Wednesday, November 4, 2015

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार का एक पठनीय विश्लेषण : सरकार की मुट्ठी में नागरिक

Written by प्रदीप कुमार
राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर अत्याधुनिक टेक्नोलोजी सरकार को किस तरह बेलगाम और नागरिक को लाचार बना सकती है, हाल में 'द हिंदू' में प्रकाशित लंबी रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है. १९९९ के कारगिल युद्ध की एक  रोचक मिसाल दी गई है. युद्ध के दौरान पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्रफ बीजिंग में थे. वह होटल  में अपने  रूम से रावलपिंडी के सैनिक मुख्यालय में मौजूद चीफ आफ़ स्टाफ ले.ज. मोहम्मद अज़ीज़ से युद्ध का हाल ले रहे थे.

पश्चिमी भारत में स्थित 'रा' के संचार केंद्र ने पूरे वार्तालाप  को टेप कर लिया. भारत सरकार ने आकाशवाणी और टीवी चैनलों को यह टेप प्रसारण के लिए उपलब्ध करा दिया, जिससे पाकिस्तान के इस झूठ का पर्दाफाश हो गया कि कारगिल, द्रास और बतालिक में भारतीय सेना के खाली पड़े बंकरों पर पाकिस्तानी सेना ने नहीं, कश्मीर की आज़ादी के लड़ाकों ने कब्ज़ा किया था. 'रा' की यह असाधारण क्षमता पहली बार सार्वजनिक हुई. निष्कर्ष यह कि भारत सरकार की जासूस निगाहों से उसके विरोधी हों या साधारण नागरिक, बच कोई नहीं सकता.

लेकिन यह क्षमता भी अपर्याप्त मानी गई. कारगिल युद्ध की समीक्षा ने कई कमजोरियां उजागर कीं. सबसे बड़ी यह विफलता कि पाकिस्तान की नार्दर्न इन्फैंट्री के सैनिकों ने भारत के बंकरों पर अधिकार कर लिया, कई महीने तक लड़ने की ताकत बटोर कर जमा हो गए और भारत अनजान रहा. ऐसी घटना फिर कभी न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए अमेरिका की एनएसए (नेशनल सिक्युरिटी एजेंसी) की तर्ज पर एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गनाइजेशन) का गठन किया गया. देश के प्रतिष्ठित संस्थानों से संचार विशेषज्ञ और विज्ञानी इसकी सेवा में लिए गए और दुनिया भर से बेहतरीन तकनीकी समान जुटाया गया. एनटीआरओ की वास्तविक क्षमता के बारे में बस अनुमान लगाया जा सकता है. एनएसए की क्षमता पर पश्चिमी प्रेस समय-समय पर लिखता रहा है कि यह सीआईए की तुलना में कहीं ज्यादा ताकतवर है. एनएसए के पैटर्न पर बनाए गए एनटीआरओ की ताकत आसानी से समझी जा सकती है.

टेक्नोलोजी के विकास और विस्तार ने सारी वर्जनाएं तोड़ डाली हैं. अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में तो सुरक्षा के क्षेत्र  में निजी कंपनियां पहले से ही बड़ा योगदान कर रही थीं,अब भारत में भी इसका चलन बढ़ रहा है. सीधा फंडा यह कि निजी पूंजी बढ़ेगी,अब तक बंद  दरवाजे एक-एक कर खुलेंगे तो लंबे  समय तक अछूता कोई क्षेत्र नहीं रहेगा. इस तरह विकसित संचार सुविधाएं अब निजी कंपनियों की पहुंच से बाहर नहीं हैं. टाटा की इलेक्ट्रानिक स्ट्रेटेजिक डिविजन और लार्सेन एंड टोब्रो सामरिक महत्व की संचार सुविधाएं जुटा रही हैं. 'द हिंदू' ने सेनाधिकारियों को कहते बताया है कि इस दशक के अंत तक सिर्फ ये दो कंपनियां २२,५०० करोड़ रुपए का सामान जुटा चुकी होंगी.दो साल के अंदर डीआरडीओ का सौ करोड़ की लागत से बना ,सिर्फ जासूसी का  काम करने वाला उपग्रह चालू हो जाएगा.

पृथ्वी से ५०० किमी ऊपर परिक्रमा करने वाला यह उपग्रह सेना के सुपर कम्प्यूटरों को तरह -तरह की सूचनाएं भेजेगा. ये सुपर  कंप्यूटर सैनिक और ख़ुफ़िया महत्व की सूचना संबंधित विभागों को भेजेंगे,जिस पर समुचित कार्रवाई की जाएगी. यह विराट तंत्र, जिसका लगातार विस्तार निश्चित है, राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भी करता है और आतंकित भी. साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह निरापद भी नहीं है.देसी कंपनियों और औद्योगिक घरानों के अपने-अपने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हित हैं. हथियारों के सौदागर सक्रिय हैं. एक-दूसरे के खिलाफ जासूसी कर,अपने हित साधने की होड़ बढ़ती जा रही है. कौन किसका वार्तालाप सुन रहा है, कहा नहीं जा सकता. कोई भी सरकार, कोई भी मंत्री सरकारी ख़ुफ़िया तंत्र का अपने हित में इस्तेमाल कर सकता है. अतीत में अनेक घटनाएं हो चुकी हैं. विरोधियों का टेलीफोन टेप करवाने के मामले में कर्णाटक के मुख्यमंत्री राम कृष्ण हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन ऐसा कम हो पाता है. कांग्रेस के समर्थन पर टिकी चंद्र शेखर सरकार इसी बात  पर ख़त्म हो गई थी कि उसने  कांग्रेस के खिलाफ जासूस लगा दिए थे. अब किसी प्रधानमंत्री को इतने भद्दे तरीके से जासूसी कराने की ज़रूरत नहीं है. अत्यंत संवेदनशील यंत्रों से दूर बैठे वार्तालाप भी टेप हो सकता है और फोटो भी जुटाए जा सकते हैं. पहली बात यह कि पता नहीं चल पाएगा. और अगर पता चल भी गया तो अधिक संभावना यही है कि दोषी बच जाएंगे, जैसा कि अभी तक होता रहा है.

व्यक्तियों और संगठनों की निजता को स्थायी खतरे का कारण यह है कि भारत में ख़ुफ़िया एजेंसियां आम नागरिक के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. आईबी, 'रा', सीबीआई -ये तीनों संसद के प्रति जवाबदेही से मुक्त हैं. संसद के किसी अधिनियम के परिणाम स्वरूप इन एजेंसियों का जन्म नहीं हुआ. इस व्यवस्था से जवाबदेही भी  नहीं रहती और  राष्ट्रीय सुरक्षा का भी नुकसान होता है. मसलन, आईबी या 'रा' का कोई एजेंट कानूनन किसी को न तो गोली मार सकता है और न अपहरण कर सकता है. 'रा' के हाथ-पैर इस वजह से बंधे रहते हैं. क्या 'रा' भारत के किसी दुश्मन को हज़ार मील दूर जा कर उसी तरह गिरफ्तार कर सकती है, जैसे इस्रायली ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद अर्जेंटीना से नाज़ी अपराधी आइखमैन को पकड़ लाई थी या अरब देशों में घुस कर फलस्तीनी लड़ाकों को टपका देती है? इस सवाल के जवाब में 'रा' के पूर्व  प्रमुख ए.के.वर्मा का कहना है कि सवाल क्षमता का नहीं है. मान लिया इस तरह का कोई काम कर डालें तो कानून के फंदे में फंसेंगे. इसलिए संसद से चार्टर पास होना चाहिए. अगर कोई सरकारी एजेंसी शुद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा में सख्त कदम उठाती है, तो उसे खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. केपीएस गिल के नेतृत्व में पंजाब पुलिस ने आतंकवादियों का सफाया तो कर दिया, लेकिन बाद में कई अधिकारी फंस गए. संधू जैसे पुलिस अधीक्षक को आत्महत्या करनी पड़ी.

जिन आदेशों या सर्कुलरों के आधार पर 'रा' जैसे संगठन खड़े किए जाते हैं, उनकी वैधानिकता ही संदिग्ध है. 'रा' के पूर्व अतिरिक्त निदेशक बी.रमण का कहना है कि यही आश्चर्य है कि अभी तक किसी अदालत ने इन आदेशों को अवैध नहीं करार दिया है. भारत है तो सबसे बड़ा लोकतंत्र, लेकिन ख़ुफ़िया एजेंसियां यहां लोक के नियंत्रण से जितना बाहर हैं, उतना अन्य किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं. ब्रिटेन की ख़ुफ़िया एजेंसियां एमआई-५ और एमआई-६ का गठन संसद की मंजूरी से हुआ था. अमेरिका में सीआईए और  एनएसए के लिए कांग्रेस  ने कानून बनाया. सुरक्षा को लेकर बहुत दहशतज़दा रहने वाले इसराइल में भी संसद ख़ुफ़िया एजेंसियों पर निगाह रखती है.

अमेरिका में  क्लिंटन और बुश के शासन में मुहिम चली थी कि लोगों पर  अचानक जासूसी का अधिकार एनएसए और एफबीआई (फेडेरल ब्यूरो आफ़ इनवेस्टीगेशन) को दिया जाए. कांग्रेस ने इसे वीटो कर दिया. अमेरिकी तंत्र सुद्रढ़ है ही इसलिए कि राष्ट्रपति भी कानून के प्रति किसी मामूली नागरिक की तरह उत्तरदायी है. १९७४ के वाटरगेट कांड को याद करें.निक्सन को दोबारा राष्ट्रपति बनवाने का अभियान चला रही कमिटी ने प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रटिक पार्टी के वाटरगेट स्थित मुख्यालय में महत्वपूर्ण सूचनाएं हासिल करने के लिए सेंध लगवाई थी. डेमोक्रेटिक पार्टी के मुख्यालय में होने वाले वार्तालाप को सुनने के लिए वायरिंग की गई. तार निक्सन के कार्यालय से जोड़े गए. यह गलत काम करने वालों को भुगतान जिस कोष से हुआ,उसमें काला धन जमा होता था.ये सब सार्वजनिक होने बाद निक्सन को तुरंत इस्तीफा देना पड़ा. फिर भी वह फंस रहे थे. कार्यवाहक राष्ट्रपति जेरार्ड फोर्ड ने अभयदान देकर उन्हें बचाया.

भारत में नेहरू के बाद हर प्रधानमंत्री पर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ख़ुफ़िया एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है. 'रा'  के गठन के बाद अंदरूनी मामलों में इसकी मदद लेने के भी आरोप लग चुके है. यह पूरी तरह गैरकानूनी है क्योंकि 'रा' का जिम्मा तो बाहरी देशों में जासूसी करना है.इन्हीं आरोपों के मद्देनज़र मोरारजी देसाई ने आपातकाल के बाद प्रधानमंत्री बनने पर प्रतिशोध की भावना के साथ 'रा' के बजट, स्टाफ और कार्यक्षेत्र को कम कर दिया था. गुस्सा इतना गहरा था कि 'रा' को दुरुस्त करने के चक्कर में, सुरक्षा के क्षेत्र में कई वर्षों के किए-धरे पर पानी फेर दिया गया.
यह सब राजनीतिक संकीर्णता और दूरदर्शिता के अभाव का परिणाम था, लेकिन सच यह भी है कि काले-सफ़ेद कारनामों को राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में डाल दिया जाता है. संसद के विशेषाधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर होने वाले बहुत सारे कामों से देश की जड़ों में मट्ठा पड़ रहा है.

दुनिया के किसी और देश की संसद में काली कमाई के नोटों की गड्डियां नहीं उछाली गई होंगी. वह काले कारनामों की एक श्रंखला थी. आरोप था सांसदों की खरीद का ताकि सरकार अविश्वास प्रस्ताव को हरा सके. इसी सिलसिले में अमर सिंह का फोन गैरकानूनी तरीके से टेप किया गया. इसके लिए सर्विस प्रोवाइडर को फर्जी ईमेल भेजा गया. यह केस शायद ही आखिरी मुकाम तक पहंचे क्योंकि कानून के सीरियल उल्लंघन में लंबे-लंबे हाथ हैं. कटघरे में देश की दोनों सबसे बड़ी पार्टियां, कांग्रेस और बीजेपी हैं. समस्या की जड़ यह है कि भारत की सुरक्षा व्यवस्था और उससे जुड़ी एजेंसियों के लिए नागरिक सत्ता की अहमियत नहीं है.

हालत कोल्हू के बैल की हो गई है, जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी रहती है और वह लगातार चलता रहता है. ये एजेंसियां महसूस ही नहीं कर सकतीं कि नागरिक सत्ता के क्षरण पर टिकी सुरक्षा व्यवस्था आततायी होकर अपनी कब्र खोदने का काम खुद करने लगती है. सिर्फ दो देशों का उदाहरण लेते हैं. नाज़ी फौजों को बर्लिन तक खदेड़ कर साफ कर देने वाली सोवियत सत्ता का विघटन इसीलिए हुआ कि उसके केंद्र में नागरिक नहीं था. सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी यह भ्रम पाल बैठी कि अफगानिस्तान की सीमा से लेकर साइबेरिया और बाल्टिक तक वह अत्यंत विविधतापूर्ण विराट जन समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रही थी. हवा का हल्का झोंका आया, लोगों की चेतना लौटने लगी और केजीबी की असीमित शक्ति पर टिका पूरा तंत्र भरभरा कर बैठ गया. सोवियत संघ के मुकाबले युगोस्लाविया छोटा था. मगर था वह भी बहुत विविधतापूर्ण. अनेक  राष्ट्रीयताओं ,धर्मों और भाषाओँ वाला देश. नागरिक शासन की अनुपस्थिति और सर्ब वर्चस्व स्थापित करने की चेष्टाओं ने युगोस्लाविया के कई टुकड़े कर दिए. वही युगोस्लाविया, जहां मार्शल टीटो के छापामारों ने कब्जावर नाज़ी  सैनिकों को नाकों चने चबवा दिए थे. वही युगोस्लाविया, जहां चाहते हुए भी स्तालिन, दंतकथा बन चुकी अपनी लाल फौज को भेजने की हिम्मत नहीं जुटा सके.

इन दो देशों के संदर्भ में देखते हैं कि भारत में नक्सलवाद, आतंकवाद और अलगाववाद से किस प्रकार लड़ाई लड़ी जा रही है. इन तीनों राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में विधि के शासन की मर्यादाओं का उल्लंघन और  नागरिक की नगण्य भूमिका असंदिग्ध है. नक्सली हिंसा के निराकरण में अधिकतर जोर बंदूक पर है. हिंसा और असंतोष के सामाजिक-आर्थिक कारणों की बात करने वाले फ़ौरन नक्सली या नक्सल-समर्थक घोषित कर दिए जाते हैं. एक बार यह चस्पा हो गया, फिर तो पुलिस को कुछ भी कर डालने का लाइसेंस मिल जाता है. डा.विनायक सेन का केस एक शर्मनाक मिसाल है. इस लेखक ने बस्तर में  नक्सल-विरोधी आपरेशन की हकीकत देखी है. गीदम थाने पर हमले के बाद कई किशोरों को पकड़ कर जानवरों की तरह रखा गया था. जिस पुलिस को जनता के बीच जाना चाहिए, वह बंदूक ताने दूर खड़ी रहती है. नक्सल -प्रभावित क्षेत्रों में अधिकारी जाना नहीं चाहते. नक्सलियों के विदेशी संपर्क ज़रूर होंगे. भारत की अखंडता से भी उन्हें प्यार नहीं होगा. लेकिन निर्दोषों और लोकतांत्रिक अधिकारों की आवाज़ उठाने वालों का हर उत्पीड़न नक्सलियों के हाथ मजबूत करता है. बंदूक की नली से आगे समाज को देख पाने में अक्षम तंत्र यह सब स्वाभाविक रूप से नहीं देख सकता.

आतंकवाद और अलगाववाद के मामले में भी यही हाल है. पिछली शताब्दी के छठे दशक में पूर्वोत्तर राज्यों में स्थिति बिगड़ने लगी. मिजोरम की जनता के गुस्से की वजह सिर्फ यह थी कि अकाल के दौरान उसकी सुध नहीं ली गई. बांसों में फूल आने के कई महीने बाद बगावत की सुगबुगाहट शुरू हुई. अंधी राज्यसत्ता बांसों के फूल नहीं देख पाई. भूखे पेट बंदूक उठाने वालों के खिलाफ एयर फ़ोर्स तक लगाई गई. कारण अलग-अलग थे, लेकिन असंतोष और विद्रोह की चिंगारी दावानल बनने लगी. आग बुझाने के निश्चित उपाय होते हैं. मगर पूर्वोत्तर में आग को आग से बुझाने का  प्रयोग किया गया.

इस तरह वजूद में आया 'अफस्पा १९५८' (आर्म्ड  फोर्सेज स्पेशल  पावर्स एक्ट). पहले असम और मणिपुर में यह कानून लागू हुआ, फिर १९७२ में संशोधन के बाद सभी सात पूर्वोत्तर  राज्यों को इसके दायरे में ले लिया गया. उन इलाकों के लोग ही  'अफस्पा' के तहत जिंदगी का मतलब समझ सकते हैं. ''शासन की सहायतार्थ'' सेना किसी को भी गिरफ्तार कर या गोली मार सकती है. किसी के घर की तलाशी ले सकती है. न सर्च वारंट की ज़रूरत और न अदालत से मतलब. महज शक की बिना पर किसी को गोली मारी जा सकती है. इस कानून के खिलाफ महिलाएं इंफाल में नग्न प्रदर्शन कर चुकी है. इरोम शर्मीला को अनशन पर बैठे दस साल से ऊपर हो गए. किसी महत्वपूर्ण केंद्रीय नेता ने उनसे बात करने और उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की. नग्न प्रदर्शनकारियों से भारतीय संसद और मणिपुर विधानसभा को अपराध बोध और गमगीन आंसुओं से माफ़ी मांगनी चाहिए थी. उन उद्विग्न, साहसी महिलाओं में भारत माता के दर्शन अगर नहीं हुए तो फिर किस भारत माता और किस भारत की रक्षा के लिए 'अफस्पा' लगाया गया? पूर्वोत्तर के युवाओं को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 'चिम्पी' कह कर चिढ़ाया जाए, खास तरह की पोशाक के लिए वहां की लड़कियों पर निगाह लगाए जगह-जगह गिद्ध फड़फड़ा रहे हों और पुलिस कार्रवाई करने के बजाय शालीन कपड़े पहनने की सलाह देती हो, तो फिर किस कानून और किस बंदूक से अपने भारत की रक्षा करेंगे?

उसी 'अफस्पा' के विरुद्ध कश्मीर में आवाजें उठ रही हैं.पाकिस्तान और वहाबी जेहादियों ने यक़ीनन  कश्मीर को बारूद के ढेर पर बैठाया है. केंद्रीय सत्ता और  श्रीनगर में बैठे सूबेदार इस संगीन  हालत से निपटने में आम नागरिकों को महत्व नहीं दे रहे. वे महसूस  नहीं कर रहे कि 'अफस्पा' और बंदूक के बल पर कश्मीर की लड़ाई नहीं जीती जा सकती. महिलाओं  से बलात्कार और निर्दोषों को मार देने की घटनाओं से फायदा  उठा कर अलगाववादी भारतीय सेना की छवि धूमिल करने में कोई कसर नहीं उठा रखते होंगे. लेकिन कौन यकीन करेगा कि भरती के दौरान तोड़-फोड़ और महिलाओं से  छेड़खानी करने वाले युवा वर्दी पहनने के बाद कश्मीर या पूर्वोत्तर में शराफत के पुतले बन जाते होंगे? तर्क की खातिर मान लेते हैं कि कश्मीर में निर्दोष नागरिकों की हत्या में सेना की लिप्तता के सभी आरोप झूठे हैं. लेकिन आम धारणा का क्या होगा कि सेना ये सब कर रही है? इस धारणा को दूर करने के लिए विश्वसनीय प्रयास नहीं हो रहे.

राज्य सत्ता अपनी करनी से निष्पक्ष छवि को धूमिल  करती रही है.आतंकवाद की केवल दो घटनाओं को लेते हैं - समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव. दोनों विस्फोटों के तुरंत बाद पाकिस्तान और उसके स्थानीय एजेंटों को जिम्मेदार ठहरा दिया गया. फटाफट गिरफ्तारियां भी हो गईं. मालेगांव में ३७ और समझौता एक्सप्रेस में ६८ जानें गईं थीं. चार साल बाद नेशनल इनवेस्टीगेशन एजेंसी ने बताया कि इन अपराधों में हिंदू उग्रवादियों का हाथ था. अभिनव भारत के संस्थापक, सेना में कार्यरत ले.कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, स्वामी असीमानंद और प्रज्ञा ठाकुर जेल में हैं. मालेगांव विस्फोट  में पकड़े गए सात मुसलमानों को कोर्ट के हस्तक्षेप पर जमानत दे दी गई है.उनके खिलाफ केस ख़त्म नहीं हुआ है.इनकी जिंदगी के चार साल बर्बाद हो गए. अमिट कालिमा लग गई. फिर भी इनसे भारत के लिए जान देने की उम्मीद करेंगे? यदि उनकी निष्ठाएं हिल जाएं या हिल चुकी हों तो वे दोषी या राज्य सत्ता ?

अति संवेदी जासूसी उपकरण लगाकर, काले-काले कानून बना कर और नागरिक सत्ता की कीमत पर दानवी दमनकारी तंत्र खड़ा कर अगर राज्य सत्ताएं सकुशल रह पातीं तो इतिहास के लंबे क्रम में बड़े-बड़े राज्यों और साम्राज्यों का अंत ही न होता. राज्य की रक्षा के लिए संहारक शक्ति निस्संदेह अनिवार्य है. लेकिन उससे अधिक अनिवार्य है सशक्त नागरिक सत्ता. भारत में नागरिक सत्ता के लुंज-पुंज होने के साथ ही एक घातक समस्या यह है कि संस्थागत भेदभाव बना हुआ है. इससे समान नागरिकता की राष्ट्रव्यापी चेतना के विकास में बाधा आती है. एक महान भारत के निर्माण में निर्णायक योगदान इसी चेतना का  होगा. वह चेतना कानूनों से नहीं ,नागरिक सत्ता की मजबूती से आएगी. 


साभार -
(लेखक प्रदीप कुमार देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं टाइम्स ग्रुप से लेकर दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर  रायपुर समेत कई संस्थानों में संपादक रह चुके हैं. उनका यह लिखा 'शुक्रवार' मैग्जीन में प्रकाशित हो चुका है. इसके अलावा वेबसाइट भड़ास पर भी प्रकाशित हो चुका है।

Monday, September 14, 2015

दैनिक भास्कर में प्रकाशित खबरें : पवन दुग्गल से बातचीत

जाने माने साइबर लॉ एक्सपर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के वकील पवन दुग्गल ने छत्तीसगढ़ के लोगों को साइबर ठगी से बचाने के लिए दिए टिप्स
दैनिक भास्कर, 27 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित
दुर्ग में ऑनलाइन धोखे के बाद पति-पत्नी की खुदकुशी से पूरा राज्य सकते में हैं। राज्य के बड़े शहरों से लेकर गांवों तक, ऑनलाइन ठगों का जाल बुरी तरह फैल गया है। अमूमन हर मोबाइल फोन पर हजारों-लाखों डॉलर के पुरस्कार से लेकर संपत्ति नाम कराने के मैसेज और मेल रहे हैं।
यही नहीं, बैंक अफसर बताकर एटीएम और क्रेडिट कार्ड का पासवर्ड लेने वाले साइबर ठगों ने राज्यभर में दर्जनों लोगों के खाते खाली किए हैं। पुलिस ही नहीं, साइबर मामलों के जानकारों का साफ तौर पर मानना है कि साइबर क्राइम का शिकार कोई भी हो सकता है। जरूरत सिर्फ सावधान रहने की है। दैनिक भास्कर ने देश के जाने वाले साइबर लॉ एक्सपर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट के वकील पवन दुग्गल से बातचीत कर यह पता लगाने की कोशिश की है कि आखिर साइबर अपराधियों से किस तरह सुरक्षित रह सकते हैं

दैनिक भास्कर में प्रकाशित खबरें : छत्तीसगढ़ में नक्सली हमला


दैनिक भास्कर रायपुर, 4 दिसंबर, 2014
नक्सलियों ने सुकमा जिले में ही 1 दिसंबर, 2014 को फिर एक बड़ी वारदात को अंजाम दिया। चिंतागुफा से 11 किमी दूर एलमागुंडा पंचायत के कसलपाड़ गांव को घेरने पहुंचे सीआरपीएफ जवानों पर घात लगाए नक्सलियों ने अंधाधुंध फायरिंग कर दी। हमले में सीआरपीएफ के असिस्टेंट कमांडेंट राजेश कपूरिया और डिप्टी कमांडेंट बीसी वर्मा समेत 14 जवान शहीद हो गए।

कानपुर की मासूम के सिर से कुछ महीने पहले मां का साया उठा, सुकमा के नक्सली हमले में पिता की शहादत ने उसे पूरी तरह तन्हा कर दिया। कहीं चार बहनें अपने इकलौते भाई को तकती रहीं, तो कहीं शादी से पहले ही जीवनसाथी छूट गया। आठ शहरों में शहीदों के शव पहुंचे तो भास्कर ने वहां का दर्द महसूस किया। उन्हीं शहरों से रिपोर्ट।

Tuesday, August 25, 2015

दैनिक भास्कर में प्रकाशित खबरें : पेंटर बिस्वाल से बातचीत

चूल्हे के कोयले से पेंटिंग करते थे बिस्वाल, पीएम ने की थी तारीफ

"गुजारे के लिए नौकरी जरूरी है। मैं कर भी रहा हूं। लेकिन पेंटिंग मेरी जिंदगी के लिए बेहद जरूरी है। पढ़ाई के बाद कोई भी नौकरी करने का प्रेशर फैमिली की ओर से रहा। इसलिए मैंने 1990 में रेलवे की नौकरी ज्वाइन की। रेलवे में टीटीई की नौकरी के दौरान तमाम रेलवे स्टेशनों में वक्त गुजारने का मौका मिला। मेरी सबसे ज्यादा खूबसूरत और मशहूर पेंटिंग्स में रेलवे प्लेटफार्म्स के दिलकश नजारे शामिल हैं।"

यह कहना है रेलवे में टीटीई और वरिष्ठ चित्रकार बिजय बिस्वाल का ... पूरा इंटरव्यू पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर डॉट कॉम पर यहां क्लिक कीजिए.... 

 
दैनिक भास्कर, रायपुर में 27 अगस्त, 2015 को प्रकाशित।

दैनिक भास्कर, रायपुर में 27 अगस्त, 2015 को प्रकाशित।

दैनिक भास्कर में प्रकाशित खबरें : अमिताभ बच्चन के 12 हमशक्ल


दैनिक भास्कर में 11 सितंबर, 2014 को सभी एडिशन में प्रकाशित खबर।
दैनिक भास्कर में 11 सितंबर, 2014 को सभी एडिशन में प्रकाशित खबर।
दैनिक भास्कर के जलगांव एडिशन में 11 सितंबर, 2014 को प्रकाशित खबर।

  बिग बी के 12 हमशक्ल, चेहरे से लेकर स्टाइल तक सब कुछ हूबहू                     

उनकी आवाज... उनका अंदाज... और उनका स्टाइल देखकर कोई भी उन्हें बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन समझ लेता है। वे जहां भी निकल जाते हैं लोगों की भीड़ लग जाती है। ये हैं बिग बी के डुप्लीकेट्स। हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ की आकर्षक छवि और लोकप्रियता ने उनके कई हमशक्ल पैदा कर दिए हैं। देशभर में उनके एक दर्जन से ज्यादा डुप्लीकेट हैं। ये सभी डुप्लीकेट्स शनिवार को बिग बी का 72 वां जन्मदिन धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रहे हैं।             

...... दैनिक भास्कर डॉट कॉम पर पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए

Sunday, July 12, 2015

वो क्रांतिकारी पत्रकार ! रहन दें अपनी क्रांति


क्रांति और पत्रकारिता। दोनों अलग-अलग है। क्रांति अलग। पत्रकारिता अलग। कभी रहे होंगे दोनों साथ-साथ। मगर अब नहीं। आजकल बात-बात में एक जुगला चलता है- वो क्रांतिकारी पत्रकार ! रहन दें हमें कोई क्रांति नहीं करनी है।

पत्रकारिता के अब तब के सफर काफी कुछ देखा-सुना है। यूपी में एक जमाने में, मायावती के टाइम पर रोज पेजवन पर स्टेट पेज माया मेडम का फोटो छपता था। एमपी में उमा भारती के जमाने में सब उमा की मर्जी से होता था।

कोई क्रांतिकारी पत्रकार अगर फील्ड में झक मारके बड़ी खबर लेकर आ भी जाए तो पब्लिश होते तक उसका कचूमर निकलना तय होता है। अगर मैनेजमेंट तक बात पहुंच गई तो। कई किस्से है। भोपाल में नामी अखबार की एक रिपोर्टर का रो-रोकर बुरा हाल था....क्योंकि उसकी रिपोर्ट को पैसों का लेन-देन करके रोक दिया गया था। सवाल पूछने पर उठता उसे ही प्रताड़ित किया गया।

पहले अखबार में सबसे बड़ा क्रांतिकारी संपादक ही होता था। उसने सोच नहीं तो क्रांति को पैदा होने होने से कोई नहीं रोक सकता। भोपाल में मेरा दूसरा अखबार सांध्य दैनिक अग्निबाण था। संपादक थे दबंग पत्रकार अवधेश बजाज सर। मेरी एक खबर पर मुझे धमकी मिल रही थी। मैंने बजाज सर ये बात डिस्कस की। उन्होंने कहा -जो लिखना है लिखो। किसी से डरने की जरूरत नहीं है। संपादक तो ऐसा ही होना चाहिए।
लेकिन अब माहौल बदल रहा है। संपादक सिर्फ संपादक नहीं रहा। मैनेजिंग एडिटर हो गया है। अब आपको हर चीज मैनेज करके काम करना है। इसी का परिणाम है कि एक ही शहर में सेकंड नंबर का अखबार क्रांति कर सकता है। दूसरा बड़ा अखबार न्यूट्रल हो जाता है। जहां आपकी कंपनी के हितों की बात आ जाए वहां कुछ और। आप सोच भी कैसे सकते है।

हमने तो पहले ही कहा- क्रांति और पत्रकारिता। दोनों अलग-अलग है जनाब। आप जमाने में रहते हैं। क्रांति कहीं नहीं है। अगर कहीं है तो केजरी बाबू की डिक्शनरी में।
.....जारी है

गरिमामयी होना चाहिए एडिटर का पद

मीडिया चाहे प्रिंट हो, टीवी हो, रेडियो हो, मैग्जीन हो या डिजिटल हो, सभी जगह संपादक-एडिटर की खास जगह होती है. जैसे कि किसी स्कूल या काॅलेज में प्रिंसिपल।
आपकी भी कई प्रिंसिपल सर को लेकर कई यादें होगी। अच्छी-बुरी। अगर मीडिया की बात करें तो मेरे ख्याल से एडिटर का पद भी गरिमामयी होना चाहिए। साथ काम करने वालों को महसूस होना चाहिए। एडिटर के साथ काम करके सीखने की ललक होनी चाहिए।
मेरी शुरुआत अगर रेडियो से मानी जाए तो कहूंगा कि मुझे उस वक्त के बाॅस से जरा भी लगाव नहीं था। लेकिन @amar ramtheke jee, @shashikant vyas sir, @dr.harish parashar rishu sir, @awdesh tiwari sir जैसे कई अच्छे लोगों से काफी सीखने को मिला। वही न्यूजपेपर में मेरी एंट्री लोकमत समाचार से हुई तो मुझे @dharmendra jayaswal जैसे अच्छे बाॅस मिले। उन्होंने मेरे माइनस प्वाइंट भी मुझे बताए। आज भी उनके साथ मेरा अच्छा रिश्ता है। बोल भाई, और रामकृष्ण....कहां हो आजकल...सब अच्छा चल रहा है ना...इन्हीं शब्दों के साथ हमारी बातचीत होती है।

विज्ञप्ति, प्रेसनोट और सरकारी खबर... इसके अलावा भी होती है खबरें..


मीडिया से जुड़े हम लोगों को इन शब्दों से रोज ही दो-चार होना पड़ता है. अखबारों में विज्ञापन का दबाव बढ़ने से प्रेस रिलीज के लिए स्पेस कम होते जा रहा है। यह तो मानना पड़ेगा कि इनका अपना महत्व होता है- अखबार के लिए भी और आमजन के लिए भी।
मगर हम खबरों के दबाव में विज्ञप्ति या सरकारी खबरों से अक्सर चिढ़ते है। हम सालों से अखबार और तमाम खबरों को पढ़ते आ रहे हैं। खबरों में नयापन कैसे लाया जाता है...खासकर सिटी की खबरें यानी सड़क, बारिश जैसे तमाम मुद्दों में नया एंगल क्या हो सकता है, यह सब मैंने पिछले दो साल में सीखा-देखा।
इससे पहले मैं सेंट्रल डेस्क पर रहा। जहां मेरा वास्ता देश और तमाम राज्यों की बड़ी खबरों से पड़ता था। छिंदवाड़ा या भोपाल में चाहे मेरी शुरुवात सिटी से ही हुई थी मगर मुझे ऐसी कुछ खबरें याद नहीं आती।
इस मसले पर मैं फिर से बात करूंगा।

शुक्रिया दोस्तों।

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Tuesday, June 9, 2015

कुठियाला हटाओ, माखनलाल बचाओ : चौथी किस्त

#savemcu #savejournalism #लड़ाईजारीहै


यूनिवर्सिटी की ताजा व्यवस्था या अव्यवस्थाजो कि जूनियर साथियों के जरिए हम तक पहुंची हैं। लाइब्रेरी की टाइमिंग बदलनाकंप्यूटर लैब की टाइमिंग बदलना कई बंदिशें। पत्रकारिता जगत के सीनियर पत्रकारों से   रूबरू करानेउनके अनुभवों से लाभ मिलने के अवसरों का कम हो जाना।

पत्रकारिता के गुर सीखने के लिए निकलने वाले विकल्प और अन्य लैब जर्नल का काम ठप हो जाना। सेमेस्टर एग्जाम के बाद होने वाली इंटर्नशिप पर पाबंदी कहते हैं कि कुलपति कुठियाला के काले कारनामे की  फेहरिस्त काफी लंबी है। क्या ऐसे कुलपति को अपने पद पर विवि में बने रहने का कोई हक होना चाहिए   कदापि नहीं तो हमारी लड़ाई जारी रहेगी

कुठियाला हटाओमाखनलाल बचाओ

 का नारा हम सब बुलंद करना ही होगा।


... और #लड़ाईजारीहै 

कुठियाला हटाओ, माखनलाल बचाओ : तीसरी किस्त

#savemcu #savejournalism #लड़ाईजारीहै


यूनिवर्सिटी से पासआउट होने के बाद लगातार आठ साल से पत्रकारिता के फील्ड में हूं। यूनिवर्सिटी में आने से पहले रिपोर्टिंग कीफिर डेस्क पर वर्किंग यूनिवर्सिटी के उन दिनों को बहुत मिस करते हैं। वहां के लेक्चर अटेंड करना लैब जर्नल विकल्प को निकालने का अनुभव अलग-अलग फील्ड के नामी लोगों से मिलने-सीखने को अवसर मिला। देशभर के बड़े मीडिया में कार्यरत हमारे सीनियर्स से मिलने बात करने का मौका मिला। माखनलाल विवि के ताजा विवाद के बाद हम सबकी चिंता का विषय यही है कि क्या यूनिवर्सिटी की आने वाली पीढ़ी इन खूबसूरत लम्हों को जी पाएगी।

पिछले चारपांच साल से पूरी तरह से भोपाल से दूर हूं। साल 2010 का विवाद दिल्ली में अमर उजाला में कार्यरत रहने के दौरान घटा। मगर इस सबसे कुछकुछ अंजान ही थे हम। क्योंकि उन दिनों सोशल मीडियाआज की तरह सबके पास नहीं था। कुलपति कुठियाला द्वारा एक एचओडी को एक संगीन आरोप लगाकर हटाना। घोर निंदनीय कृत्य था। और अब ताजा विवाद रोटेशन के नाम पर सीनियर लोगों के साथ ऐसा बर्ताव

... जारी (अगली किस्त में)