Sunday, March 7, 2010

महिला दिवस विशेष : दहलीज़ पर खडी एक लड़की

दरवाजे की दहलीज़ पर खडी एक लड़की सोच रही है। ' मैं लड़की हूँ ' इसमें मेरा क्या दोष है। मैं भी इस दहलीज़ के बाहर जाना चाहती हूँ। अपनी मंजिल को मैं भी पाना चाहती हूँ। फिर क्यों मुझे बाहर जाने से रोका जा रहा है। आखिर क्यों ? और किसलिए ? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक लड़की हूँ। मैं लड़की हूँ इसमें मेरा क्या दोष... मैं भी अपनी मंजिल को पाना चाहती हूँ दरवाज़े की दहलीज़ पर खडी एक लड़की सोच रही है। रामकृष्ण डोंगरे

Thursday, March 4, 2010

बीस रुपये, एक थाली, एक रूमाल तो नहीं मिला ... मिली सिर्फ मौत

बाबा के पुण्य के चक्कर गई दर्जनों की जान
दर्जनों, सैकड़ों और हजारों की तादाद में होने वाली मौतों पर हम मातम करें या मंथन। हासिल कुछ भी नहीं होने वाला। अब तक कई धार्मिक आयोजनों में हजारों की संख्या में लोग मारे गए है। मगर ये सिलसिला बदस्तूर जारी है। शायद धार्मिक आयोजनों में जाने से न तो लोगों को रोका जा सकता है, और न वहां होने वाले ऐसे हादसों को।
बीस रुपये, एक थाली, एक रूमाल, एक लड्डू को लेने की खातिर गए इन लोगों को मौत मिली। कोई यह भी कह सकता है कि इन्हें कृपालु महाराज का आशीर्वाद पाने का लोभ था।
अब लोगों को भगवान याद आ गया। वही भगवान जिससे उम्मीद की जाती है वह सबकी रक्षा करेगा। क्या सचमुच ऐसी जगहों पर होता है कोई भगवान ? मनगढ़ के भक्ति धाम में बाबा कृपालु जी महाराज ने अपनी पत्नी की पहली बरसी पर पुण्य कमाने के लिए यह भंडारा आयोजित किया था। तो बाबा के पुण्य के चक्कर ६३ लोगों ने अपनी जान गंवा दी।
------------------------- सवाल- ६३ लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन? जवाब- बाबा, प्रशासन और स्वयं वे लोग। हम सब के मन में पहला सवाल यही उठा होगा। आखिर प्रतापगढ़ के मनगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में गईं इतनी जिंदगियों का जिम्मेदार कौन है? मैंने भी यही सहज सवाल एक शख्स से पूछा था। धर्म के नाम पर दुनिया में क्या कुछ नहीं चल रहा है। आखिर चले भी क्यों न। दूसरे क्षेत्रों शिक्षा, मनोरंजन, खेल की तरफ धर्म भी अब कारोबार का रूप ले चुका है। मगर सवाल यह है कि मंदिरों, मेलों, आश्रमों में होने वाली मौत का जिम्मेदार कौन है? एक सुर में सभी का कहना होता है कि जिम्मेदारी शासन-प्रशासन की बनती है। क्योंकि सुरक्षा और व्यवस्था देखना इनका काम है। नाकामी प्रशासन की ही है। बीस रुपये, एक थाली, एक रूमाल, एक लड्डू को लेने की खातिर गए इन लोगों को मौत मिली। कोई यह भी कह सकता है कि इन्हें कृपालु महाराज का आशीर्वाद पाने का लोभ था। बताया जा रहा है कि भंडारे में बंटने वाला भोग हर हाल में पाने के लिए लोग समय से दो तीन घंटा पहले ही मनगढ़ आश्रम के सामने जुटने लगे थे। महाराज से 'सुखी रहो, जीते रहो का आशीष लेने पहुंचे थे लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। प्रसाद की जगह मौत मुंह बाए उनका इंतजार कर रही थी। अपने बेटे, बेटियों और मां बहनों को गंवा चुके लोगों के सामने एक ही सवाल था कि हे ईश्वर यह कैसा न्याय है। अब लोगों को भगवान याद आ गया। वही भगवान जिससे उम्मीद की जाती है वह सबकी रक्षा करेगा। क्या सचमुच ऐसी जगहों पर होता है कोई भगवान? मनगढ़ के भक्ति धाम में बाबा कृपालु जी महाराज ने अपनी पत्नी की पहली बरसी पर पुण्य कमाने के लिए यह भंडारा आयोजित किया था। तो बाबा के पुण्य के चक्कर ६३ लोगों ने अपनी जान गंवा दी। भंडारे में करीब पंद्रह से पच्चीस हजार लोग पहुंचे थे। आखिर इन बाबाओं के आयोजनों में लोग जाते ही क्यों है? ऐसा क्या है जो लोग सम्मोहित से खिचें चले जाते हैं। 'भक्ति' या तथाकथित भक्ति ऐसी होती है...। जान गंवाने के लिए जाते है लोग...। मंदिरों और मेलों में अफवाहों से भगदड़ मचना समझ में आता है, लेकिन इन बाबाओं के आश्रमों में ये सब...। एक सवाल यह भी है आखिर ऐसे कार्यक्रमों में इतनी भीड़ उमड़ती क्यों है। क्या आस्था, भक्ति या श्रद्धा के नाम पर...। भूख और चीजों को दान में पाने का लालच में इन बेतहाशा लोगों को यहां खींच लाता है। साफ जाहिर होता है कि हजारों की तादाद में उमड़ती भीड़ के लिए भक्ति की भावना से ज्यादा भूख-गरीबी जिम्मेदार है। -------------------------- बाबा कृपालु जी महाराज का सच
  • आलीशान रहन-सहन का आदी हैं कृपालु महाराज
  • इटैलियन मार्बल से चकाचौंध है भक्ति धाम
  • त्रिनिदाद में कथित रेप से हो चुकी है किरकिरी
  • महज ३४ साल की आयु में पांचवें जगद्गुरु की उपाधि
महज ३४ साल की आयु में कृपालु जी महराज को पांचवें जगद्गुरु की उपाधि दी गई थी। वह देश-विदेश में घूमकर प्रवचन और लोगों को राधा-कृष्ण भक्ति का संदेश देने लगे। प्रसिद्धि फैली तो मनगढ़ भक्ति धाम में देश-विदेश से भक्तों की भीड़ जमा होने लगी। कृपालु जी महाराज ने पंचम जगद्गुरु की उपाधि मिलने के बाद अपनी जन्मस्थली भक्तिधाम मनगढ़ को सजाना-संवारना शुरू कर दिया था। कृपालु जी महाराज का जन्म वर्ष १९२२ में मनगढ़ में हुआ। उन्होंने इंदौर, चित्रकूट, वाराणसी में साहित्य, आयुर्वेद का अध्ययन किया। १६ वर्ष की उम्र में राधा कृष्ण भक्ति का प्रचार शुरू किया।

होली के बहाने जेएनयू की सैर

जेएनयू की होली : मदहोशी में भी होश में थे स्टूडेंटर्स
लड़के-लड़कियां गु्रप में नाच-गा रहे थे। उछल-कूद मचा रहे थे। लोगों ने अपनी अजीब-अजीब सी शक्लें बना रखी थी। जेएनयू में कई बातें गौर करने लायक थी। लड़के और लड़कियां सभी रंग और गुलाल में सराबोर थे। नशा भी किया था। मगर सभी होश में थे, सभी शालीनता से पेश आ रहे थे। लड़कियों ने अच्छी ड्रेस पहनी थी। फिर चाहे वे लड़कियां देसी रही हो, विदेशी रही हो, साउथ इंडियन या नार्थ-ईस्ट की।
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लौटते समय मेरे दिमाग में सवाल आया कि क्या छिन्दवाड़ा जिले से किसी ने जेएनयू में पढ़ाई की है। शायद नहीं... अगर की होगी तो ... डॉ. ब्राउन, भूतपूर्व प्रिंसिपल डीडीसी कॉलेज, बता सकते हैं। इस बारे में पता करना होगा। जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अच्छे अफसर, नेता, पत्रकार, विचारक और रणनीतिकारों की जन्मस्थली रही है। मैं इस बात से खुश था कि होली के बहाने मुकेश भाई ने मुझे जेएनयू की सैर करवा दी।
----------------------- संडे की शाम को अपने दोस्त मुकेश के रूम पर पहुंचा। उसका रूम साउथ डेहली में वसंत विहार के पास मुनरिका में है। रात को नौ बजे के आसपास उसने कहा, रामकृष्ण चलो, जेएनयू चलते हैं। और हम निकल पड़े। उसके साथ और दो-तीन दोस्त थे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) उसके रूम से पास में ही है। मेन गेट से दाखिल होते ही गंगा ढाबा के सामने लड़कियों के हॉस्टल केपास ही मंच पर होली का प्रोग्राम चल रहा था। जेएनयू में कुल मिलाकर १६ हॉस्टल्स हैं। सभी हॉस्टल से एक-एक प्रतिभागी अपनी प्रस्तुति दे रहा था। दिमाग खाने वाले या चाटने वालों पर प्रोग्राम केंद्रित था। काफी देर तक हमने प्रोग्राम देखा। रात का खाना हम लोगों ने जेएनयू में किया। खाना काफी लजीज और स्वादिष्ट था। खाने के समय हमारे साथ दो शख्स और थे। एक महिला और एक पुरुष। जेएनयू में पहुंचने पर ही मुझे कई नई बातें मालूम हुई। जेएनयू परिसर के ऊपर से हर एक-दो मिनट में प्लेन गुजरते हैं। जिससे काफी शोर होता है। छिन्दवाड़ा के रहने वाले मेरे दोस्त मुकेश भाई ने बताया कि जेएनयू में एयरपोर्ट (इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अडडा) वाले इसके लिए काफी पैसा देते हैं। प्लेन रात को ज्यादा गुजरते हैं। दिन में प्लेनों की आवाजाही कुछ कम होती है। इसलिए क्लास के दौरान कोई डिस्टर्ब नहीं होता। राजधानी दिल्ली की बड़ी यूनिवर्सिटीज की बात करें तो, जहां डीयू और जामिया यूनिवर्सिटी कैंपस दिन में अपने जलवे के लिए मशहूर हैं, वहीं जेएनयू कैंपस रात के जलवों के लिए जाना जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि जेएनयू एक कॉम्पेक्ट रेजिडेंशियल कैंपस है। इसके चलते इसके छात्र-छात्राएं जहां दिन में सिर्फ अपनी पढ़ाई में रमे रहते हैं। मौज-मस्ती के लिए वे रात का समय चुनते हैं। इसके चलते जेएनयू कैंपस के सभी हॉस्टल्स, ढाबों और कैफे का माहौल रात दो से तीन बजे तक पूरी तरह छात्रों और उनकी मौज-मस्ती से गुलजार रहता है। दूसरे दिन सोमवार (एक मार्च, २०१०) को हम लोग होली खेलने के लिए फिर जेएनयू पहुंचे। वहां का माहौल बहुत ही अच्छा था। जेएनयू में दाखिल होने से पहले हम पांच लोगों में से किसी ने भी रंग-गुलाल नहीं लगाया था। वहां जाकर देखा तो कई लड़कों के कपड़े (शर्ट, टी-शर्ट) फटे हुए थे, कईयों ने भांग का नशा किया हुआ था। मगर किसी ने भी हमें रंग या गुलाल नहीं लगाया। एक-दो हमारे पहचान वाले बंदे अंदर थे, उन्होंने ही हमें गुलाल लगाया। चेहरे पर। फिर हम लोगों ने आपस में एक दूसरे को गुलाल लगाया। इसके बाद हम लोग काफी देर तक वहां रहे। लड़के-लड़कियां गु्रप में नाच-गा रहे थे। उछल-कूद मचा रहे थे। लोगों ने अपनी अजीब-अजीब सी शक्लें बना रखी थी। जेएनयू में कई बातें नोट करने लायक थी। लड़के और लड़कियां सभी रंग और गुलाल में सराबोर थे। नशा भी किया था। मगर सभी होश में थे, सभी शालीनता से पेश आ रहे थे। लड़कियों ने अच्छी ड्रेस पहनी थी। फिर चाहे वे लड़कियां देसी रही हो, विदेशी रही हो, साउथ इंडियन या नार्थ-ईस्ट की। बाद में हम लोगों ने पूरा कैम्पस घूमा। गंगा ढाबा पर कॉफी पी। लौटते समय मेरे दिमाग में सवाल आया कि क्या छिन्दवाड़ा जिले से किसी ने जेएनयू में पढ़ाई की है। शायद नहीं... अगर की होगी तो ... डॉ। ब्राउन, भूतपूर्व प्रिंसिपल डीडीसी कॉलेज, बता सकते हैं। इस बारे में पता करना होगा। जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अच्छे अफसर, नेता, पत्रकार, विचारक और रणनीतिकारों की जन्मस्थली रही है। मैं इस बात से खुश था कि होली के बहाने मुकेश भाई ने मुझे जेएनयू की सैर करवा दी।

Tuesday, March 2, 2010

सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया एक 'दीपक'

सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया एक 'दीपक'
हम चाहे कितना भी सोचें कि ये सब किस्मत में लिखा होगा। मगर मैं इन बातों को मानने केलिए तैयार नहीं हूं कि सुखदेव को उसकी किस्मत ले डूबी। सुखदेव की जगह को हमारे बीच में भरना अब मुमकिन नहीं है। वो एक ऐसा 'दीपक' था जो अपने परिवार के लिए रोशनी बन गया था। उसे हमारे सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया।
सुखदेव डोंगरे 'दीपक'... एक नाम जो परिचय का मोहताज नहीं... अभावों में जन्मा-पला-बढ़ा और कई ऊंचाईंयों को छूवा। स्कूल से पढऩे में होशियार ... १२ वीं क्लास में अव्वल रहा... स्कूल का बेस्ट स्टूडेंट ऑफ द ईयर भी। प्रायवेट पढ़ाई से कॉलेज... बीए फिर एमए अंग्रेजी से। उमरानाला में नाका मोहल्ला और फिर जाम रोड पर 'अभिनव कोचिंग' का संचालन। जीके की अच्छी जानकारी। जिसकी बदौलत रेडियो से इंटरव्यू प्रसारित हुए। राइटिंग में कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता था। कई लेख, कविताएं और रचनाएं लिखीं। मेरे एक मित्र युवा हास्य-व्यंग्यकार मूर्ख मध्यप्रदेशी उनकी कलम का लोहा मानते हैं। उसने भी हम पत्रकार दोस्तों (मेरे अलावा भाई अमिताभ दुबे और उनके भ्राता पत्रका अनिमेष दुबे) से प्रेरणा लेकर शौकिया रूप से पत्रकारिता शुरू कर दी थी। उसकी खबरों में गांव और आसपास की गूंज साफ सुनाई देती थी। उसने भास्कर के अलावा कई छोटे-बड़े अखबारों के लिए काम किया। जिला मुख्यालय छिन्दवाड़ा जाकर भी अखबार के दफ्तर में काम किया। कई बार मेरी उससे चर्चा हुई, कि तुम प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करो, छोटी-मोटी सरकारी नौकरी का जुगाड़ देखो। वह भी मुझसे कहता रहा कि ... मैं तैयारी कर रहा हूं। पत्रकारिता मुझे हमेशा नहीं करनी है। मुझे इस काम से खुशी मिलती है, इसलिए मैं अखबारों के लिए रिपोर्ट तैयार करता हूं। सुखदेव बहुत ही ज्यादा एक्टिव और जिंदादिल इंसान था। वह जेब खर्च और अपनी पढ़ाई के खर्च के लिए कई छोटे-मोटे काम करता था। मेरे एक दोस्त हेमंत मालवीय 'हेमंत पेंटर' के साथ उसने कई काम किए। हेमंत ही उसे मुझसे मिलवाने मेरे घर लाया था। हेमंत ने कहा था- तुमसे एक तुम्हारे दोस्त को मिलवा रहा हूं। मुझे वो तारीख अच्छे से याद है। ... उसके बाद हमारी मुलाकात और घर आने-जाने का सिलसिला शुरू हो गया। हमने खतों-कितावत का सिलसिला भी जारी कर दिया। मेरे अपने गांव तंसरा और उमरानाला में वो इकलौता शख्स था जिससे मेरा पत्र व्यवहार चला। हमने इन पत्रों में कई बातों का जिक्र किया था। वे पत्र आज भी मेरे पास रखे हुए है। तंसरा से निकलकर... छिन्दवाड़ा, भोपाल आने के बाद भी उसके पत्र मुझे मिलते रहे। अब बात करते हैं मूल कारणों पर। उसकी मौत की वजहों पर। सुखदेव के बारे में जैसा कि हम जानते हैं। उसके परिवार में बुजुर्ग उम्रदराज, दादाजी के उम्र के पिता और माताजी के अलावा छोटे भाई-बहन समेत छह लोग थे। छोटा-सा कच्चा घर। जिसमें कई सालों तक बिजली नहीं थी। थोड़ा-सा खेत। माताजी छोटे-मोटे काम करती है। उसने अपनी कई क्लासों की पढ़ाई बिना बिजली के यानी दीपक की रोशनी में की थी। बारहवीं तक की पढ़ाई करने के बाद वह कुछ इधर-उधर के काम करने लगा। ताकि घर खर्च में हाथ बंटा सकें। साथ-साथ पढ़ाई भी जारी रखीं। उसने कितने काम्पीटिशन एक्जाम दिए मुझे पता नहीं, शायद किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया। वह घर से बाहर नहीं निकल सका...। फिर क्या हुआ... । यही सबसे बड़ा सवाल है। ऐसा क्या हुआ कि वह डिप्रेशन का शिकार हो गया। अपनी याददाश्त खो बैठा। घर से भाग गया। उसका नागपुर में इलाज चला। फिर ठीक होने केबाद अचानक ... एक दिन कुंए में गिर गया। रातभर उसी में रहा। जख्म गहरा हो गया। जिसके चलते वह बिस्तर पर पड़ गया। क्या पढऩे में होशियार हर शख्स डिप्रेशन का शिकार हो जाता है? अगर ऐसा होता तो दुनिया में कोई भी शख्स ज्यादा पढ़ाई न करता। दुनिया में बड़े-बड़े वैज्ञानिक और विद्वान, विचारक नहीं होते। जो हजारों किताबें चाट डालते हैं। फिर इन नासमझ गांव वालों को कौन समझाए.... जो कहते फिरते है कि पढ़-पढ़ के पागल हो गया। अच्छे खासे स्वस्थ इंसान को इनकी बातें ही पागल बना देती है। काश कि हमारा दोस्त सुखदेव घर से बाहर निकल जाता... उसके घर की परिस्थितियों को देखते हुए हमने कभी उस पर दबाव नहीं बनाया कि तुम घर से निकलो। उसने भी कभी खुद से नहीं कहा। काश कि वह कभी कह देता... काश सुखदेव ... मेरे भाई की तरह ...। हम चाहे कितना भी सोचें कि ये सब किस्मत में लिखा होगा। मगर मैं इन बातों को मानने केलिए तैयार नहीं हूं कि सुखदेव को उसकी किस्मत ले डूबी। सुखदेव की जगह को हमारे बीच में भरना अब मुमकिन नहीं है। वो एक ऐसा 'दीपक' था जो अपने परिवार के लिए रोशनी बन गया था। उसे हमारे सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया। (फोटो ८ अगस्त, 2003 को chhindwara में ली गई थी ) ... दूर तलक जाएगी 'दीपक' की बात