Tuesday, March 2, 2010

सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया एक 'दीपक'

सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया एक 'दीपक'
हम चाहे कितना भी सोचें कि ये सब किस्मत में लिखा होगा। मगर मैं इन बातों को मानने केलिए तैयार नहीं हूं कि सुखदेव को उसकी किस्मत ले डूबी। सुखदेव की जगह को हमारे बीच में भरना अब मुमकिन नहीं है। वो एक ऐसा 'दीपक' था जो अपने परिवार के लिए रोशनी बन गया था। उसे हमारे सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया।
सुखदेव डोंगरे 'दीपक'... एक नाम जो परिचय का मोहताज नहीं... अभावों में जन्मा-पला-बढ़ा और कई ऊंचाईंयों को छूवा। स्कूल से पढऩे में होशियार ... १२ वीं क्लास में अव्वल रहा... स्कूल का बेस्ट स्टूडेंट ऑफ द ईयर भी। प्रायवेट पढ़ाई से कॉलेज... बीए फिर एमए अंग्रेजी से। उमरानाला में नाका मोहल्ला और फिर जाम रोड पर 'अभिनव कोचिंग' का संचालन। जीके की अच्छी जानकारी। जिसकी बदौलत रेडियो से इंटरव्यू प्रसारित हुए। राइटिंग में कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता था। कई लेख, कविताएं और रचनाएं लिखीं। मेरे एक मित्र युवा हास्य-व्यंग्यकार मूर्ख मध्यप्रदेशी उनकी कलम का लोहा मानते हैं। उसने भी हम पत्रकार दोस्तों (मेरे अलावा भाई अमिताभ दुबे और उनके भ्राता पत्रका अनिमेष दुबे) से प्रेरणा लेकर शौकिया रूप से पत्रकारिता शुरू कर दी थी। उसकी खबरों में गांव और आसपास की गूंज साफ सुनाई देती थी। उसने भास्कर के अलावा कई छोटे-बड़े अखबारों के लिए काम किया। जिला मुख्यालय छिन्दवाड़ा जाकर भी अखबार के दफ्तर में काम किया। कई बार मेरी उससे चर्चा हुई, कि तुम प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करो, छोटी-मोटी सरकारी नौकरी का जुगाड़ देखो। वह भी मुझसे कहता रहा कि ... मैं तैयारी कर रहा हूं। पत्रकारिता मुझे हमेशा नहीं करनी है। मुझे इस काम से खुशी मिलती है, इसलिए मैं अखबारों के लिए रिपोर्ट तैयार करता हूं। सुखदेव बहुत ही ज्यादा एक्टिव और जिंदादिल इंसान था। वह जेब खर्च और अपनी पढ़ाई के खर्च के लिए कई छोटे-मोटे काम करता था। मेरे एक दोस्त हेमंत मालवीय 'हेमंत पेंटर' के साथ उसने कई काम किए। हेमंत ही उसे मुझसे मिलवाने मेरे घर लाया था। हेमंत ने कहा था- तुमसे एक तुम्हारे दोस्त को मिलवा रहा हूं। मुझे वो तारीख अच्छे से याद है। ... उसके बाद हमारी मुलाकात और घर आने-जाने का सिलसिला शुरू हो गया। हमने खतों-कितावत का सिलसिला भी जारी कर दिया। मेरे अपने गांव तंसरा और उमरानाला में वो इकलौता शख्स था जिससे मेरा पत्र व्यवहार चला। हमने इन पत्रों में कई बातों का जिक्र किया था। वे पत्र आज भी मेरे पास रखे हुए है। तंसरा से निकलकर... छिन्दवाड़ा, भोपाल आने के बाद भी उसके पत्र मुझे मिलते रहे। अब बात करते हैं मूल कारणों पर। उसकी मौत की वजहों पर। सुखदेव के बारे में जैसा कि हम जानते हैं। उसके परिवार में बुजुर्ग उम्रदराज, दादाजी के उम्र के पिता और माताजी के अलावा छोटे भाई-बहन समेत छह लोग थे। छोटा-सा कच्चा घर। जिसमें कई सालों तक बिजली नहीं थी। थोड़ा-सा खेत। माताजी छोटे-मोटे काम करती है। उसने अपनी कई क्लासों की पढ़ाई बिना बिजली के यानी दीपक की रोशनी में की थी। बारहवीं तक की पढ़ाई करने के बाद वह कुछ इधर-उधर के काम करने लगा। ताकि घर खर्च में हाथ बंटा सकें। साथ-साथ पढ़ाई भी जारी रखीं। उसने कितने काम्पीटिशन एक्जाम दिए मुझे पता नहीं, शायद किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया। वह घर से बाहर नहीं निकल सका...। फिर क्या हुआ... । यही सबसे बड़ा सवाल है। ऐसा क्या हुआ कि वह डिप्रेशन का शिकार हो गया। अपनी याददाश्त खो बैठा। घर से भाग गया। उसका नागपुर में इलाज चला। फिर ठीक होने केबाद अचानक ... एक दिन कुंए में गिर गया। रातभर उसी में रहा। जख्म गहरा हो गया। जिसके चलते वह बिस्तर पर पड़ गया। क्या पढऩे में होशियार हर शख्स डिप्रेशन का शिकार हो जाता है? अगर ऐसा होता तो दुनिया में कोई भी शख्स ज्यादा पढ़ाई न करता। दुनिया में बड़े-बड़े वैज्ञानिक और विद्वान, विचारक नहीं होते। जो हजारों किताबें चाट डालते हैं। फिर इन नासमझ गांव वालों को कौन समझाए.... जो कहते फिरते है कि पढ़-पढ़ के पागल हो गया। अच्छे खासे स्वस्थ इंसान को इनकी बातें ही पागल बना देती है। काश कि हमारा दोस्त सुखदेव घर से बाहर निकल जाता... उसके घर की परिस्थितियों को देखते हुए हमने कभी उस पर दबाव नहीं बनाया कि तुम घर से निकलो। उसने भी कभी खुद से नहीं कहा। काश कि वह कभी कह देता... काश सुखदेव ... मेरे भाई की तरह ...। हम चाहे कितना भी सोचें कि ये सब किस्मत में लिखा होगा। मगर मैं इन बातों को मानने केलिए तैयार नहीं हूं कि सुखदेव को उसकी किस्मत ले डूबी। सुखदेव की जगह को हमारे बीच में भरना अब मुमकिन नहीं है। वो एक ऐसा 'दीपक' था जो अपने परिवार के लिए रोशनी बन गया था। उसे हमारे सामाजिक ताने-बाने ने बुझा दिया। (फोटो ८ अगस्त, 2003 को chhindwara में ली गई थी ) ... दूर तलक जाएगी 'दीपक' की बात

5 comments:

Udan Tashtari said...

दुखद!!

Amit K Sagar said...

जब जाना, दुःख हुआ. इतना कि कई रोज़ कुछ न लिख सका!
ऐसा लगा जैसे शब्द नहीं हैं, बातें नहीं हैं, आवाजें नहीं हैं- खामोशी है! और लाबा है कोई! बेहद दुखद!
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इश्वर प्यार दे.

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इस भ्रम पर कि जादा पढ़ने से लोग पागल या 'से' हो जाते हैं, यह वाकई में जागरूकता की कमी और अशिक्षा के कारण है. खासतौर से इस तरह के मामले देहाती राज्यों में अधिकाधिक देखने-जानने को मिलते हैं. स्वंय मैं भी इसका शिकार हुआ और कभी १-२ मामले मेरे पड़ोसी रहे.

अमिताभ अरुण दुबे said...

दिल में एक आग लग लगी है उसका जाना निजी क्षति है ..सुखदेव के शून्य को भर पाना मुश्किल ही नहीं असंभव है ..........
दिल से माफ़ी चाहता हूँ दोस्त काफी लेट हो गया प्रतिक्रिया देने में

Unknown said...

har chije ke liye samaj dosi hai,par samaj bhi to hami se banta hai ,samaj me jo galat hai usee hame hi to sahhi karna hai verna hamare rahne ya na rahane ka kya phayda,ye jindagi bhi pet aur parivar ki irrd girrd khatm ho jaegi.
kahane ko bahut kuch hai ab kya kahu (Desh ke liye kuch ker gaye to baheter hai)

Chhindwara chhavi said...

दीपक भाई बहुत ही सही लिखा आपने ...
क्या आप दीपक पवार है . प्लीज़ अपना परिचय दीजिये ...