पीको फॉल बना रोजगार। उस समय लोकमत के ब्यूरो चीफ थे श्री धर्मेंद्र जायसवाल जी, सिटी रिपोर्टर पंकज शर्मा, मैं और अंशुल जैन। 25 जुलाई को शायद लोकमत में मेरी पहली न्यूज छपी, श्रोताओं की पसंद-नापसंद में उलझा विविध भारती की जगह एफएम गोल्ड। 28 जुलाई को एक और न्यूज प्रकाशित हुई पीको फॉल बना रोजगार..। इसके बाद लगातार कई खबरें छपी। फोटोग्राफर बाबा कुरैशी जी को कैसे भूल सकता हूं जो मेरी खबरों के लिए फोटो लाया करते थे। इस दौरान मैंने सबसे पहले जाना कि फोटो भी मैनेज की जाती है। पंकज भाई मेरी खबरें एडीट किया करते थे।

खबर लिखने से पहले छपी थी मुझ पर खबर...
भाई अमिताभ दुबे ने साल 2000 या 2001 में मुझ पर एक खबर लिखी थी। जो कि मेरे सिक्कों, डाक टिकटों और पुरानी चीजों के कलेक्‍शन पर थी। इस खबर को पढ़कर मुझमें एक नया जोश पैदा हुआ था। शायद यहीं से मेरे अंदर प्रतिभाओं की खबरों को न्यूज पेपर में बेहतर जगह देने की इच्छा पैदा हुई थी। आज भी जब किसी ऐसे यूथ की खबर आती है तो उसकी प्रतिभा की कद्र करने का मन करता है।

खबरें लिखने का सिलसिला मैंने सन् 2001 से ही शुरू कर दिया था, जब साहित्यिक संस्‍था 'अबंध' के समाचार लिखकर अखबारों में देता था। इसके अलावा डीडीसी कॉलेज और पीजी कॉलेज के यूथ फेस्टिवल के समाचार भी मैंने 2000-2002 के बीच में लिखे। इसके अलावा भोपाल से प्रकाशित 'सुखवाड़ा' और संवाद पत्रिका 'शब्द शिल्पियों के आसपास' के लिए अवैतनिक रूप से संवाददाता के रूप में भी इसी दौरान जुड़ गया था।

जब मिली पत्रकारिता में न आने की सलाह...
28 जुलाई को ही वरिष्ठ पत्रकार गुणेंद्र दुबे जी से मुलाकात हुई। उन्‍होंने मीडिया में न आने वाली सलाह दोहराई- 'पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हो, हिंदी से एमए कर रहे हो... प्रोफेसर बनो।' मगर मेरे अंदर तो जुनून सवार था मीडिया को लेकर। रेडियो सुन-सुनकर पहले आकाशवाणी में कॅरियर देखते दिन बीते, जब वहां से नाउम्मीद हुए तो अखबारी दुनिया में ही कूद पड़े। 2 अगस्त, 2003 को ही परासिया ब्यूरो चीफ के लिए भास्कर का ऑफर मिला। मगर काफी सलाह मशवरे के बाद मैंने एमए फाइनल की पढ़ाई पूरी करने का हवाला देते हुए ऑफर को प्रेमपूर्वक अस्वीकार कर दिया। यह ऑफर मुझे मिला था गिरीश लालवानी जी के जरिए।

अगले दस सालों की दास्तान काफी लंबी है। जिस पर विस्तार से फिर कभी बात करूंगा। फिलहाल उन पड़ावों का सिर्फ जिक्र। 2004 में एमए कम्‍प्लीट करने के बाद जुलाई में छिंदवाड़ा से राजधानी भोपाल आ गया। 14 जुलाई को दैनिक स्वदेश ज्वाइन किया। यहां रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों काम शामिल थे। 2005 में संपादक अवधेश बजाज की सांध्य दैनिक अग्निबाण की टीम में शामिल हो गया। यहां आर्ट एंड कल्चर और जनरल रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी मिली। इसी साल माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि में एडमिशन लिया। फिर 2006 में राज्य की नईदुनिया में आ गया। यहां अजय बोकिल जी, आशीष्‍ा दुबे, पंकज शुक्ला, विनय उपाध्याय जी से काफी कुछ सीखने को मिला। 2007 में माखनलाल से एमजे पूरा करते ही कैंपस के जरिए दिल्ली आ पहुंचा। यहां अमर उजाला, नोएडा में नई पारी की शुरुआत हुई। जो अब तक जारी है।

मेरी पत्रकारिता पर कुछ और बातें पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए

Tuesday, August 6, 2013

मेरा व्यंग्य लेख : अब देश में उठी अलग देश की मांग!

{अफ्रीकन कंट्री, रशियन कंट्री की तर्ज पर भारत के सभी देश भी इंडियन कंट्री के देश कहलाएंगे। फिर हम साउथ कोरिया और नार्थ कोरिया की तरह आपस में ही लड़ेगें। हां, कुछ देशों का पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश से पीछा जरूर छूट जाएगा। लेकिन क्या हम फिर आपस में ही नहीं लड़ने लगेंगे। 'ये मेरा देश, ये तेरा देश'- के नारे के साथ...। ...पढ़िए मेरा यह व्यंग्यनुमा लेख...

देश के 29 वें राज्य तेलंगाना के गठन पर मुहर क्या लगी, पं. बंगाल में अलग गोरखालैंड और असम में बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए। तेलंगाना के बाद पं. बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड, यूपी को बांटकर बुंदेलखंड, पूर्वांचल, हरित प्रदेश, अवध प्रदेश, महाराष्ट्र से विदर्भ, गुजरात से सौराष्ट्र, कर्नाटक से कुर्ग, बिहार से मिथिलांचल, राजस्थान में मारूप्रदेश, उड़ीसा में कोसल, मध्यप्रदेश में बाघेलखंड और जम्मू जैसे दो दर्जन राज्य बन गए तो क्या होगा? कहीं दक्षिण भारत में भी कई और नए राज्य सिर उठाने लगे तब? इन सब बातों को लेकर दिमाग में दिनभर मंथन चलता रहा।

अपना काम खत्म करके देर रात को मैं आफिस से घर पहुंचा और गहरी नींद में सो गया। फिर पता नहीं कब सपनों की दुनिया में खो गया। देखता क्या हूं कि मैं एक चैनल का बॉस हूं। अचानक आफिस से मेरे एक जूनियर का फोन आता है- 'सर, देश के अलग-2 हिस्सों में सुबह से ही हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए है। लोगों की मांग है कि अब उन्हें अपना अलग देश भी चहिए।' मैंने सोचा- कल तक तो अलग राज्य की ही मांग उठ रही थी। क्या इतनी जल्दी दर्जनभर राज्य बन गए? क्या अब कुछ नेताओं की इच्छा सीधे प्रधानमंत्री बनने की हो गई? जो हिंसक प्रदर्शन पर उतारू हो गए। मैंने तुरंत अपने कलीग को लाइव कवरेज का आदेश दे डाला और मैं विचारों की दुनिया में खोते लगाने लगा...।

भगवा बिग्रेड कब से अपने लिए हिंदुस्तान मांग रहा है। दलित की बेटी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रही है। बिहार वाले अपने लिए अलग देश, मराठी भाषी महाराष्ट्र को देश बनाना चाहते हैं। कहीं ऐसा न हो कि हम मध्यकालीन भारत में पहुंच जाए... और मगध, काशी, कुरुक्षेत्र, कौशल, अवन्ति, चेदि, वत्स, पांचाल जैसे सभी महाजनपद यानी आज के नए देश अवतरित हो जाए। नेतागण अपने फायदे-नुकसान के लिए चाहे, जो करवा लें। वे अलग राज्य में जैसे अपने लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी फिक्स समझते हैं। ठीक वैसे ही अलग देश में उनकी मंशा होगी- 'अपने देश के पीएम बनो और केंद्र-राज्य के झगड़े से मुक्ति पाओ।'

फिर आगे क्या होगा। अफ्रीकन कंट्री, रशियन कंट्री की तर्ज पर भारत के सभी देश भी इंडियन कंट्री के देश कहलाएंगे। फिर हम साउथ कोरिया और नार्थ कोरिया की तरह आपस में ही लड़ेगें। हां, कुछ देशों का पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश से पीछा जरूर छूट जाएगा। लेकिन क्या हम फिर आपस में ही नहीं लड़ने लगेंगे। 'ये मेरा देश, ये तेरा देश'- के नारे के साथ...। अचानक कानों में बीवी की आवाज सुनाई दी- 'उठो! ये लो चाय, और अखबार..। आंख खुली तो देखा मैं तो वहीं हूं, एक अखबार का अदना-सा पत्रकार। चैनल का बॉस... अलग देश की मांग... ये सब तो सपने की बातें थी। शुक्र है कि सब सपना था। सोचिए अगर यह हकीकत होती, तो क्या होगा? खुदा से दुआ करो कि हमारे वतन के और टुकड़े न हो। देश में और कई राज्य न बनें।  

Tuesday, June 4, 2013

मेरी एक कहानी : एक घूंट पानी

भोपाल यानी झीलों की नगरी। यहां आपको नजर आते हैं छोटा और बड़ा तालाब। बड़ा तालाब को करीब से देखने की चाहत ने मुझे बरबस ही तालाब की ओर खींच लिया। मुझे दूर तक फैले तालाब को देखने से कितना सुकून मिल रहा था। तालाब की रेलिंग के सहारे खड़ा होकर मैं दूर-दूर तक फैले तालाब को निहार रहा था। पास ही एक हमउम्र लड़का भी खड़ा था। उसने बताया, मैं आर्किटेक्ट हूं। बातचीत आगे बढ़ी और बढ़ते-बढ़ते जाति-धर्म तक जा पहुंची। शुक्र है कि वह भी जाति-धर्म को नहीं मानता था। फिर उसने अपने गांव की एक दिलचस्प घटना सुनाई। सुनकर लगा यह तो मेरी कहानी का हिस्सा बन सकती है। कहानी का हिस्सा क्या भाई, पूरी कहानी बन सकती है। कहानी कि क्या कहें...उपन्यास भी बन सकता है। तो मैंने कलम उठाई और लिख डाली एक कहानी... ‘एक घूंट पानी‘।

कहानी एक गांव से जुड़ी है। गांव में जाति-धर्म के बंधन बहुत जटिल होते हैं। अलग-अलग जाति के मोहल्ले-टोले होते हैं। ऐसा ही एक गांव था। जहां विभिन्न जातियों के मोहल्ले बंटे हुए थे। इसी गांव में एक सज्जन रहते थे। नाम था सुखीराम। सुखीराम की लाखों की दौलत थी। सुखी घर-परिवार था। थे तो धार्मिक प्रवृत्ति के। पूजापाठ नित्यप्रति होती थी। उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि एक महाराज दूर से अपने गांव में पधारे हुए हैं। उन्होंने तुरंत उन्हें अपने घर बुला लिया। महाराज ने पूजापाठ की। सुखीराम बहुत खुश थे। क्योंकि इतने प्रसिद्ध महाराज उनके घर आए थे। उन्होंने महाराज के द्वारा जूठा किया गया गिलास, जो कि आधा भरा हुआ था, उठाकर उसमें से एक घूंट पानी पी लिया। इस अवसर पर शायद गांव का ही कोई व्यक्ति उनके घर में था जो यह सारा दृश्य देख रहा था। कहना चाहिए कि महाराज के जूठे गिलास से एक घूंट पानी सुखीराम के द्वारा पीने का वह एक मात्र प्रत्यक्षदर्शी था। जो यह जानता था कि महाराज नीची जाति के है। बस, फिर क्या था। वह जहां भी जाता सबको खूब नमक-मिर्च लगा-लगाकर बताता कि सुखीराम ने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पीया है।

सुखीराम जाति-धर्म को मानने वाला व्यक्ति था। उससे ऐसी महाभयंकर भूल कैसे हुई? इसके पीछे भी एक वजह थी। दरअसल महाराज थे तो नीची जाति के मगर उनके रहन-सहन और बुद्धि के प्रभाव के चलते उन्हें कोई भी नीची जाति का समझने की सोच भी नहीं सकता था।

सुखीराम के दिल में यह बात घर कर गई कि उसने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। वह अब घर से बहुत कम निकलने लगा। घर से खुशहाल होते हुए भी, सुना जाता है कि उन्होंने कभी अपने घर के बच्चों के लिए चॉकलेट नहीं खरीदी थी। और अब वही व्यक्ति जब भी बाहर निकलता बच्चों के लिए खूब चॉकलेट खरीदता। केवल इसलिए कि बच्चे यह कहकर न चिढ़ाए कि सुखीराम दादा ने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। पर यह सब करने के बावजूद चिढ़ाने का सिलसिला नहीं थमा। क्योंकि थे तो वे बच्चे ही। खाने-पीने के बाद वे भी भूल जाते थे। और फिर वही दोहराना शुरू...। सुना तो यहां तक जाता है कि सुखीराम इतनी ज्यादा चाकलेट खरीदते थे कि दुकानदारों के पास की सारी चाकलेट खत्म हो जाती थी।

सुखीराम तो खाली नाम के सुखीराम बन के रह गए थे, बात तो यह थी कि वे इन दिनों दु:खी रहने लगे थे। उनके मन में यह बात बैठ गई थी कि उन्होंने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। वे लगातार यही सोचा करते। उन्होंने पूरे गांव से अपने आप को काट लिया। क्योंकि वे लोगों के ताने सुन-सुनकर और दु:खी हो जाते थे, और डेढ़ माह नहीं बीते होंगे कि वे चल बसे। एक घूंट पानी उनके लिए मौत की निशानी बन गया।
                                                                                           - रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा'

Tuesday, April 9, 2013

एक स्‍त्री ही नहीं चाहती लड़की !!! जिम्मेदार कौन ???

मेरी प्यारी भतीजी निधि।
(निधि के बहाने ...)
ये है निधि। मेरी प्यारी भतीजी। शुरू-2 में फोन पर बात करने में हिचकिचाती थी। बाद में खूब बात करने लगीं। फोन पर अगर मैंने पूछा- 'क्या कर रही हो?' तो तुरंत जवाब देगी- 'खेल रही हूं।' उससे बात करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। बहुत छोटी थी तब मेरी गोद में नहीं आती थी। इसकी वजह यह रहती थी कि महीनों बाद मेरा घर जाना होता था। इसके चलते मुझे पहचान नहीं पाती थी। फिर धीरे-2 मेरे पास आने लगी। उसके जन्म के साल मैं भोपाल में था। इस साल जून की 23 तारीख को छह साल की हो जाएंगी।

बड़े भैया के तीन बच्चों में निधि सबसे छोटी है। दो भाइयों की एक बहन। वहीं, मेरी दीदी के भी तीन बच्चे है। तीनों ही लड़के है। इस नाते हुईं पांच भाइयों की इकलौती बहन। यहां दिलचस्प बात यह है कि बड़े भैया के दो बच्चों होने के बाद मेरी जिद थी कि अब बस किया जाए। मगर एक लड़की की चाहत, एक बहन की चाहत ने निधि को हमारी दुनिया में ला दिया। इसके लिए हम सब ईश्वर के शुक्रगुजार है। कई परिवारों में लड़के की चाहत देखी जाती है और लड़कों की इस चाहत में लड़कियों की लाइन लग जाती है।  एक-दो-तीन-चार...। लेकिन इसके उलट हमारे घर में शुरू से ही लड़कियों की चाहत रही है। हमारे पापा इकलौते थे, यानी उनकी कोई बहन (हमारी बुआ) होने का सवाल ही नहीं था। हम तीन भाइयों की एक ही बहन है। इस तरह हमें लड़की की चाहत शुरू से ही रही। 

समाज या परिवार के दबाव में आकर महिलाएं भी अपना बच्चा लड़की नहीं सिर्फ लड़का चाहती हैं। मैंने जब इसके तह में जाने की कोशिश की तो क्या पता चला? एक लड़की को, एक औरत को दुनिया में काफी कुछ सहना पड़ता है इसलिए वह लड़की को पैदा नहीं करना चाहती। अगर ऐसा ज्यादातर महिलाएं सोचती है तो इसका कारण क्या है। हम। हमारा समाज। हमारा परिवेश। हमारी मान्यताएं। यानी इस समस्या के लिए हम सब जिम्मेदार है।

Monday, April 8, 2013

उस दिन हारती, तो फिर जीत नहीं पाती

(  अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 1 अप्रैल, 2013 को  प्रकाशित।)
भारती डोंगरे
बात उन दिनों की है, जब मैं इंदौर के परदेसीपुरा में एक हॉस्टल में रहती थी। मेरी जॉब का टाइम सुबह 9 से शाम साढ़े छह बजे का होता था। आफिस जाने के लिए मुझे दो बस बदलनी पड़ती थी। परदेसीपुरा से एमवाय और फिर एमवाय से मुसाखेड़ी जाना होता था। परदेसीपुरा से सुबह 7 बजे निकलती थीं। तब जाकर 9 बजे आफिस पहुंचती थीं। शाम को भी यही होता था। गाड़ी मिल गई तो ठीक, वर्ना गाड़ी के लिए लंबा इंतजार। एक दिन शाम को ऑफिस से निकली। मूसाखेड़ी से एमवाय तक तो आसानी से पहुंच गईं, मगर वहां से परदेसीपुरा जाने के लिए गाड़ी नहीं मिल रही थी। वह जगह सुनसान थी। कई बदमाश लड़कों ने पूछा, ‘मैडम आपको घर छोड़ दें।’ मैं बुरी तरह से घबरा गई थीं। मैं माता रानी का जाप कर रही थी, तभी वहां कई गाड़ियां आईं, लेकिन उनमें आदमी ही आदमी दिख रहे थे। मैं तकरीबन एक घंटे तक वहीं हिम्मत बांधकर खड़ी रही। मेरी निर्भयता देखकर वे लड़के कोई हरकत नहीं कर पाए। आखिरकार एक घंटे खड़े रहने के बाद एक वैन आई, जिसमें एक लड़की भी बैठी थी। मैंने माता रानी का धन्यवाद किया और हॉस्टल पहुंचकर घरवालों को फोन लगाकर खूब रोई। लेकिन मेरी दृढ़ता सुनकर सभी ने मेरी हौसला अफजाई की। अगर उस दिन हारती, तो शायद कभी जीत नहीं पाती।

Friday, March 8, 2013

कुछ बातें, कुछ लोग (पार्ट-सेवन)

एफआईआर भ्रष्टाचार का हथियार


पहले शॉट में-
नई दुनिया, भोपाल, 6 मार्च, 2007
नई दुनिया अखबार में प्रकाशित इस लेख को मैंने भोपाल में क्राइम बीट पर काम करने के दौरान हुए अनुभव के बाद ‌लिखा था। मैंने साल 2006 में राज्य की नई दुनिया में काम किया गया। इसमें मेरा ज्यादातर डेस्क वर्क ही होता था, लेकिन इसके अलावा मुझे क्राइम की खबरों में पंकज शुक्ला जी के साथ काम करना होता था। इस दौर की दिलचस्प बात यह है कि मेरे दोस्त और सीनियर मुझे कहते थे- कला से क्राइम तक डोंगरे जी। यानी पहले कला संवाददाता हुआ करता था फिर क्राइम रिपोर्टर। अब बात मुद्दे पर। जैसा कि अ‌र्टिकल की हेडिंग है- एफआईआर भ्रष्टाचार का हथियार, तो इसमें मैंने पुलिस महकमे में भ्रष्टाचार, घूसखोरी को बढ़ावा देने में एफआईआर की भूमिका को सामने लाया था। 

अब विस्तार से- 
आर्ट एंड कल्चर की रिपोर्टिंग करते-2 अचानक मुझे क्राइम की खबरों से जूझना पड़ गया था। शुरूआत में क्राइम से जुड़ीं कई शब्दावली और बातें मुझे समझ नहीं आती थी। इसमें हमारे सीनियर अजय बोकिल जी, आनंद दुबे, पंकज शुक्ला आदि मेरी हेल्प करते थे। रिपोर्टिंग के दौरान मैंने दूसरे अखबारों के क्राइम रिपोर्टर बंधुओं से भी संपर्क बना लिया था। जिनमें खास थे- गुनेंद्र अग्निहोत्री (जागरण), सुनीत सक्सेना (भास्कर), आनंद पांडे (राज एक्सप्रेस), जुबैर कुरैशी (अग्निबाण), जुगलकिशोर (सीटीवी)। लगभग सभी से मेरी एक-दो साल पुरानी जान-पहचान थी। सुनीत सक्सेना जी के साथ मैंने स्वदेश में काम किया था, तो जुबैर भाई के साथ अग्निबाण में।

Thursday, February 28, 2013

कुछ बातें, कुछ लोग (पार्ट-सिक्स)

सेहत के लिए सामाजिक स्थिति जिम्मेदार

नई दुनिया, भोपाल, 12 अप्रैल, 2006
पहले शॉट में-
भोपाल के नई दुनिया अखबार में प्रकाशित इस लेख को मैंने एक सेमिनार के दौरान लिखा था। मध्यप्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी में महिला स्वास्‍थ्य और मीडिया पर तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया था। इस लेख में महिला स्वास्‍थ्य की अनदेखी को रेखांकित किया गया है।

अब विस्तार से-
हमारे देश और समाज में महिला सुरक्षा की तरह महिला स्वास्‍थ्य को भी हमेशा नजरअंदाज किया जाता है। मैंने इस आर्टिकल में अपने ही परिवार का उदाहरण सामने रखा था। इस लेख को प्रकाशित कराने के पीछे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के प्रोफेसर पुष्पेंद्र पाल सिंह की प्रेरणा रही। इसमें मेरे दोस्त हरीश बाबू और रामसुरेश सिंह का भी सहयोग रहा। जैसा कि लेख का शीर्षक है- सेहत के लिए सामाजिक स्थिति जिम्मेदार...। यानी महिलाओं की सेहत, स्वास्‍थ्य के साथ खिलवाड़ के लिए हमारी सामाजिक स्थिति और सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। हम स्वास्‍थ्य के प्रति जागरूक नहीं होते हैं। महिला खुद अपनी सेहत के प्रति लापरवाह हो जाती है और उसे ऐसा बनाती है, समाज की सोच। गांवों में यह स्थिति ज्यादा देखने को मिलती है।

कुछ बातें, कुछ लोग (पार्ट-5)

राज्य की नई दुनिया, भोपाल, 28 मार्च, 2006
जीवन संघर्ष की गाथा


पहले शॉट में-
राज्य की नई दुनिया में भगवान चंद्र घोष के उपन्यास-कर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे की समीक्षा प्रकाशित होने का पूरा श्रेय आदरणीय विनय उपाध्याय जी को जाता है। यह समीक्षा राज्य की नई दुनिया में काम करने के दौरान ही छपी थी। विनय जी मुझे अग्निबाण के समय से ही जानते थे। मैं कई बार उनसे खबरों को लेकर बात करता था। राज्य की नईदुनिया ज्वाइन करने के बाद मेरा ज्यादातर काम डेस्‍क पर ही होता था, मगर वे मुझे इस तरह के कई असाइनमेंट भी दिया करते थे।

अब विस्तार से-
किताबों की समीक्षा लिखने का मुझे पहले से तर्जुबा था। छिंदवाड़ा में पाठक मंच की कई किताबों की मैंने समीक्षा की थी, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास और लेख सभी तरह की किताबें हुआ करती थी। समीक्षा लिखते वक्त काफी सावधानी बरतनी पड़ती है। यानी सकारात्मक और नकारात्मक पहलु के बीच संतुलन बनाकर रखना होता है।
अफसोस इस बात का रहेगा कि मैं इस सिलसिले को बरकरार नहीं रख पाया। उपाध्याय जी ने मुझे कई लेखकों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों के इंटरव्यू और स्टोरी आइडिया दिए थे मगर...। बीच-बीच में मैं पत्रकारिता की पढ़ाई में बिजी हो जाता था। भोपाल हमेशा मेरे दिल के करीब रहेगा। जैसे छिंदवाड़ा। भोपाल के सभी लोगों को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा।

Sunday, February 24, 2013

कुछ बातें, कुछ लोग (पार्ट-फोर)

अल्पायु में ही दम तोड़ा रंगमंडल ने
पहले शॉट में-
अग्निबाण में जनरल रिपोर्टिंग और कवरेज के अलावा मुझे स्पेशल पेज के लिए कवर स्टोरी भी तैयार करनी पड़ती थी। साल 2005 के मई, जून, जुलाई और अगस्त, इन चार महीनों के दौरान मेरी कई कवर स्टोरी प्रकाशित हुई। इनमें प्रमुख थी- मोबाइल बंद होते नहीं, बच्चे भी सोते नहीं... , वीआईपी का आगमन, मुसीबत में आमजन..., उर्दू अकादमी में उर्दू क्लास और अल्पायु में ही दम तोड़ा रंगमंडल ने।

अब विस्तार से- 
सांध्य दैनिक अग्निबाण, भोपाल, 28 अगस्त, 2005
सांध्य दैनिक अग्निबाण, भोपाल, 28 अगस्त, 2005
अग्निबाण के 'भोपाल विशेष' पेज के लिए फुल पेज की कवर स्टोरी तैयार करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। उन दिनों आज की तरह सबकुछ इंटरनेट पर नहीं मिलता था। थियेटर से संबंधित कवर स्टोरी में मेरे दोस्त चिन्मय सांकृत और सभी रंगकर्मियों ने मेरी काफी सहायता की। मोबाइल बंद होते नहीं... के दौरान मुझे वरिष्ठ रंगकर्मी केजी त्रिवेदी, अभिनेत्री व निर्देशक बिशना चौहान ने मदद की।

अल्पायु में दम तोड़ा रंगमंडल ने... इस स्टोरी के लिए मैंने काफी मेहनत की। भोपाल के मशहूर रंगमंडल का पूरा इतिहास खंगालना पड़ा। रंगमंडल के सफर से रूबरू होना पड़ा। 1982 में मंचित घासीराम कोतकाल, मोहन राकेश के आधे-अधूरे, धर्मवीर भारती के अंधा युग, तुम सआदत हसन मंटो हो, बीवियों का मदरसा के मंचन की जानकारी जुटानी पड़ी। उर्दू अकादमी की स्टोरी के समय मुझे अकादमी के चेयरमैन और मशहूर शायर डॉ. बशीर बद्र साहब का भरपूर सहयोग मिला।

कुछ बातें, कुछ लोग (पार्ट-थ्री)

कथाकार अलका सरावगी से विशेष बातचीत


पहले शॉट में-
सांध्य दैनिक अग्निबाण, भोपाल, 9 जुलाई, 2005
इवनिंग न्यूजपेपर अग्निबाण में रिपोर्टिंग के दौरान मुझे वरिष्ठ कथाकार अलका सरावगी जी का इंटरव्यू लेने का मौका मिला। भोपाल ‌स्थित भारत भवन में अलका जी ने मुझसे अलग से बातचीत की थी। इस खबर का दिलचस्प पहलू यह है कि इंटरव्यू के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था- 'आपने ज्यादा कुछ पढ़ा नहीं है।' इसकी वजह यह थी कि मैं बहुत ज्यादा सवाल नहीं कर पाया था। सच कहा था अलका जी ने। हां, मैंने उनके कलिकथा ः वाया बाईपास, शेष कादम्बरी उपन्यास नहीं पढ़े थे। मैंने दूसरी महिला कथाकारों जैसे कृष्‍णा सोबती का 'मित्रो मरजानी', सूरजमुखी अंधेरे में, मृदुला गर्ग का कठगुलाब आदि जरूर पढ़े थे।

अब विस्तार से-
आर्ट एंड कल्चर की रिपोर्टिंग के दौरान मैंने झीलों की नगरी भोपाल के लगभग सारे 'भवनों' के चक्कर लगाए थे। इनमें भारत भवन, हिंदी भवन, रविंद्र भवन और मानस भवन आदि प्रमुख है। मैं अपनी हरक्यूलस साइकिल से ही रिपोर्टिंग किया करता था। यानी करीब दो साल तक मैंने साइकिल से ही रिपोर्टिंग की थी। इन सालों में मुझे अपने वरिष्ठ पत्रकार साथियों से काफी कुछ सीखने को मिला। इनमें विनय उपाध्याय (राज्य की नई दुनिया), वसंत सकरगाए (राज्य एक्सप्रेस), राकेश सेठी, सौरभ कुमार (जागरण), शकील जी (दैनिक भास्कर), बद्र वास्ती, अरुण कुमार (नवभारत) आदि शामिल है।

कुछ बातें, कुछ लोग पार्ट टू


चर्चा ऑफ दी रिकार्ड, चाय-पकौड़े ऑन द रिकार्ड

पहले शॉट में- 
सांध्य दैनिक अग्निबाण, भोपाल, 30 जून, 2005
अग्निबाण में ही प्रकाशित इस खबर को रोचक बनाती है इसकी हेडिंग। उन दिनों भोपाल के अप्सरा रेस्टारेंट में रोजाना दो-चार प्रेस कांफ्रेंस-प्रेसवार्ता हुआ करती थी। यह बात सभी जानते हैं कि प्रेस कांफ्रेंस में चाय-समोसा, खाना-पीना क्या स्‍थान रखता है। इस बात को जब मैंने एक किताब पर चर्चा के लिए आयोजित कार्यक्रम के दौरान वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी के मुख से सुना, तो तुरंत दूसरे दिन के अखबार की हेडलाइन बना दी- चर्चा ऑफ दी रिकार्ड, चाय-पकौड़े द रिकार्ड।

अब विस्तार से- 
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के न्यू मार्केट का अप्सरा रेस्टारेंट प्रेस कांफ्रेंस-प्रेसवार्ता के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है, जो कि रविन्द्र भवन परिसर में स्थित है। झीलों की नगरी भोपाल को जानने वाले पत्रकार बंधु इस तथ्य से अंजान नहीं होंगे। मुझे अपने इवनिंग न्यूज पेपर के लिए रोजाना कुछ अलग हटकर न्यूज देनी होती थी। मेरे बॉस अवधेश बजाज जी का साफ निर्देश था कि सुबह के अखबार में जो खबर छप जाए, उसे हम नहीं छापेंगे। इसलिए मुझे आर्ट एंड कल्चर की खबरों को नया रंग देना होता था। यह खबर इसी का नतीजा था। वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी की किताब -हरसूद 30 जून- पर चर्चा के लिए आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में टेलीविजन पत्रकार राहुल देव और आदरणीय रामशरण जोशी मौजूद थे।

कुछ बातें, कुछ लोग पार्ट- वन


'पोंगा पंडित' ने पाए लाखों और कराए उपद्रव

पहले शॉट में- 

सांध्य दैनिक अग्निबाण, भोपाल, 5 अगस्त, 2005
किसी भी अखबार के फ्रंट पेज पर यह मेरी पहली बाइलाइन न्यूज थी। अखबार था इंदौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक अग्निबाण का भोपाल एडीशन। हमारे बॉस थे मध्यप्रदेश के बेहद निडर और तेजतर्रार पत्रकार और संपादक अवधेश बजाज साहब। इस खबर का ‌दिलचस्प पहलू यह है कि संस्कृति विभाग के कई चक्कर काटने के बाद तैयार मेरी स्टोरी काफी लंबी हो गई थी, जिसे बजाज साहब ने खुद पेज पर एडिट करवाई थी। मुझे याद है कि इसकी यह हेडिंग भी उन्होंने ही ‌दी थी।

अब विस्तार से- 
अग्निबाण में मुझे आर्ट एंड कल्चर की रिपोर्टिंग का जिम्मा मिला था। यानी कला संवाददाता का। पत्रकारिता का यह मेरा चौथा संस्‍थान था। इससे पहले लोकमत समाचार छिंदवाड़ा, भोपाल से प्रकाशित स्वदेश न्यूज पेपर और एक साहित्यिक मैगजीन में काम करने का तर्जुबा था। भोपाल में अग्निबाण के शुरुआत से ही मैं इससे जुड़ा हुआ था। मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर के इस नाटक 'पोंगा पंडित' पर स्टोरी का आइडिया मेरे वरिष्ठ साथी गौरव चतुर्वेदी ने दिया था। इस स्टोरी के दौरान मुझे पता नहीं था कि इसका प्लेसमेंट कहां और कैसे होगा। स्टोरी काफी लंबी लिख डाली थी, सो पहले पेज पर लगाने के दौरान हमारे बॉस ने ही इसे छोटी करवाई। मैं उस दौरान पीछे ही खड़ा था। उस समय वहां की रिपोर्टिंग टीम में गीत दीक्षित, गौरव चतुर्वेदी, विनोद उपाध्याय, आरती शर्मा, जुबेर कुरैशी, जितेंद्र सूर्यवंशी, हरीश बाबू आदि थे।

क्या वाजपेयी की तरह स्वीकार्य होंगे मोदी !

 बेशक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदारों में हैं, लेकिन सवाल उठता है कि क्या वह एनडीए के घटक दलों को स्वीकार्य होंगे?
 
रामकृष्‍ण डोंगरे
आगामी लोकसभा चुनाव में अभी लगभग एक वर्ष का समय बाकी है, लेकिन राजनीतिक गलियारों में व्यूह रचना शुरू हो चुकी है। सत्तारूढ़ कांग्रेस ने जहां राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष एवं चुनावी तैयारियों का प्रमुख बनाया है, वहीं भाजपा तीसरी बार गुजरात में जीत हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी को बड़ी भूमिका सौंपकर एक दांव खेलना चाहती है। महंगाई एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में यूपीए सरकार की विफलता जग जाहिर है। भले ही कुछ कांग्रेसी नेता राहुल गांधी को करिश्माई नेता मानते हैं, लेकिन अब तक उनका करिश्मा देखने को नहीं मिला है। उधर, अगर एनडीए सत्ता में आता है, तो कौन प्रधानमंत्री बनेगा, इसे लेकर अब भी गठबंधन में विवाद बरकरार है।

खुद भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लंबी कतार है, जिनमें नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, लालकृष्‍ण आडवाणी, राजनाथ सिंह के नाम प्रमुख हैं। लेकिन किसी एक नाम पर सहमति बनना अभी बाकी है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम की काफी चर्चा हो रही है, लेकिन एनडीए के घटक दलों के साथ-साथ भाजपा में भी इस पर काफी मतभेद हैंै। वोट बटोरने के लिहाज से भाजपा मोदी की अगुआई में चुनाव में उतर सकती है, लेकिन इससे एनडीए के बिखरने का खतरा है।

साफ है कि एनडीए के प्रमुख घटक दल जेडीयू को मोदी के नाम पर सख्त आपत्ति है। कुछ दिन पहले यशवंत सिन्हा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने की खुलकर वकालत की थी, जिस पर एनडीए के प्रमुख घटक दल जेडीयू ने सख्त नाराजगी जताई थी। उधर शिवसेना की भी पहली पसंद सुषमा स्वराज हैं। चूंकि भाजपा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खूब चलती है और संघ परिवार को मोदी के नाम पर आपत्ति नहीं है, इसलिए मोदी प्रबल दावेदार बनकर उभरे हैं। यशवंत सिन्हा के बाद कलराज मिश्र ने भी मोदी को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में सबसे आगे बताया है।

जहां तक नरेंद्र मोदी की बात है, तो उनके समर्थकों को लग रहा है कि इस बार की जीत उनके लिए दिल्ली का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। गुजरात विधानसभा चुनाव से ही उन्होंने अपने इरादे का संकेत देना शुरू कर दिया था। यही वजह थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार अभियान को उन्होंे खुद पर ही केंद्रित रखा। हर जगह मोदी बनाम कांग्रेस और अन्य के बीच मुकाबले का माहौल बनाया गया। पूरे प्रचार अभियान के दौरान पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति नगण्य थी। पार्टी के जो नेता उसमें शामिल थे, वे भी सहायक की भूमिका में ही थे। लिहाजा इस जीत से मोदी की छवि व्यापक बनकर उभरी है।

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में व्याख्यान देते हुए भी मोदी ने भावी रणनीति का संकेत दे दिया कि गुजरात से दिल्ली की ऊंची उड़ान भरने में विकास और सुशासन के साथ यंग इंडिया का दिल जीतना ही उनका मूल सियासी मंत्र होगा। उन्होंने न केवल गुजरात के विकास का बखान किया, बल्कि युवाओं को भी खास अहमियत दी। जाहिर है कि मोदी अब देश भर में युवाओं के बीच अपनी बेहतर छवि पेश करेंगे।

बहरहाल युवाओं के बीच मोदी की लोकप्रियता बढ़ते देख भाजपा नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपने पर विचार कर रही है। इसके अलावा, उन्हें संसदीय बोर्ड में भी लाने की बात चल रही है। मौजूदा दौर में एनडीए को वाजपेयी जैसे सर्वमान्य नेता की कमी खल रही है। ऐसे में अगर भाजपा नरेंद्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ती भी है, तो सवाल उठता है कि क्या मोदी देश भर में वाजपेयी की तरह लोकप्रियता हासिल कर पाएंगे और क्या वह एनडीए को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में स्वीकार होंगे। क्योंकि विकास के तमाम दावों के बावजूद मोदी के ऊपर से 2002 के दंगे का दाग धुला नहीं है। खैर, यह देखना दिलचस्प होगा कि एनडीए किसका नाम आगे करके अगले लोकसभा चुनाव में उतरता है।

(नोट- अमर उजाला कॉम्पैक्ट के आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर समेत सभी संस्करणों में संपादकीय पेज पर 18 फरवरी, 2013 को प्रकाशित मेरा लेख।)