Sunday, February 24, 2013

क्या वाजपेयी की तरह स्वीकार्य होंगे मोदी !

 बेशक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदारों में हैं, लेकिन सवाल उठता है कि क्या वह एनडीए के घटक दलों को स्वीकार्य होंगे?
 
रामकृष्‍ण डोंगरे
आगामी लोकसभा चुनाव में अभी लगभग एक वर्ष का समय बाकी है, लेकिन राजनीतिक गलियारों में व्यूह रचना शुरू हो चुकी है। सत्तारूढ़ कांग्रेस ने जहां राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष एवं चुनावी तैयारियों का प्रमुख बनाया है, वहीं भाजपा तीसरी बार गुजरात में जीत हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी को बड़ी भूमिका सौंपकर एक दांव खेलना चाहती है। महंगाई एवं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में यूपीए सरकार की विफलता जग जाहिर है। भले ही कुछ कांग्रेसी नेता राहुल गांधी को करिश्माई नेता मानते हैं, लेकिन अब तक उनका करिश्मा देखने को नहीं मिला है। उधर, अगर एनडीए सत्ता में आता है, तो कौन प्रधानमंत्री बनेगा, इसे लेकर अब भी गठबंधन में विवाद बरकरार है।

खुद भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लंबी कतार है, जिनमें नरेंद्र मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, लालकृष्‍ण आडवाणी, राजनाथ सिंह के नाम प्रमुख हैं। लेकिन किसी एक नाम पर सहमति बनना अभी बाकी है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम की काफी चर्चा हो रही है, लेकिन एनडीए के घटक दलों के साथ-साथ भाजपा में भी इस पर काफी मतभेद हैंै। वोट बटोरने के लिहाज से भाजपा मोदी की अगुआई में चुनाव में उतर सकती है, लेकिन इससे एनडीए के बिखरने का खतरा है।

साफ है कि एनडीए के प्रमुख घटक दल जेडीयू को मोदी के नाम पर सख्त आपत्ति है। कुछ दिन पहले यशवंत सिन्हा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने की खुलकर वकालत की थी, जिस पर एनडीए के प्रमुख घटक दल जेडीयू ने सख्त नाराजगी जताई थी। उधर शिवसेना की भी पहली पसंद सुषमा स्वराज हैं। चूंकि भाजपा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खूब चलती है और संघ परिवार को मोदी के नाम पर आपत्ति नहीं है, इसलिए मोदी प्रबल दावेदार बनकर उभरे हैं। यशवंत सिन्हा के बाद कलराज मिश्र ने भी मोदी को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में सबसे आगे बताया है।

जहां तक नरेंद्र मोदी की बात है, तो उनके समर्थकों को लग रहा है कि इस बार की जीत उनके लिए दिल्ली का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। गुजरात विधानसभा चुनाव से ही उन्होंने अपने इरादे का संकेत देना शुरू कर दिया था। यही वजह थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार अभियान को उन्होंे खुद पर ही केंद्रित रखा। हर जगह मोदी बनाम कांग्रेस और अन्य के बीच मुकाबले का माहौल बनाया गया। पूरे प्रचार अभियान के दौरान पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति नगण्य थी। पार्टी के जो नेता उसमें शामिल थे, वे भी सहायक की भूमिका में ही थे। लिहाजा इस जीत से मोदी की छवि व्यापक बनकर उभरी है।

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में व्याख्यान देते हुए भी मोदी ने भावी रणनीति का संकेत दे दिया कि गुजरात से दिल्ली की ऊंची उड़ान भरने में विकास और सुशासन के साथ यंग इंडिया का दिल जीतना ही उनका मूल सियासी मंत्र होगा। उन्होंने न केवल गुजरात के विकास का बखान किया, बल्कि युवाओं को भी खास अहमियत दी। जाहिर है कि मोदी अब देश भर में युवाओं के बीच अपनी बेहतर छवि पेश करेंगे।

बहरहाल युवाओं के बीच मोदी की लोकप्रियता बढ़ते देख भाजपा नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपने पर विचार कर रही है। इसके अलावा, उन्हें संसदीय बोर्ड में भी लाने की बात चल रही है। मौजूदा दौर में एनडीए को वाजपेयी जैसे सर्वमान्य नेता की कमी खल रही है। ऐसे में अगर भाजपा नरेंद्र मोदी को आगे करके चुनाव लड़ती भी है, तो सवाल उठता है कि क्या मोदी देश भर में वाजपेयी की तरह लोकप्रियता हासिल कर पाएंगे और क्या वह एनडीए को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में स्वीकार होंगे। क्योंकि विकास के तमाम दावों के बावजूद मोदी के ऊपर से 2002 के दंगे का दाग धुला नहीं है। खैर, यह देखना दिलचस्प होगा कि एनडीए किसका नाम आगे करके अगले लोकसभा चुनाव में उतरता है।

(नोट- अमर उजाला कॉम्पैक्ट के आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर समेत सभी संस्करणों में संपादकीय पेज पर 18 फरवरी, 2013 को प्रकाशित मेरा लेख।)

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