Thursday, December 30, 2021

मेरी कविता : हिंदू राष्ट्र

हर कोई
हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटा है... 
पूरी दुनिया को
हिंदू राष्ट्र बना दो। 
(फोटो प्रतीकात्मक) 

मिटा दो
पूरी दुनिया को।
फिर अपने हाथ से बना दो।

बना सकते हो?

ये देश
ये दुनिया
आज जिस रूप में है
उसे बनने में
सदियां लगी है।

... और सदियों में
कोई बनाता है।

तुम चाहकर भी
पलभर में कुछ नहीं बना सकते. 
इसलिए इस मुगालते में मत रहो।
हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र... 

भूल जाओ...

©® रामकृष्ण डोंगरे तृष्णा
रचना काल : 30 दिसंबर 2021, रायपुर

#डोंगरे_की_डायरी #रचना_डायरी #अधूरी_कविता

Tuesday, December 21, 2021

सेकंड हैंड का जमाना गया, अब सबकुछ न्यू... न्यू...चाहिए

आज (21 दिसंबर 2021) मैंने साढ़े 4 साल के बेटे दक्ष के लिए 
नई साइकिल खरीदी, ₹3500 में...

अचानक अपने बचपन के दिन याद आ गए...। 

मिडिल क्लास फैमिली के लोग हमेशा सेकंड हैंड चीजें ही इस्तेमाल करते थे। मेरे पिताजी ने साल 1993-94 के आसपास सेकंड हैंड मोपेड लूना खरीदी थी ₹4000 में। इससे पहले जब मैं छठवीं क्लास में पहुंचा तो ₹250 में सेकंड हैंड साइकिल खरीदी थी. 

.... सिलसिला यूं ही चलता रहा.

जब मैं कॉलेज पढ़ने के लिए छिंदवाड़ा पहुंचा तो 1998 में ₹800 में हर्कुलस साइकिल खरीदी थी. जो मेरे साथ 2004 में भोपाल तक भी पहुंची। भोपाल में जॉब के दौरान मैं साइकिल से ही रिपोर्टिंग करता था। जब दिल्ली के लिए निकला तो मैंने उस साइकिल को वापस छिंदवाड़ा लाकर अपने भांजे को दे दिया। फिर गांव में भतीजे के पास आ गई।

एक वक्त वो था और आज का दौर है साल 2021...। 

बच्चे के लिए जब साइकिल खरीदने की बारी आई तो मैंने सेकंड हैंड साइकिल भी सर्च की। मुझे 1000 से लेकर 2000 रुपये तक में सेकंड हैंड साइकिल का ऑप्शन मिल रहा था। लेकिन मैंने न्यू साइकिल खरीदने का ही फैसला किया। क्योंकि आज का दौर ही यही है। बच्चे भी बोलने लगते हैं कि - पापा यह साइकिल पुरानी है, मुझे नई वाली चाहिए। 

... और जब हम छोटे थे तब हमारी ऐसी कोई डिमांड नहीं होती थी। बस हमें वो चीज मिल जाए, हम उसी में खुश हो जाते थे। चाहे कपड़े हो या साइकिल हो या कुछ और हो। खैर...। यह बदलाव भी आना था। 

... लेकिन इसी के साथ मिडिल क्लास फैमिली का बजट बिगड़ गया है. हर चीज नई खरीदना है। और ज्यादा से ज्यादा खरीदना है। मोबाइल भी नया खरीदना है। गाड़ियां नई खरीदना है। और कपड़े उनका तो पूछिए मत... 

पहले संयुक्त परिवार होते थे, सब भाई बहन पुराने कपड़े पहनते थे। आज की सिंगल फैमिली में ऐसा कोई ऑप्शन भी नहीं बचा है। इसलिए आजकल सभी को सब कुछ न्यू... न्यू... ही चाहिए।

#डोंगरे_की_डायरी #दक्ष_डायरी #सेकंडहैंड_वाला_जमाना #साइकिल #90skids #90कादशक

Monday, December 6, 2021

अच्छे आदमी

अच्छे आदमी
और बुरे आदमी के बीच
जरा-सा अंतर होता है।
मामूली फर्क होता है।

मां-बाप की जरा-सी 
लापरवाही, उनके बच्चों को
अच्छे आदमी से 
बुरे आदमी में बदल देती है।

इसलिए बच्चों को 
अपना दोस्त बनाएं, 
खुलकर बात करें।
उनके मन में उठने वाले
सभी सवालों का 
उन्हें जवाब दीजिए।

बच्चों को गलत दिशा में
जाने से रोकिए।
वर्ना किसी इंजीनियर के लादेन 
या किसी युवा के गोडसे 
बनने में देर नहीं लगती। 

©® रामकृष्ण डोंगरे तृष्णा 
रचना समय और स्थान - 1 सितंबर, 2021, रायपुर 

Friday, December 3, 2021

DNE FB Post : ट्रेनी से डीएनई तक का सफर

दैनिक भास्कर रायपुर से पहले मेरा सबसे लंबा समय हिंदी दैनिक अमर उजाला नोएडा में बीता। माखनलाल पत्रकारिता यूनिवर्सिटी भोपाल से 2005 साथ में एमजे की डिग्री कंप्लीट होने के बाद हमारा कैंपस अमर उजाला में हुआ था। मैंने 7 मई 2007 को अमर उजाला, नोएडा ज्वाइन किया था। प्रताप सोमवंशी सर ने हमारा कैंपस भोपाल आकर लिया था। जॉइनिंग के दिन हमारा इंटरव्यू ग्रुप एडिटर श्री शशि शेखर जी ने लिया था। 

उस दौरान काफी सारे क्वेश्चन पूछे गए थे. मेरा एक्सपीरियंस जानने के बाद मैंने उनसे कहा कि आप मुझे Sub Editor ज्वाइन करवाएं तो उन्होंने इंकार कर दिया था. और मुझे नए सिरे से बतौर ट्रेनी यहां से नई शुरुआत करनी पड़ी। हालांकि इससे पहले मैं करीब आधा दर्जन संस्थानों में काम कर चुका था। यानी पत्रकारिता में अलग अलग फील्ड की रिपोर्टिंग और डेस्क पर काम करने का लगभग 3 साल का अनुभव मुझे हो चुका था। लेकिन इन संस्थानों में मेरा जॉब पार्ट टाइम जैसा ही रहा। क्योंकि मैं पढ़ाई के साथ ये काम कर रहा था। 

साल 2003 में लोकमत समाचार पत्र छिंदवाड़ा से शुरुआत रिपोर्टिंग से हुई। इसके बाद 2004 में स्वदेश समाचार पत्र भोपाल में रिपोर्टिंग के साथ डेस्क की जिम्मेदारी मिली। बीच में कुछ वक्त "शब्द शिल्पियों के आसपास" में काम किया। इसके बाद 2005 में सांध्य दैनिक अग्निबाण में आर्ट एंड कल्चर रिपोर्टर के रूप में काम किया। साल 2006 में राज्य की नई दुनिया में आर्ट एंड कल्चर रिपोर्टर और डेस्क की जिम्मेदारी निभाई। 

*अब बात विस्तार से करते हैं अमर उजाला नोएडा की...*

यहां पर हमने बतौर ट्रेनी ज्वाइन किया. सबसे पहले मुझे बिजनेस  डेस्क पर रखा गया। इसके बाद जनरल डेस्क पर मेरी नियुक्ति की गई। जहां मुझे सबसे ज्यादा समय तक काम करने का मौका मिला। 

अमर उजाला का हेड ऑफिस नोएडा में था। इसीलिए मुझे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर आदि राज्यों के एडिशन से कोडिनेट करना पड़ता था। हमारी टीम में दो से चार साथी ही थे। लेकिन सबसे शुरुआत से जुड़े होने की वजह कई बार बॉस की अनुपस्थिति में मुझे ही जिम्मेदारी संभालनी पढ़ती थी। इसी दौरान श्री राम शॉ जी जनरल डेस्क में शामिल हुए थे। वे पेज वन पर भी काम करते थे। लेकिन बॉस के नहीं रहने पर वे मेरे साथ भी होते थे। 

*मेरे बॉस चूंकि DNE थे. और मैं ट्रेनी था तो वे (श्री राम शॉ) मुझे कहते थे कि तुमको तो ट्रेनी नहीं DNE होना चाहिए... क्योंकि आप ट्रेनी होकर डीएनई का काम करते हो...खैर...।*

जनरल डेस्क पर मेरे सहयोगी थे - चंद्रशेखर राय जी, धर्मनाथ प्रसाद जी, मनीष मिश्रा जी, हरिशंकर त्रिपाठी जी, मनीष, दीपक कुमार जी आदि। और बॉस थे राधारमण जी। 

अमर उजाला नोएडा में मुझे ग्रुप एडिटर श्री शशि शेखर जी, श्री देवप्रिय अवस्थी सर, संजय पांडेय जी, श्री निशीथ जोशी जी, श्री शंभूनाथ शुक्ला जी, श्री यशवंत व्यास जी, श्री राधारमण सर, श्री अरुण आदित्य सर, श्रीचंद सर, श्री भूपेन जी, श्री आलोक चंद्र जी आदि का सानिध्य मिला। यहां मैंने बतौर ट्रेनी ज्वाइन किया. उसके बाद सब एडिटर और सीनियर सब एडिटर बना।

पत्रकारिता में मेरे पहले मार्गदर्शक बड़े भैया जगदीश पवार जी हैं, जिन्होंने मुझे इस राह पर चलने के लिए प्रेरित किया. लोकमत समाचार छिंदवाड़ा में श्री धर्मेंद्र जायसवाल के नेतृत्व में बतौर ट्रेनी काम करने के दौरान ही मुझे छिंदवाड़ा दैनिक भास्कर के लिए ऑफर मिला. मुझे परासिया ब्लॉक में ब्यूरो चीफ की जिम्मेदारी दी जा रही थी। लेकिन चूंकि में MA फाइनल ईयर में था. मैंने इस ऑफर को अस्वीकार कर दिया. उसके बाद मुझे दैनिक भास्कर से जुड़ने में कई साल लग गए। जब मैं भोपाल पहुंचा तो ज्यादा किसी से पहचान ना होने के चलते मैंने एक के बाद एक सारे समाचार पत्रों में अपना रिज्यूमे दिया। जहां मुझे स्वदेश समाचार पत्र में तत्काल ही जॉब मिल गई। 3 साल भोपाल में रहने के दौरान मेरा सभी समाचार पत्र के साथियों के साथ परिचय हो गया था।

भोपाल में अलग-अलग संस्थानों में काम के दौरान मुझे श्री अवधेश बजाज जी, अजय बोकिल जी, विनय उपाध्याय जी, पंकज शुक्ला जी, गौरव चतुर्वेदी जी, गीत दीक्षित जी के साथ काम करने और सीखने का मौका मिला। 

भोपाल में मेरे कई साथ रहे… जैसे श्री संजय पांडेय जी, हरीश बाबू, जितेंद्र सूर्यवंशी, निश्चय कुमार बोनिया, जुबैर कुरैशी, खान आशु भाई आदि। श्री संजय पांडे जी, जो इन दिनों जमशेदपुर दैनिक भास्कर में बतौर स्थानीय संपादक कार्यरत है. वे मेरे बड़े भाई और मार्गदर्शक है। दैनिक भास्कर रायपुर में मुझे ज्वाइन कराने में उनका बड़ा योगदान रहा है। 

आज जबकि में प्रमोट हुआ हूं तो यह खुशी आप सभी के साथ शेयर कर रहा हूं। आप सभी मेरी इस सफलता में सहभागी रहे है।

DNE - Dis (this) is Not the End...

this is just the beginning

अभी तो शुरुआत है…

तो सफलता का यह सिलसिला यूं ही चलता रहे. और आप सभी का स्नेह, आशीर्वाद मुझे मिलता रहे. यही कामना करता हूं… इसी के साथ उम्मीद करता हूं कि और भी नए दोस्त और सीनियर साथी मेरे इस कारवां का हिस्सा बनेंगे…

#DNE_POST #Facebook #डोंगरे_की_डायरी #फेसबुक_पोस्ट 


Thursday, November 4, 2021

कोरोना महामारी के बीच 'एक दीया उम्मीद का...'


*दीयों के बिना दीपावली का त्योहार अधूरा सा लगता है,*
*यहीं संदेश देने के लिए आयुषी ने बनाई अनोखी रंगोली*

रायपुर। कोरोना के इस दौर में एक तरफ जहां दीपावली पर हर तरफ पटाखों का शोर है। वहीं राजधानी रायपुर की *भावना नगर कॉलोनी में रेसिडेंशियल सोसाइटी साईं सिमरन* की एक रंगोली चर्चा का विषय बनी हुई है। इसमें कोरोना महामारी से पनपते मायूसी भरे माहौल में हर हाथ में उम्मीद का एक दीया लेकर चलने का संदेश दिया जा रहा है। साथ ही दीयों के बगैर दीपावली अधूरा सी है। यह संदेश भी बताया जा रहा है। 

*सीए की पढ़ाई कर रही 20 वर्षीय आयुषी बोधवानी* ने अलादीन का चिराग कांसेप्ट पर इस रंगोली को 3 घंटे में तैयार किया है। इसमें दिखाया गया है कि दीये के अंदर से एक महिला बाहर निकलती है और दीया जलाती है। ठीक उसी तरह से जैसे अलादीन के चिराग से अलादीन बाहर निकलता है। 

इस रंगोली का एक कॉन्सेप्ट ये है कि हमारी भारतीय परंपरा में किसी भी त्योहार में रोशनी के लिए, उजियारे के लिए दीया जलाकर उत्सव मनाते हैं। दीयों की रोशनी के बिना दीपावली भी अधूरी सी रहती है। इसीलिए एक महिला और दीये को इसमें दिखाया गया है। 

आयुषी बोधवानी ने बताया कि मैंने रंगोली में एक महिला को दिखाने के बारे में सोचा था। थोड़ा और सोचने पर मुझे लगा कि कोई अलादीन का चिराग जैसा कुछ इसमें हो, जो कोरोना महामारी से पैदा हुई हमारी परेशानियों को अपने साथ ले जाए।और अचानक इस रंगोली का कांसेप्ट बना। इसमें एक अलादीन का चिराग जैसे दीये से एक महिला निकलती है, जिसके हाथ में एक दीया है। कोरोना महामारी की वजह से हमारे आसपास पनपते मायूसी भरे माहौल को दूर करने के लिए 'उम्मीद का एक दीया' हर किसी के हाथ में होना चाहिए। ऐसा संदेश भी इस रंगोली से निकलकर आता है।

भले ही आधुनिकता के चलन में दीयों का स्थान रंग-बिरंगी झालरों ने ले लिया हो। तेज आवाज वाले पटाखे ही दीपावली की पहचान बन गए हो लेकिन इसके बावजूद दीयों का क्रेज आज भी कम नहीं हुआ है।

Saturday, October 30, 2021

एक मुलाकात फिल्म डायरेक्टर-पत्रकार अविनाश दास से

‘मोहल्ला’ ब्लॉग से मुंबई में फिल्म डायरेक्टर तक का सफर..., 
इससे पहले पत्रकार रहे अविनाश दास Avinash Das जी
से रायपुर में एक छोटी-सी मुलाकात....

अविनाश दास जी से पहला परिचय तो ब्लॉगिंग के जमाने में ‘मोहल्ला’ ब्लॉग से ही हुआ था। बाद में पता चला कि आप टीवी जर्नलिस्ट है और एनडीटीवी से जुड़े है। कुछ साल बाद आप भोपाल आ गए। लेकिन पहली मुलाकात दिल्ली में हुई ना भोपाल में।

साल 2013 तक मैं अमर उजाला नोएडा में कार्यरत था। लेकिन मुलाकात उस दौरान नहीं हुई।

रायपुर आने के बाद जनवरी 2019 में अचानक मेरा मुंबई जाना हुआ था। तब उनसे पहली रूबरू मुलाकात हुई। आप अब तक फिल्म डायरेक्टर बन चुके थे “अनारकली ऑफ़ आरा” के जरिए। अब दूसरी मुलाकात रायपुर में...।

अविनाश जी ने हाल ही में नेटफिलक्स पर प्रसारित वेब सीरीज 'शी' का लेखन और निर्देशन किया है। इसके अलावा 'रात बाकी है' वेब सीरीज का भी डायरेक्शन किया था।

अविनाश जी अपने ब्लॉगिंग के किस्से शेयर करते हुए एक इंटरव्यू में बताते है कि, ....मैंने कई लोगों के अपने ब्लॉग उन्हें बना के दिए, रविश कुमार का ब्लॉग “नई सड़क” भी मैंने ही बनाया था। तब मेरी बस एक शर्त होती थी कि आप मुझे मीट-भात खिला दीजिये और मैं आपका ब्लॉग तैयार कर दूंगा। 

1996 में पटना बिहार में रिपोर्टर से लेकर एडिटर और अब फिल्म डायरेक्टर तक का सफर तय करने वाले अविनाश जी दो दिन के लिए रायपुर आए थे। आदिवासी नृत्य महोत्सव में शिरकत करने के लिए।

आज ही उनकी मुंबई वापसी...

Tuesday, September 14, 2021

मेरी फेसबुक पोस्ट : राम तेरे कितने नाम

राम तेरे कितने नाम... 

नमस्कार दोस्तों...शुभचिंतकों ...

आज मेरा जन्मदिन है. 'राम तेरे कितने नाम' ये मूवी सन 85 में रिलीज हुई थी. मेरा जन्म सन 78 में हुआ था. आज मैं 41वां जन्मदिन मना रहा हूं। 

आपमें से कई लोग मुझे 'राम' कह कर बुलाते हैं. कोई कृष्णा कहता है. कोई रामकृष्णा कहता है. लेकिन ज्यादातर लोग मुझे मेरे सरनेम यानी डोंगरे से 'डोंगरेजी' कहकर बुलाते हैं। 

यह बुलाने- पुकारने की शुरुआत कब कैसे हो जाती है. कोई नहीं जानता. सब कुछ अचानक. हां मुझे याद आया एक पत्रकारिता संस्थान में मुझे मेरे बॉस 'मिस्टर डोंगरे' कहकर बुलाते थे. लेकिन घर में मुझे सभी प्यार से गुड्डू बुलाते हैं और सभी रिश्तेदार भी। 

मेरे पिता ने ही मेरा यह नाम रखा था। 

अब बात करते हैं, 'राम तेरे कितने नाम' टाइटल की। भगवान राम को कई नामों से आप पुकार सकते हो। लेकिन राम एक ही है। 

उसी तरह से ईश्वर, खुदा, परमेश्वर, वाहेगुरु... इस देश के सभी धर्म संप्रदाय अपने अपने आराध्य को इसी नाम से बुलाते है। हर धर्मों में सृष्टि की उत्पत्ति को लेकर अलग-अलग कहानियां है। दूसरी तरफ विज्ञान का कहना है कि यह संसार अलग ही तरह से आरंभ हुआ। इसलिए कोई एकमत हो ही नहीं सकता। 

इस संसार में अगर सबसे पहले एक व्यक्ति या दो व्यक्ति आए तो एक ही धर्म रहा होगा या कोई धर्म ही नहीं रहा होगा। इसलिए धर्म या जाति में उलझकर, अलग- अलग नाम के फेर में पड़कर, अलग- अलग रंगों में उलझकर हमें इंसानों में भेद नहीं करना चाहिए। 

आप मुझे राम कहो कृष्णा कहो, डोंगरेजी कहो, लेकिन मैं हूं तो एक ही ना. रामकृष्ण डोंगरे. आप लोगों के अलग-अलग पुकारने से मैं कई रूपों में तो नजर नहीं आने लगूंगा ना। इसी तरह अगर हम सर्वशक्तिमान के रूप में ऊपर वाले को याद करते हैं तो हम मन की संतुष्टि के लिए उसे किसी भी नाम से पुकार सकते हैं। मगर हमें इस पर झगड़ना नहीं चाहिए कि कुछ लोग खुदा कहते हैं। कुछ ईश्वर कहते हैं। कुछ परमेश्वर कहते हैं...तो सब अलग अलग है। ऐसा बिल्कुल नहीं है। 

हम सब इंसान है। इंसान ही रहना चाहिए।

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं, 
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं। 
सुदर्शन फ़ाख़िर
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आप सभी की शुभकामनाएं और बड़ों का आशीर्वाद मिलता रहे। 

इसी उम्मीद के साथ।

आपका अपना
'रामकृष्ण डोंगरे'

#मेरी_फेसबुक_पोस्ट : 10 नवंबर 2019

Tuesday, August 31, 2021

मेरी कविता : बच्चों को अपना दोस्त बनाएं

|| बच्चों को अपना दोस्त बनाएं ||
~~~~~~~~~~~~

अच्छे आदमी
और बुरे आदमी के बीच
जरा-सा अंतर, 
मामूली फर्क होता है।

माता-पिता की जरा-सी 
लापरवाही, उनके बच्चों को
अच्छे आदमी से 
बुरे आदमी में बदल देती है।

इसलिए बच्चों को 
अपना दोस्त बनाएं, 
खुलकर बात करें।
उनके मन में उठने वाले
सभी सवालों का 
उन्हें जवाब दीजिए।

बच्चों को गलत दिशा में
जाने से रोकिए।
वर्ना किसी इंजीनियर के लादेन 
या किसी युवा के गोडसे 
बनने में देर नहीं लगती। 

©® रामकृष्ण डोंगरे तृष्णा 
रचना समय और स्थान - 1 सितंबर, 2021, रायपुर

#रचना_डायरी #डोंगरे_की_डायरी #

Tuesday, July 27, 2021

आप 'स्वर' साधने में यकीन करते हैं या 'सुर' ....

साधना कितनी जरूरी है... 

और आप 'स्वर' साधने में यकीन करते हैं या 'सुर' .... 

स्वर और व्यंजन.... जीवन में संतुलन के लिए कुछ लोग स्वर साधते हैं. स्वर की साधना करते हैं। इससे उन्हें 'व्यंजन' मिलता है। कुछ लोग सुर की साधना करते हैं। यह साधना कुछ ज्यादा कठिन होती है। 

जीवन में संतुलन, बैलेंस बनाना, कितना जरूरी होता है। इस बात का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते है कि कुछ लोग जीवनभर साधते ही रहते हैं। इन्हें उसका फल भी मिलता है। रिजल्ट भी मिलता है। लेकिन जरूरी नहीं कि सभी को मिले। 

अगर आप एक मामूली-सा 100-500 शब्द का आर्टिकल भी पढ़े तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि लेखक ने अपने आर्टिकल में जोरदार प्रहार किया है। तीखा प्रहार किया है। या बैलेंस बनाया है। तो जो लोग जीवन में बैलेंस बनाकर चलते हैं। क्या वे लोग ज्यादा कामयाब होते हैं। या वे लोग ज्यादा सफल होते हैं जो हमेशा तीखा प्रहार करते हैं। कड़ी आलोचना करते हैं।

आपका अनुभव क्या कहता है। 

जहां तक मेरी बात की जाए तो मैं लगभग बैलेंस बनाकर चलता हूं। लेकिन यह भी है कि मुझे इसका बहुत ज्यादा फायदा जीवन में नहीं मिला है। मेरे बारे में कई लोगों की राय है कि मैं किसी से भी भिड़ जाता है। या मुझे ठीक ढंग से लोगों को साधना नहीं आता। तो जनाब मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। न बेवजह किसी को तवज्जो नहीं देता। न बेवजह किसी से उलझता हूं। 

कुछ लोग बैलेंस बनाने में इतने काबिल होते हैं कि उनके लिए एक नया शब्द गढ़ा गया है। छोड़िए...। 

लेकिन स्वर की साधना जरूरी है या सुर की साधना...। बड़ा सवाल तो है। 'व्यंजन' आपको ज्यादा मात्रा में स्वर की साधना से ही मिलता है। सुर की साधना से कम। 

ऐसा मेरा आकलन है। आप क्या सोचते हैं...

©® ब्लॉगर और पत्रकार *रामकृष्ण डोंगरे*

Tuesday, July 13, 2021

फेसबुक पोस्ट : दूसरों की मदद कीजिए

जब आप दूसरों के लिए कुछ करते हैं,
उसी पल खुशी की शुरुआत हो जाती हैं।

किसी की मदद करने के लिए धन ही जरूरी नहीं होता।
सिर्फ मन, वचन और कर्म से भी आप दूसरों की मदद कर सकते हो।

मैंने अपने जीवन में किसी की भी बहुत बड़ी आर्थिक सहायता की हो। ऐसा मुझे याद नहीं आता। लेकिन किसी भी जरूरतमंद को नौकरी दिलाने में भरपुर मदद करता हूं। मैं पत्रकारिता के पेशे में हूँ और देशभर में जहां भी संभव होता है। वहां लोगों की मदद करने की पूरी कोशिश करता हूं।

कुछ नहीं तो अब तक आधा दर्जन से ज्यादा लोगों को नौकरी दिला चुका हूं। और दर्जनों लोगों के लिए अपने स्तर पर लगातार प्रयास करते रहता हूं।

मेरा मानना है कि हम सिर्फ एक माध्यम है, जिन्हें ईश्वर ने चुना है किसी की मदद करने के लिए। बाकी योग्य व्यक्ति अपनी जगह और अपना भविष्य खुद बनाता है। उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं होती। सहारा तो कमजोर लोगों को दिया जाता है।

पत्रकारिता हो या कोई भी फील्ड हो। मुझे लगता है कि जो भी लोग अगर उस मुकाम पर हो कि आप किसी की मदद कर सकते हो। तो जरूर करना चाहिए। आपको करना भी क्या है। मार्गदर्शन। ईमेल आईडी। राइट पर्सन का नाम बताना। या वहां तक सीधे जरूरतमंद को पहुंचाना है। बस। इतना ही तो करना होता है।

क्या आप इतना भी नहीं कर सकते।

याद रखें, अगर आप दूसरों की मदद करते है
तो ईश्वर भी कभी आपकी मदद जरूर करेगा।

©® रामकृष्ण डोंगरे 
#डोंगरे_की_डायरी #छिंदवाड़ा_डायरी #मदद

Wednesday, June 30, 2021

मेरी मोबाइल गाथा -2: मुझे छह साल लग गए थे 3जी मोबाइल फोन लेने में

मैंने पहला 3G मोबाइल 8 अगस्त 2014 को खरीदा था सैमसंग गैलेक्सी कोर-2

Samsung C170

साल 2007 में माखनलाल यूनिवर्सिटी से MJ पास करने के बाद हम जॉब करने के लिए अमर उजाला नोएडा पहुंचे। तब फिर नए मोबाइल की कशमकश शुरू हुई। उस समय मोबाइल नंबर पोर्ट करने की फैसिलिटी नहीं थी। इसलिए मैंने अपना सिम छिंदवाड़ा में दीदी के दे दिया था। 

नया मोबाइल को परचेस करने के लिए फिर से रिसर्च चालू हुई। कुछ दोस्तों ने कहा कि 3G मोबाइल ही लेना चाहिए, क्योंकि 2008 में 3G लॉन्च होने वाला था. बजट नहीं होने की वजह से आखिर मैंने 3 जून 2007 को सैमसंग C170 हैंडसेट ₹3000 में खरीदा। जो ब्लैक कलर का और काफी स्लिम था.

दुनिया में 3जी मोबाइल सर्विस सबसे पहले जापान में 2001 में शुरू हुई थी। भारत महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (MTNL) के द्वारा साल 2008 में 3G मोबाइल सेवा शुरू की थी। 

उस समय हम मोबाइल का इस्तेमाल सिर्फ कॉल, मैसेज और एफएम सुनने के लिए करते थे. मोबाइल से कुछ और काम संभव ही नहीं था. 28 दिसंबर 2007 को मैंने अपना पहला ब्लॉग पोस्ट किया। "डोंगरे की डायरी" नाम से बनाया था. इसी के साथ हम इंटरनेट की दुनिया से जुड़ गए. हालांकि इससे पहले माखनलाल यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के दौरान ही ऑरकुट orkut पर अपना प्रोफाइल बन चुका था. इसके अलावा याहू पर ईमेल आईडी भी बना था. यह सब 2005 में एमसीयू में एडमिशन के बाद ही हुआ था. 

ऑरकुट प्रोफाइल के जरिए बाहरी दुनिया के कई लोगों से संपर्क होने लगा था. इसी ऑरकुट की बदौलत एक मित्र काशिफ अहमद फराज से दोस्ती हुई, जो झांसी के रहने वाले थे और भी कई लोग होंगे. आर्कुट से याद आया कि फेसबुक से पहले आर्कुट का बहुत क्रेज था। और हम लोग ₹10 प्रति घंटे नेट कैफे का चार्ज देकर खूब सर्फिंग करते थे। लड़कियों से दोस्ती करने के लिए उन्हें रिक्वेस्ट भेजते थे। कई लोगों से चैट भी होती थी। लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं। हां डोंगरे की डायरी, छिंदवाड़ा छवि ब्लॉग बनने के बाद हर वीकली ऑफ पर कई घंटे कैफे जाते थे। कई बार 2-3 घंटे नेट कैफे में बिता देता था. एक पोस्ट को लिखना और उसे सजाना संवारना, इसी में वक्त बीत जाता था. 

आज का मशहूर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक हालांकि 26 सितंबर 2006 से इंडिया में आ चुका था. लेकिन लोगों के बीच पॉपुलर होने में इसे 1-2 साल लगे. मेरा पहला फेसबुक प्रोफाइल तो साल 2010 में जाकर बना था, जो कि मेरे मित्र श्री अमिताभ अरुण दुबे जी के सौजन्य से तैयार हुआ था। 

2009 में मैंने टाटा डोकोमो का एक मोबाइल लिया था। कीमत थी 1350 रुपये। जिससे सस्ती दरों पर बातचीत होती थी। हालांकि इस मोबाइल से जुड़ी कुछ खास यादें नहीं है। 

Samsung Metro Duos C3322

9 सितंबर 2012 को मैंने सैमसंग DUOS-C3322 मोबाइल में खरीदा था। जो कि डबल सिम वाला और 2 मेगापिक्सल कैमरा वाला मोबाइल था। माखनलाल में पढ़ाई के दौरान ही मैंने देखा कि मेरे कुछ जूनियर के पास Nokia 6600 मोबाइल था। और इससे अच्छी पिक्चर भी आती थी। इसकी फोटो हमने वीकली मैगजीन विकल्प में भी पब्लिश की थी। 

… तो सैमसंग C3322 मोबाइल आने के बाद मैंने छुट्टी में छिंदवाड़ा आने पर कई सारे फोटोग्राफ खीचें और उन्हें मोबाइल से ही फेसबुक पर भी अपलोड किए। 2जी सर्विस का इस्तेमाल करते हुए, इसी मोबाइल से मैं फेसबुक भी ऑपरेट करता था. सितंबर 2013 में रायपुर आने के बाद तक यह मोबाइल मेरे साथ था। 2014 तक यह मोबाइल मेरे पास था। 

अब आते हैं 3G और 4G स्मार्टफोन पर…. 

samsung galaxy core 2
8 अगस्त 2014 को मैंने पहला 3G मोबाइल खरीदा सैमसंग गैलेक्सी कोर 2। इसे मैंने 11500 रुपये में रायपुर में मोबाइल शॉप से खरीदा था। इसी मोबाइल के बाद मैंने व्हाट्सएप यूज करना शुरू किया। वाट्सएप ग्रुप बनाए फैमिली, फ्रेंड और आफिस के लिए। 

फिर 2 साल बाद मैंने ऑनलाइन वेबसाइट से पहला 4जी मोबाइल शाओमी रेडमी नोट 3, 3/32gb खरीदा। 26 सितंबर 2016 को खरीदें इस मोबाइल की कीमत थी 12,999 रुपये। इस मोबाइल को अभी भी यूज कर रहा हूं। रेडमी के मोबाइल से मुझे कभी कोई खास परेशानी नहीं हुई। हां 4G सेवा आने के बाद मोबाइल की बैटरी जरूर जल्दी खत्म हो जाती है।

इस मोबाइल से मैं सब कुछ ऑपरेट कर लेता हूं। किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है। बात सिर्फ स्टोरेज की आती है। एक सफर- एक छुट्टी में कुछ फोटोग्राफ और वीडियो बना लिए तो मोबाइल का स्टोरेज फुल हो जाता है। तुरंत ही मोबाइल को खाली करना पड़ता है। एक वजह तो यह थी. लेकिन बड़ी वजह तो बच्चे की ऑनलाइन क्लास है, जिसके लिए मुझे नया मोबाइल लेना ही पड़ेगा। 

अब जब चर्चा 5जी की चल रही है। और 5जी पूरी तरह से इंडिया में आने में 1 से 2 साल का वक्त लग सकता है। लेकिन मोबाइल हैंडसेट तो अभी आ चुके हैं। तो क्या मुझे 5जी मोबाइल ही लेना चाहिए। या फिर 4जी मोबाइल से ही काम चलाना चाहिए। मोबाइल चॉइस करने में ब्रांड के अलावा मोबाइल का प्रोसेसर बहुत मायने रखता है, जिससे आपका मोबाइल स्मूथली चलता है। बाकी बैटरी बैकअप, कैमरा और स्टोरेज तो है ही। लेकिन जब इन सबको एक साथ रखकर हम कोई मोबाइल पसंद करते हैं तो "बड़ा बजट" हमारी जेब को अलाउड नहीं करता।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कौन-सा मोबाइल खरीदें...? 

आप पढ़ रहे थे डोंगरे की डायरी…

अगली किस्त में फिर किसी विषय पर होगी चर्चा… 

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Monday, June 28, 2021

मेरी मोबाइल गाथा-1 : पहला मोबाइल 2004 में लिया था पेनासोनिक का एंटीना वाला, सेकंड हैंड एक हजार में

panasonic antenna phone

एक मिडिल क्लास फैमिली में जन्म लेने वाले लोगों का जीवन बड़ी मुश्किल से गुजरता है। ज्यादातर लोग अपनी हर जरूरत के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। तब उन्हें वो चीजें मिलती है। मेरी जिंदगी में भी अब तक बहुत ज्यादा स्ट्रगल रहा है। सेकंड हैंड चीजों से हम मिडिल क्लास वालों को समझौता करना होता है। पापा ने घर के लिए सबसे पहले टू व्हीलर मोपेड लूना खरीदी थी। वह भी सेकंड हैंड थी। ₹4000 की। उसके बाद हमारे लिए साइकिल खरीदी। वो भी सेकंड हैंड थी। जब मैं कॉलेज पहुंचा तो मैंने छिंदवाड़ा में अपने लिए हरक्यूलिस की 800 रुपये की साइकिल खरीदी। वह भी सेकंड हैंड थी। जब मैं भोपाल पहुंचा तो मोबाइल की जरूरत महसूस हुई। तब 1000 रुपये में सेकंड हैंड मोबाइल खरीदा पैनासोनिक का। 

अभी हमारे पास दो स्मार्टफोन हैं। एक रेडमी नोट-3 3/32जीबी वाला, जो कि मैं इस्तेमाल करता हूं। और दूसरा श्रीमतीजी के पास सैमसंग गैलेक्सी कोर- 2 (512एमबी के स्पेस वाला)। इन मोबाइल के बारे में आपको बाद में बताऊंगा। पहले मूल विषय पर आते हैं। बच्चे की आनलाइन क्लास की वजह से हमें नया मोबाइल खरीदना पड़ रहा है। चूंकि सैमसंग गैलेक्सी मोबाइल में आनलाइन क्लास के लिए Google meet एप सपोर्ट नहीं कर रहा है। इस साल हमने 4 साल के बेटे का एडमिशन पीपीवन में करवाया है। इसलिए उसकी आनलाइन क्लास के चक्कर में जल्दी ही नया फोन लेना हमारी मजबूरी है। 

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ऑनलाइन क्लास के चक्कर में हर पैरेंट्स स्मार्टफोन अपने बच्चों के लिए खरीद रहे है। लेकिन जहां प्राइमरी तक के बच्चों को स्मार्टफोन से कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं होने लगी है। वही कम उम्र से ही स्मार्टफोन रूपी खिलौना मिलने के बाद बच्चों का ध्यान पढ़ाई पर कम रहता है, इसमें कोई शक नहीं है। इसलिए मैं 10वीं तक के बच्चों को स्मार्टफोन देने के पक्ष में नहीं रहता। बच्चों को पहले से ही टीवी देखने की लत लगी हुई है। अब फोन की लत लगेगी। फिर मोबाइल गेम्स की।

… मैं थोड़ा पीछे फ्लैशबैक में जाता हूं। जब मैं 1992 में सातवीं कक्षा में था. तब हमारे घर में पिताजी ने टीवी खरीदा था. उसके पीछे भी एक किस्सा है. दरअसल उस वक्त पूरे मोहल्ले में एक या दो ही टेलीविजन सेट थे. जहां हम रात को सीरियल या पिक्चर देखने के लिए जाया करते थे. एक दिन रात को 9-10 बजे लौटते वक्त किसी ने हमें डरा दिया. उसका शॉक मेरे बड़े भाई को बैठ गया। रातभर हम सभी लोग परेशान रहे। 

… और इस घटना के बाद मेरे पिताजी ने टीवी खरीदने का फैसला किया. टीवी आने के बाद हम लोग घंटों तक हर सीरियल, हर मूवी देखते रहते थे. कभी टीवी से दूर नहीं होते थे. इसका असर हमारे रिजल्ट पर साफ नजर आया. छठवीं क्लास की तुलना में सातवीं में मेरे पर्सेंटेज कम आए थे। इसीलिए बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखना चाहिए. …

लेकिन अब ऐसा दौर आया है कि छोटा सा बच्चा भी मोबाइल यूज करने लगा है. आजकल के बच्चे तो आंख खोलते ही सामने मोबाइल देखते है। 

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1998 में जब कॉलेज पहुंचा तब मुझे मोबाइल के बारे में कुछ पता नहीं था. शायद एमए (2003-04) के दौरान एक या दो छात्रों के पास मोबाइल रहा होगा। जब 2004 में भोपाल पहुंचा तब मेरे रूममेट के कहने पर ही मैंने 9 अगस्त को एक हजार रुपए में पैनासोनिक का एंटीना वाला सेकंड हैंड मोबाइल लिया था। उससे भी ठीक ठाक बात नहीं होती थी। उस मोबाइल के कंकाल गांव के घर में कहीं बिखरे पड़े होंगे। जब मेरी सैलरी अठारह सौ रुपये महीना थी। उस वक्त 1000 रुपए का मोबाइल खरीदना, मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। घर से संपर्क में रहने के लिए जरूरी था इसलिए मुझे मोबाइल खरीदना पड़ा। 

उस मोबाइल को करीब डेढ़ साल तक यूज किया होगा। 14 जुलाई 2004 को भोपाल में लगी मेरी पहली नौकरी स्वदेश अखबार से लेकर दुष्यंत संग्रहालय में जॉब और फिर सांध्य दैनिक अग्निबाण तक वो मोबाइल मेरे पास था। अग्निबाण मैंने 2005 में ज्वाइन किया था। इसी साल मैंने माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में एडमिशन लिया। तब तक पैनासोनिक का मोबाइल मेरे पास था। जब मैं गांव जाता था, तब घर की छत पर चढ़कर सिग्नल पकड़ता था। क्योंकि तब तक गांव में टॉवर नहीं लगा था। 

nokia 1600
माखनलाल यूनिवर्सिटी में सुबह से क्लास और अखबार में सुबह की नौकरी… ये सब मैनेज नहीं हो पाया। और मेरी नौकरी छूट गई। उसके बाद साल जनवरी 2006 में मैंने राज्य की नई दुनिया में पार्ट टाइम जॉब शुरू किया। उस वक्त तक मेरा मोबाइल बिगड़ चुका था। 

आफिस में मोबाइल खरीदने के लिए दबाव बनाया जा रहा था। 4500 की सैलरी में कॉलेज का खर्च और घर खर्च किसी तरह संभाल रहा था। फिर मैंने अपने एक रिश्तेदार से पैसे उधार लिए। लेकिन पिताजी ने छिंदवाड़ा से भोपाल तक ट्रेन का सफर करके मुझ तक रकम पहुंचा दी। और तब जाकर मैंने 19 मार्च 2006 को 3350 रुपये में नोकिया-1600 मोबाइल खरीदा। 

इतना लेट कंप्यूटर और मोबाइल यूज करने के बावजूद मेरी रुचि होने की वजह से मैं कंप्यूटर और मोबाइल फ्रेंडली बन गया। एमए फाइनल के दौरान जब हमें कॉलेज में "ओ लेवल" का कंप्यूटर कोर्स कराया जा रहा था तब पहली बार मैंने नजदीक से कंप्यूटर को देखा था. 

लेकिन माखनलाल में एडमिशन लेने के बाद ही कंप्यूटर को ठीक से देखा और यूज किया। हालांकि इससे पहले छिंदवाड़ा में लोकमत समाचार के दफ्तर में, फिर भोपाल में स्वदेश, अग्निबाण और राज्य की नई दुनिया के दफ्तर में दूर से ही कंप्यूटर को निहारते थे।

किताबी कीड़े के बाद हम कंप्यूटर के कीड़े बन गए। आजकल मोबाइल हमारे हाथ से चिपक गया है। 

देखा जाए तो कच्ची उम्र में मोबाइल और कंप्यूटर मिलना नुकसानदायक ही होता है। मोबाइल ऐसा खिलौना है, जिससे खेलना सबको अच्छा लगता है। लेकिन जरा सी चूक होने पर ये खिलौना आपकी लाइफ को बर्बाद कर सकता है। आपका बैंक अकाउंट खाली कर सकता है। आपके बच्चों की खुशहाल जिंदगी को वीरान बना सकता है। इसलिए आपके घर में किसी को भी स्मार्टफ़ोन देने से पहले उसे साइबर शिक्षा यानी तकनीकी ज्ञान देना जरूरी है। 

आप पढ़ रहे थे डोंगरे की डायरी... 

*अगली किस्त में पढ़िए… 3जी से 4जी मोबाइल का सफर*

©® ब्लॉगर और पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे

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Sunday, June 20, 2021

फेसबुक पोस्ट : मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत...

*मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत*... 
*साल 2001 से 2004 तक की कुछ यादें*... 

आज छिंदवाड़ा शहर में हूं. कल अचानक गांव में मुझे वो फाइल मिल गई जोकि मेरे पत्रकारिता जीवन के शुरुआती दौर की साक्षी और सबूत है। इसी फाइल की बदौलत सितंबर 2004 में बिना किसी जान पहचान और एप्रोच के भोपाल स्थित स्वदेश न्यूज़पेपर में नौकरी हासिल की थी। सैलरी थी अठारह सौ रुपए। 

इस फाइल में पूर्व में लोकमत समाचार छिंदवाड़ा के लिए हाथ से लिखी गई खबरों की हार्ड कॉपी, प्रिंट खबरों की कटिंग भी लगी हुई है। स्वदेश भोपाल की बातें बाद में… अभी मेरे पत्रकारिता जीवन के शुरुआती दिनों को याद करता हूं. 

तो मेरी यह फाइल जुलाई 2001 से अखबारों में खबरें लिखने के सिलसिले का दस्तावेज है। इसमें शुरुआत की खबरें, साहित्यिक संस्था "अबंध" के कार्यक्रमों की विज्ञप्ति, उसके बाद कुछ खबरें "इंटरनेट रेडियो श्रोता संघ" के प्रेस नोट थे। इसके अलावा डीडीसी कॉलेज और पीजी कॉलेज के कल्चरल प्रोग्राम का कवरेज जोकि छिंदवाड़ा के तमाम अखबारों में पब्लिश होता था। इनमें में दैनिक भास्कर भोपाल, दैनिक भास्कर जबलपुर, राज्य की नई दुनिया, लोकमत समाचार, स्वदेश, देशबंधु आदि तमाम नाम है। 

संभवत अखबार के लिए मैंने पहली खबर 27 जुलाई 2001 को लिखी थी। जो कि अबंध साहित्यिक संस्था की ओर बतौर संयोजक स्वयं के द्वारा कारगिल विजय दिवस पर आयोजित कवि गोष्ठी की रिपोर्ट थी। इसमें मैंने कविता पाठ भी किया था। 

लोकमत समाचार में मैंने बिना वेतन के काम किया था। यहां लिखी मेरी खबरों की लिस्ट के मुताबिक पहली खबर 25 जुलाई 2003 को लिखी गई थी और अंतिम खबर 29 अक्टूबर 2003 को फाइल की गई थी। सभी खबरों की हेडिंग, खबरों की कटिंग और हार्ड कॉपी जो कि मैं कार्बन पेपर लगाकर तैयार करता था, सबकुछ फाइल में संलग्न है। यानी टोटल 25 खबरों की हेडिंग तारीख के साथ लिखी है। 

क्योंकि मैं ट्रेनी के तौर पर काम करता था. इसलिए सभी खबरें मैं खुद तय करता था. मुझे कोई असाइनमेंट नहीं देता था. शुरुआत की कुछ खबरें रेडियो यानी आकाशवाणी छिंदवाड़ा को लेकर रही. कुछ खबरें कॉलेज फंक्शन के कवरेज. इसके अलावा सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रम और जन समस्याएं, जो मुझे नजर आती थी. उनको लेकर मैं खबर लिखता था. 

मेरे साथ वरिष्ठ छायाकार बाबा कुरैशी जी फोटो के लिए जाते थे. उन्हें मैं बहुत मिस करता हूं. वे अब हमारे बीच नहीं है। इसके अलावा मेरे बॉस और बड़े भैया श्री धर्मेंद्र जायसवाल जी और ऑफिस के सीनियर पंकज जी और गुणेंद्र दुबे जी, जोकि उसी ऑफिस में बैठकर राष्ट्रीय एजेंसी के लिए खबर लिखते थे। उन सभी को याद करता हूं.

लोकमत समाचार में काम करते हुए मुझे दैनिक भास्कर में काम करने का ऑफर मिला था, जो कि श्री गिरीश लालवानी जी के जरिए आया था और मुझे परासिया तहसील में ब्यूरो चीफ बनाया जा रहा है। लेकिन मैंने पढ़ाई की वजह से अस्वीकार कर दिया। उस साल में एमए प्रीवियस हिंदी कर रहा था पीजी कॉलेज से.

स्वदेश भोपाल में पहली खबर 14 सितंबर 2004 को पब्लिश हुई थी - बाइलाइन स्टोरी - "आखिर क्यों उपेक्षित है हिंदी अध्ययन"। बाकी बातें फिर भी…

*इस पोस्ट या लेख के जरिए मेरे कई सीनियर, मित्र भी यादों में खोते लगा सकते है।* 

Dharmendra Jaiswal , Ashish Jain, Sudesh Kumar Mehroliya Jagdish Pawar Digvijay Singh Apo Mgnrega Bhushan Kurothe Prashant Nema Prabhashankar Giri 

©® *पत्रकार व ब्लॉगर रामकृष्ण डोंगरे*

Friday, June 18, 2021

फेसबुक पोस्ट : 90 के दशक की स्कूल लाइफ, कॉपियां और पेन

आपने स्कूल में किस कॉपी में लिखा था?...

सरकारी राशन दुकान में
मिट्टी तेल और शक्कर ही नहीं
कॉपियां भी मिलती थी...

90 के दशक के स्कूल की कॉपियां...
आकाशवाणी अभ्यास पुस्तिका, अनुपम सुपर डीलक्स...

बचपन में नई कॉपी और नई किताबें मिलने पर जो खुशी मिलती थी। उसे बयां नहीं किया जा सकता।

बार-बार देखते थे। उलटते-पलटते थे। नई पुस्तक और कॉपी जिस दिन आती थी, उस दिन तो मजे ही मजे रहते थे। तस्वीर में नजर आ रही नर्मदा नाम की कॉपी तो 90 के दशक में सरकारी राशन की दुकान से मिला करती थी। रियायती दरों पर।

आज के बच्चे इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि उन्हें सरकारी राशन दुकान से कॉपी मिल सकती है.

इसके अलावा आकाशवाणी अभ्यास पुस्तिका, अनुपम सुपर डीलक्स, जनता सुपर, हवा महल इन कॉपियों में भी हमने (1985-1998 तक) प्राइमरी स्कूल, मिडिल स्कूल से लेकर हाईस्कूल तक लिखा है।

ऐसी यादें वाकई हमें बचपन की सैर करा जाती है।

शुरुआत में स्याही वाले (फाउंटेन) पेन से लिखना और निब का खराब हो जाना। निब को बाल डालकर साफ करना। निब का टूट जाना। एक दूसरे के ऊपर स्याही छिड़क देना। फिर झगड़ना। इसी स्याही वाले पेन से लिखने में अंगुली दुखने लगती थी। निशान बन जाता था। 

फिर आता है बॉल पेन का जमाना। रोटोमैक, रेनॉल्ड्स, ग्रिफ वाला सेलो का पेन, जेटर पेन, पाइलेट पेन, चार-पांच रिफिल वाले मल्टी कलर चेंजिंग पेन। हरा, पीला, नीला, लाल कलर वाले। जिनसे टिकटॉक जैसी आवाज आती थी। एक पेन में ही अलग, अलग कलर की रिफिल से लिखने का मजा ही कुछ और होता था। 

©® *रामकृष्ण डोंगरे*, ब्लॉगर और पत्रकार 

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Thursday, June 17, 2021

फेसबुक पोस्ट : खेती किसानी की यादें ताजा हो गई...

पहली बार चौथी क्लास में यानी 32 साल पहले बख्खर मारा था।

लास्ट टाइम करीब 25 साल पहले बख्खर, नागर, तिफन, डौरा चलाया था। कॉलेज पढ़ने के लिए 1998 में छिंदवाड़ा चला गया था। तब से ये सब छूट गया था। कभी-कभी हाथ लगाया होगा। 

आज करीब आधे घंटे तक खेत में बख्खर मारा। लगा ही नहीं कि इतने सालों से हल, बख्खर से दूर हो गया था।

बख्खर मारने में क्या क्या परेशानी आती है। वो भी याद आ गई। जैसे - बैल का इधर उधर मुंह मारना, मुस्का उतार लेना, पास में चारा फंसने से ठीक से बखराई नहीं होना, कई बार बैल ज्वांडा निकाल देता है आदि कई परेशानी आती है। कई बार बैल चलते नहीं है तो उन्हें पिराना या छड़ी से मारना पड़ता है। कई बार हंकनी से कोंचना पड़ता है।

खेत बखरना, हल चलाना, डौरा मारना धैर्य का काम है। खेत बहुत दिखता है। एक - दो एकड़ मगर धैर्य के साथ काम करते जाओ तो काम थोड़ा कम होने लगता है। जब पूरा खेत बखरा जाता है तो उसकी खुशी अलग ही होती है।

और जब खेत में अनाज, दाना बोने के बाद फसल उगती है तो खुशी चार गुना बढ़ जाती है। रोज सुबह जल्दी उठकर खेत में जाना। मूंगफली, गेहूं, सोयाबीन, मक्का को उगते देखना अलग ही आनंद देता है।

खेती करना हर किसान के बेटे को अच्छा लगता है। लेकिन जब उसका रिजल्ट अच्छा नहीं मिलता। तो माता-पिता खुद ही अपने बच्चों को खेती किसानी से दूर करने लगते है और शहर में दो टके की नौकरी करने भेज देते है। क्या किया जा सकता है?

©® *ब्लॉगर और पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे*

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Tuesday, June 15, 2021

*50 से अधिक अंतरराष्ट्रीय रिसर्च ऑफर पाने वाले इंजीनियरिंग के छात्र को स्पांसरशिप की तलाश*

*विलक्षण प्रतिभा पर आर्थिक ग्रहण : इंजीनियरिंग के इस मेधावी छात्र को स्पांसरशिप की तलाश*

New Delhi: 
 
राहे अमल में जज्बए, कामिल हो जिनके साथ, खुद उनको ढूंढ लेती है मंजिल कभी कभी।। ऐसे दौर में जब समूचा विश्व कोरोना जैसी महामारी से पार पाने के लिए संघर्षरत है, मैकेनिकल इंजीनियरिंग के 21 वर्षीय छात्र अभिषेक अग्रहरी ने प्रतिकूल परिस्थितियों को मात देते हुए अपनी उम्र से भी अधिक अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस समेत 18 देशों के 55 प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से शोध से जुड़े कई रिसर्च ऑफर हासिल किये हैं। इंजीनियरिंग के अलावा उन्हें कई देशों के प्रतिष्ठित संस्थानों से गणित के क्षेत्र में भी शोध का प्रस्ताव मिला है। उनकी नज़रें अब देश के लिए ‘‘फ़ील्ड्स मेडल’’ और ‘‘नोबेल’’ लाने पर टिकी हैं और इसी दिशा में उनका सारा प्रयास समर्पित है।

अग्रहरी ने कहा, “विज्ञान और गणित के क्षेत्र में पूरे इतिहास में किसी को भी दोनों - नोबेल और फील्ड्स मेडल नहीं मिला है। केवल 4 वैज्ञानिकों - जे बार्डीन, एम क्यूरी, एल पॉलिंग और एफ सेंगर को 2 नोबेल पुरस्कार मिले हैं। शोधकर्ताओं को टोपोलॉजी के क्षेत्र में भी फील्ड्स मेडल से सम्मानित किया गया है। ब्लैकहोल्स फिजिक्स में रोजर पेनरोज़ और दो अन्य को 2020 में नोबेल दिया गया। इसलिए, मेरे शोध के क्षेत्र में पेनरोज़ डायग्राम्स का अत्यधिक उपयोग होता है”।

इतना ही नहीं, उन्हें आईआईटी जैसे भारत के उच्च तकनीकी शिक्षा संस्थानों से भी जुड़ने का मौका मिला है।

लॉकडाउन और कोरोना संकटकाल के बीच भी अपनी रिसर्च में जुटे रहे अभिषेक अग्रहरी को यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड इंग्लैंड, सीएनआरएस फ्रांस, पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी अमेरिका, इलिनाय विश्वविद्यालय अमेरिका, टेक्नीसीक यूनिवर्सिट म्यूनिख जर्मनी, तेल अवीव विश्वविद्यालय, बीजिंग कम्प्यूटेशनल साइंसेज रिसर्च सेंटर, चीन, शंघाई जिया टोंग विश्वविद्यालय, चीन, ग्यांगसांग राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, दक्षिण कोरिया, एडिलेड विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलियन स्कूल आफ पेट्रोलियम साइंसेज, यूनिवर्सिडाड पोलिटेकिनिका डी मैड्रिड, स्पेन, हेरियट-वॉट यूनीवेरिस्टी, एडिनबर्ग लिथुआनियाई ऊर्जा संस्थान, और एकक्टे-इंस्टीट्यूटो यूनिवर्सिटारियो डे लिस्बोआ, लिस्बन से रिसर्च इंटर्नशिप के ऑफर हैं।

गणित के क्षेत्र में शोध कार्यों के लिए उनके पास ऑस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी (ऑस्ट्रेलिया), मियामी विश्वविद्यालय (यूएसए), बुडापेस्ट यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी एंड इकोनॉमिक्स (हंगरी), द चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग (हांगकांग) और यूनिवर्सिटी ऑफ फेरारा (इटली) से भी ऑफर हैं।

अभिषेक ने गैस टरबाइन इंजन पर रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के साथ काम किया है। आईआईटी बॉम्बे में फ्लूड स्ट्रक्चर इंटरेक्शन पर और आईआईटी कानपुर में तरल पदार्थ की गतिशीलता पर काम किया है। उनके पास आईआईटी, खड़गपुर, आईआईटी इंदौर और आईआईटी मद्रास से भी ऑफर है। उनके पास फिलहाल आफरों की संख्या उनके उम्र से भी अधिक है जो उनकी प्रतिभा का परिचायक है। 

अभिषेक अग्रहरी ने कहा कि ये आफर हासिल करना इतना आसान नहीं रहा। इसके लिए प्रतिभा के साथ साथ सम्बंधित विषय के बारे में व्यापक ज्ञान का होना बेहद जरूरी है। इसके लिए कई दौर के टेस्ट व इंटरव्यू के दौर से गुजरना पडता है। पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही प्रोफेसर आपको अपने लैब में आने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं।

अपनी रूचि के विषय के बारे में अभिषेक ने बताया कि मैं द्रव यांत्रिकी के व्यापक क्षेत्रों के अनुसंधान विशेष रूप से द्रव संरचना इंटरएक्शन सिद्धांत, प्लाज्मा भौतिकी, जल तरंग यांत्रिकी, गतिज सिद्धांत, गतिज समीकरण और मॉडल जैसे बोल्ट्जमान समीकरण, तरल पदार्थ गतिज युग्मित मॉडल, गणितीय सामान्य सापेक्षता के अलावा ब्लैक होल, गैर रेखीय तरंगों और गेज सिद्धांत के अचानक गुरुत्वाकर्षण पतन के कारण ब्लैक होल का निर्माण में सक्रिय रहा हूं।

अग्रहरी ने कहा कि “चूंकि मेरा सारा काम अनुसंधान उन्मुख है और एक बहु-विषयक होने के नाते मैं शुद्ध गणित, मैकेनिकल और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग, सामग्री विज्ञान, भौतिकी और पेनरोज़ औपचारिकता से लेकर विभिन्न पहलुओं को सीखता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरा शोध और काम अब से कुछ साल बाद फील्ड्स और नोबेल का मार्ग प्रशस्त करेगा।’’

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कोविड महामारी के दौरान भारत में आर्थिक चुनौती झेल रहे परिवारों के कई छात्र सफलता का शिखर प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं मैकेनिकल इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष के छात्र अभिषेक अग्रहरी भी उनमें से एक हैं जो अपनी सफलता की कहानी को तराशने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं।

महामारी के दौरान पिछले एक साल में अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप और अन्य देशों के शीर्ष संस्थानों से विज्ञान और गणित की कई विधाओं में 55 से अधिक अंतरराष्ट्रीय शोध प्रस्ताव हासिल करने वाले अभिषेक के परिवार को वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। शोध कार्य के लिए जनवरी, 2022 से प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों का दौरा करने और अपने सपने - देश के लिए नोबेल पुरस्कार (विज्ञान में) और फील्ड मेडल जीतने को साकार करने के लिए उन्हें प्रायोजकों की तलाश है । 

अभिषेक ने कहा , "इसके लिए  विस्तृत शोध अध्ययन, लगनशीलता और वित्तीय सहायता के साथ साथ कठोर परिश्रम करना पड़ता है । विडंबना यह है कि आर्थिक रूप से कमजोर मेरा परिवार मेरे शोध कार्य के लिए आर्थिक समर्थन करने में सक्षम नहीं है। जीवन हमारे लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले साल मेरे पिता की नौकरी छूटने के बाद सारी परेशानियाँ शुरू हो गयीं। प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहा परिवार गंभीर वित्तीय कठिनाइयों का सामना कर रहा है”।

21 वर्षीय दिल्ली के बहु-विषयक छात्र ने कहा, “अभी मैं शुद्ध और अनुप्रयुक्त गणित से लेकर संघनित पदार्थ भौतिकी, सामग्री विज्ञान, रसायन विज्ञान और रासायनिक जीव विज्ञान तक विभिन्न अनुसंधान विषयों पर आठ संस्थानों के साथ रिमोटली कोलैबोरेशन कर रहा हूँ। मेरे पास जनवरी से अगले साल के लिए शीर्ष विदेशी विश्वविद्यालयों से कई प्रस्ताव निर्धारित हैं। मुझे अपने शोध संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रायोजकों की आवश्यकता होगी, ”

निर्णय नियति निर्धारित करते हैं। उन्होंने कहा, प्रारंभ में यह दुष्कर लग रहा था लेकिन एक बार चीजें स्पष्ट हो जाने पर सब कुछ आसान हो जाता है। छात्रों के लिए विज्ञान और गणित दोनों में शोध ऑफर प्राप्त करना दुर्लभ है, लेकिन अभिषेक इस संबंध में अर्हता प्राप्त करने वालों में से एक हैं।

अग्रहरी ने कहा, "विज्ञान और गणित के पूरे इतिहास में किसी को भी नोबेल और फील्डस मेडल दोनों नहीं मिला है। केवल 4 वैज्ञानिक - जे. बारडीन, एम. क्यूरी, एल. पॉलिंग और एफ सेंगर को 2 नोबेल पुरस्कार मिले हैं। शोधकर्ताओं को टोपोलॉजी के क्षेत्र में फील्ड मेडल से भी नवाजा जा चुका है और ब्लैकहोल फिजिक्स-2020 में नोबेल रॉजर पेनरोज़ को और संयुक्त रूप से रेइनहार्ड जेनज़ेल और एंड्रिया गेज़ को दिया गया। इसलिए, मेरे शोध के क्षेत्र में पेनरोज़ फोर्मलिजम का अत्यधिक उपयोग है," ।

अभिषेक हर दिन कुछ नया तलाशने की निरंतर इच्छा में विश्वास करते है। ’‘शोध ने मुझे शुरू से ही आकर्षित किया है क्योंकि मुख्यधारा में जो किया गया है उसका अनुसरण करना मुझे पसंद नहीं है। मैं लगातार कुछ नया तलाशना चाहता हूं।''

उन्होंने कहा कि उन्हें अपने शोध के लिए अन्य स्रोतों से अध्ययन करना होगा क्योंकि जिन विषयों पर वह ध्यान केंद्रित कर रहे हैं उन्हें स्नातक स्तर पर पढ़ाया नहीं जाता है और अधिकतर शोध पोस्ट-डॉक्टरल या पीएचडी स्तर के दौरान किए जाते है।

"वर्तमान में मैं मियामी विश्वविद्यालय, रटगर्स विश्वविद्यालय (दोनों संयुक्त राज्य अमेरिका में) और ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में शुद्ध गणित के क्षेत्र में कुछ अन्य विधाओं के साथ इम्पीरियल कॉलेज, लंदन/ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय (रिमोटली) में ब्लैक होल के निर्माण पर काम कर रहा हूं ।"

अग्रहरी ने कहा , ''मैं द्रव यांत्रिकी के व्यापक क्षेत्रों में अनुसंधान में भी सक्रिय रहा हूं, विशेष रूप से द्रव-संरचना अंतःक्रिया सिद्धांत, प्लाज्मा भौतिकी, जल तरंग यांत्रिकी, गतिज सिद्धांत (गतिज समीकरण और मॉडल जैसे बोल्ट्जमैन समीकरण, द्रव गतिज युग्मित मॉडल), गणितीय सामान्य सापेक्षता, ब्लैक होल, गैर रेखीय तरंगों के अचानक गुरुत्वाकर्षण के पतन के कारण ब्लैक होल का निर्माण और गेज सिद्धांत, '' ।

उन्होंने आगे कहा, "मैं समरूपता, स्ट्रिंग सिद्धांत और क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत को प्रतिबिंबित करने के लिए डिफरेंशियल ज्योमेट्री, प्रायिकता और स्टैटिस्टिक्स से लेकर लो डायमेंशनल टोपोलॉजी, बीजीय ज्योमेट्री और एनालिसिस तक शुद्ध गणित के लगभग सभी पहलुओं पर काम कर रहा हूं। "

उन्होंने कहा, "चूंकि मेरा सारा काम अनुसंधान उन्मुख है और एक बहु-विषयक होने के नाते मैं शुद्ध गणित, यांत्रिक और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग, सामग्री विज्ञान, भौतिकी और पेनरोज़ औपचारिकता से लेकर विभिन्न पहलुओं को सीखता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरे अनुसंधान का क्षेत्र अब से कुछ साल बाद फील्ड्स और नोबेल के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा '' ।

Saturday, June 12, 2021

फेसबुक पोस्ट : *इस "सिस्टम" के आगे "मैं" लाचार हूं...*

*इस "सिस्टम" के आगे "मैं" लाचार हूं...*
*मन करता है, मार-मार कर चटनी बना दूं...*

✒️ *ब्लॉगर और पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे*

(हर जागरूक नागरिक जल्द से जल्द कोरोना की वैक्सीन लगाना चाहता है। लेकिन सिस्टम की खामी, वैक्सीन स्लॉट बुक करने का टाइम फिक्स नहीं होने के कारण परेशान हो रहा है।) 

दोस्तों, 
इस सिस्टम के आगे मैं लाचार हो गया हूं. 
इस सिस्टम का मैं क्या करूं. 
इस सिस्टम का कोई चेहरा भी नजर नहीं आता। 
अगर यह मेरे सामने आ जाए, 
तो मैं मार-मार कर इसकी चटनी दूं। 
लेकिन मुझे पता नहीं कि यह सिस्टम कौन है। 

*अरे! आप क्या समझे...*

मैं "सीजी टीका" की बात कर रहा हूं। वैक्सीनेशन स्लॉट बुक करने के लिए मैं शाम 5 बजे से लेकर रात 11 बजे तक तो कभी कभी रात 3 बजे तक... इस सिस्टम को रिफ्रेश करते रहता हूं।

कि कभी तो कोरोना टीका लगाने के लिए स्लॉट बुक होगा। लेकिन, नहीं बुक होता। इस सिस्टम ने मुझे लाचार बना दिया है। ये सिस्टम ये भी नहीं बताता कि किस समय वैक्सीन के लिए अप्वाइंटमेंट बुक होगा।

मैं, यहां अकेला मैं नहीं हूं। मैं यहां हर छत्तीसगढ़ वासी है। जो टीका लगाने के लिए स्लॉट बुक करना चाहता है। एक तो वैक्सीन का टोटा, ऊपर से सिस्टम की ऐसी गड़बड़ी की वजह से आनलाइन स्लॉट बुक ही नहीं होता। क्या करें आदमी। 

ऐसा सिस्टम बनाता कौन है और क्यों बनाता है कि आखिर में आम आदमी का सिस्टम से भरोसा उठ जाए। और वो उठ जाए।

©® *ब्लॉगर और पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे*

_*नोट : हर छत्तीसगढ़ वासी का दर्द इस पोस्ट में नजर आ रहा है, जो वैक्सीनेशन के लिए स्लॉट बुक कराने की परेशानी झेलता है। कृपया पोस्ट जरूर शेयर कीजिएगा।*_

🙏🙏🙏🙏🙏

Saturday, June 5, 2021

मिलिए बाल वीडियो क्रिएटर बलजीत मिश्रा उर्फ मिल्हू पांडे से

*मोदीजी... 'अगर 7 साल भी स्कूल बंद करना पड़े,*
*तो ये बलिदान हम देंगे.'*....

इन दिनों वायरल एक वीडियो में आप ये प्यारी-सी आवाज जरूर सुन और देख रहे होंगे। 

इस सबसे ज्यादा वायरल वीडियो के दो क्यूट बच्चों में से सबसे छोटे नन्हे कलाकार को आप नहीं जानते होंगे।

... तो मिलिए इस नन्हें कलाकार से।
इनका नाम है मिल्हू पांडे milhu pandey...
इनकी एक पहचान "पूजा का प्रेमी" भी है। पूजा इनकी अॉन स्क्रीन गर्लफ्रेंड है। ये वीडियो सबसे ज्यादा वायरल हुआ थे। इनके वीडियो इंस्टाग्राम, यूट्यूब, फेसबुक से लेकर कई वीडियो एप पर है... सभी जगह Baljeet_mishra_70 या milhu pandey की आईडी से सारे वीडियो मौजूद है।

यूट्यूब पर milhu pandey comedy नामक चैनल है। जहां इनके वीडियो अपलोड किए जाते है। इस चैनल के 52 हजार से ज्यादा सब्सक्राइबर है। 30 अगस्त 2014 को शुरू हुए इस चैनल के 95 लाख से ज्यादा व्यूअर्स है। एक चैनल baljeet mishra 70 नाम से भी है। फेसबुक पर baljeet mishra 70 नाम से पेज है। यहां भी इनके कमाल के वीडियो है। 

उत्‍तर प्रदेश के शामली जिले के एलम कस्‍बे के बाल वीडियो क्रिएटर बलजीत मिश्रा उर्फ मिल्हू पांडे ने वीडियो एप VMate के #GharBaitheBanoLakhpati कैम्पेन में 20,000 का पुरस्कार जीता था। उस दौरान नन्हें कलाकार बलजीत ने अपनी मिठास से भरपूर आवाज़ और खूबसूरत अभिव्‍यक्ति से कॉमेडियन भारती सिंह समेत अन्‍य दर्शकों का दिल जीत लिया था।

ये बच्चा एक प्रोफेशनल कलाकार की तरह डायलॉग बोलता है। वीडियो में शायद पिता या कोई पहचान वाले इन्हें गाइड करता है। 

बचपन से ही इनके वीडियो बनाए जा रहे है। इस बच्चे का एक वीडियो काफी पहले वायरल हुआ था जिसमें फौजी बना बच्चा कहता है - "चाहे तुम हमें जान से मार डालो, लेकिन देश के साथ जो गद्दारी करवाना चाहते हो, वो हरगिज नहीं करेंगे"।

बच्चे में गजब की अभिनय क्षमता है। इस बच्चे को अच्छी ट्रेनिंग दी जाए तो बड़ा होकर अच्छा एक्टर बन सकता है।

©® *रामकृष्ण डोंगरे*, ब्लॉगर और पत्रकार

Thursday, April 22, 2021

|| छोड़ो इन बातों को ||

|| छोड़ो इन बातों को ||

कुछ आदमी तक खरीद लेते है...
कुछ आदमी बिक भी जाते है...

लेकिन छोड़ो, इन बातों को...
मुश्किल दौर है कोरोनाकाल में...

खजाना भी हो आपके पास तो
जरूरत पड़ने पर हास्पिटल में बेड,
वेंटिलेटर, आक्सीजन, इंजेक्शन-दवा
तक नहीं खरीद पाओगे।

...क्योंकि उस वक्त बिकने के लिए
ये सब चीजें उपलब्ध नहीं होगी।

सब खरीदने की हैसियत रखने वाला
आदमी उस वक्त अपनी चंद सांसों के
लिए भी बेबस नजर आता है।

©® *रामकृष्ण डोंगरे तृष्णा*

Thursday, January 28, 2021

किसानआंदोलन2020 : क्या आप किसान परिवार से नहीं हो?

©® पत्रकार और ब्लॉगर रामकृष्ण डोंगरे 
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दिल्ली और किसान आंदोलन… पिछले 2 माह से दिल्ली के आसपास किसानों का आंदोलन चल रहा है. तीन कृषि कानूनों की वापसी को लेकर 27 नवंबर 2020 से चल रहे इस आंदोलन में 26 जनवरी को दिल्ली का घटनाक्रम लोगों के लिए आश्चर्यजनक रहा। एक तरह से किसान आंदोलन से मुंह फेरने जैसा रहा। 

असलियत तो यही है कि देश में किसानों का मुद्दा है और रहेगा और इसे लेकर चल रहा आंदोलन भी सही है। अब बात करते हैं कि 26 जनवरी को दिल्ली में क्या हुआ… 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली की जो योजना बुजुर्ग किसान नेता ने बनाई थी, उसमें कहीं कोई गड़बड़ी नहीं थी। युवाओं ने, युवा जोश ने उस दिन का माहौल खराब कर दिया। वे रैली निकालने के लिए जल्दबाजी में थे। इसके अलावा तय रूट को छोड़कर अन्य रास्तों से आगे बढ़ना चाहते थे। और किन्हीं 1-2 खुराफाती युवाओं के दिमाग में यह बात आई होगी कि दिल्ली के लाल किले तक चलते हैं. और इस तरह आंदोलन को बिगाड़ने की कोशिश की गई. 

… जैसा कि सभी जानते हैं देश में दो विचारधाराएं काम करती है. एक हमेशा सत्ता पक्ष का सपोर्ट करती है। और दूसरी विपक्ष के साथ खड़ी नजर आती है। सत्ता पक्ष के पास अपना गणित है, वह अपना स्वार्थ देखते हैं. उन्हें हर उस बात से नाराजगी है जो सरकार से सवाल करें या सरकार के खिलाफ बोले। 

वहीं विपक्ष किसानों या आम लोगों के साथ है। जहां तक किसानों का मुद्दा था, ज्यादातर मध्यमवर्ग किसानों के साथ ही है। लेकिन विचारधारा के खूंटे से बंधे कुछ लोग, जो स्वयं देश की सबसे बड़ी आबादी किसान परिवार से आते हैं, बावजूद इसके वे किसानों के साथ खड़े नहीं होना चाहते। 

अब लोग कहते हैं कि जो दिल्ली में किसान आंदोलन चल रहा है, उसमें हमारे यहां का किसान नहीं है तो हम उनके साथ क्यों खड़े हो। तो असलियत सब जानते है कि दिल्ली के किसान आंदोलन में पंजाब, हरियाणा, यूपी और राजस्थान के सबसे ज्यादा किसान हैं। इसकी वजह है दिल्ली के आसपास होना। और बाकी राज्यों के किसानों की तुलना में उनकी मजबूत आर्थिक स्थिति। …क्योंकि इस आंदोलन में बहुत पैसा खर्च हो रहा है। इतना समय और पैसा खर्च करने की हैसियत सच कहे तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के छोटे किसानों में नहीं है। 
2 महीने से जारी किसान आंदोलन में जिस तरह से रोज खबरें आ रही थी, देश का हर नागरिक इसकी तारीफ ही कर रहा था। शांतिपूर्ण ढंग से, बिना किसी शोर-शराबे के किसानों का धरना जारी था। वार्ता चल रही थी। सरकार बातचीत कर रही थी। हां एक बात यह है कि किसान कृषि बिलों की वापसी के अलावा किसी और बात पर तैयार नहीं है। और सरकार भी बिल वापस नहीं करना चाहती। यहीं पर पेंच फंसा हुआ है। इतना सब होने के बाद भी लोग किसान के साथ है और किसान के साथ रहेंगे। 

… गांव से निकलकर शहर में पहुंचने वाला हर कोई शख्स जानता है कि उसके माता-पिता ने उसे शहर क्यों भेजा। गांव में क्या दिक्कत है। किसानों की क्या समस्या है। सब जानते हैं लेकिन भक्त बनकर अपने तथाकथित भगवान के लिए तालियां बजाना, किसे अच्छा नहीं लगता। तो जिसे अच्छा लगता है। वो बजाते रहे। लेकिन सच्चाई यही है कि किसानों की समस्याएं विकराल है। और उसका हल कोई नहीं निकालना चाहता। इसीलिए हमारे किसानों को इतना बड़ा आंदोलन चलाना पड़ रहा है। 
#किसानआंदोलन  #KisanAndolan 

#किसान_आंदोलन_2020_21 #दिल्ली #कृषि_कानून

Wednesday, January 27, 2021

साईं सिमरन सोसाइटी में 72 वें गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण

उत्कृष्ट कार्यों के लिए रामदुलारी कुमारी और भारती डोंगरे सम्मानित 

रायपुर। शंकर नगर इलाके में भावना नगर स्थित साईं सिमरन सोसाइटी में गणतंत्र दिवस पर अध्यक्ष मुकुल वर्मा ने ध्वजारोहण किया। इस दौरान बेहतर काम के लिए रामदुलारी कुमारी, भारती डोंगरे, सुनीता सिंह, सोसाइटी के कर्मचारी राजू और कमला को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में कुशाग्र, रीति टांक आदि बच्चों ने देशभक्ति गीतों की प्रस्तुति दी। इस मौके पर स्वर्ण सिंह चावला, संजय सिंह, भूपेंद्र परमार, विकास पाठक, प्रसाद कामाविसदार, उज्जवल चक्रवर्ती, चंद्रशेखर पांडेय, वायपीएस परिहार, ज्योति टांक, कविता त्रिपाठी, मौसमी रानी, माधुरी टांक आदि रहवासी मौजूद थे।

Tuesday, January 26, 2021

डायरी : हम आपस में मिलना-जुलना क्यों नहीं चाहते?

*हम लोग एक- दूसरे से बात क्यों नहीं करते?*

*हम आपस में मिलना-जुलना क्यों नहीं चाहते?* 

~~~*पत्रकार व ब्लॉगर रामकृष्ण डोंगरे* ~~~ 
---मेरी डायरी के पन्नों से---

जीवन में अगर हम लोगों से मिलेंगे नहीं, बात नहीं करेंगे तो हमारे इंसान होने का क्या मतलब. हम इंसान होने की वजह से एक दूसरे के साथ अपनी फीलिंग को शेयर कर सकते हैं। लेकिन आज के दौर में हम शेयर नहीं कर रहे हैं। 

एक वह दौर था, जब हम चिट्ठी लिखा करते थे. चिट्ठी के जरिए अपने विचारों को दूसरों तक पहुंचाया करते थे. फिर उनके उत्तर का इंतजार करते थे. ऐसे में अगर हमारी दोस्ती हो जाती थी तो हम उनसे मिलने के लिए कई किलोमीटर का फासला तय करते थे. मैं अपनी बात करूं तो मैंने अपने मोहल्ले, गांव या स्कूल के बाहर लोगों से दोस्ती के लिए पहला माध्यम आकाशवाणी यानी रेडियो को चुना. जब हम फरमाइशी प्रोग्राम में चिट्ठी लिखा करते थे तो वहां से हम नए मित्र तलाशते थे. जिनके नाम याद रह जाते थे। उन्हें बार बार याद करते थे। इसके अलावा कार्यक्रमों की प्रतिक्रिया के पत्र पहुंचते थे, और जब लोगों के विचार हमें अच्छे लगते थे, तो हम उनकी तरफ चिट्ठी लिखकर दोस्ती का हाथ बढ़ाते थे. कई चिट्ठियों तक सिलसिला चलने के बाद मिलने का समय आता था.

एक वाकया मुझे याद आता है। ऐसे ही एक रेडियो मित्र, पेन फ्रेंड से मिलने के लिए हमने जिला मुख्यालय छिंदवाड़ा से तामिया के पातालकोट का 60 किमी का सफर यूं ही तय कर लिया था। बिना किसी खास वजह के। पातालकोट पहुंचने के बाद हमें पता चला कि उस मित्र का घर जंगल वाले पैदल रास्ते में कई किलोमीटर दूर है। तो बड़ी मुश्किल से हमने उसका घर खोजा। मिलते ही हमारी सारी थकान दूर हो गई। मित्र ने तुरंत हमें गरमा गरम पकौड़े खिलाएं. 

… तो एक दौर वह था। और आज जब एक मोबाइल हमारे हाथ में है और हमें "कर लो दुनिया मुट्ठी में" कहकर यह मोबाइल थमाया गया है, वाकई पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में है. हम मात्र एक क्लिक से हमारे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर किसी भी अपने परिचित या किसी भी क्षेत्र में सक्रिय या हमारे आदर्श व्यक्ति से हम मैसेज पर बातचीत कर सकते हैं। कॉल भी कर सकते हैं। लेकिन आज के दौर में देखा जा रहा है कि हम किसी से भी दिल से बातें नहीं करना चाहते। मिलना नहीं चाहते। अगर किसी को यूं ही फोन लगा लो तो उधर से तुरंत पूछा जाता है कि कोई काम था क्या। 

ऐसे में मिलने की और रिश्ता बनाने की बात क्या करें। 
ज्यादा दूर की बात ना कि जाए तो शहरी जिंदगी में अपार्टमेंट कल्चर में हम अपने पड़ोसियों से भी करीबी रिश्ता नहीं रख पाते। इसमें कहां कमी है। इस पर हमें विचार करना चाहिए। इसके अलावा अपने दोस्तों से और रिश्तेदारों से भी हमें गाहे-बगाहे बातचीत करते रहना चाहिए। साथ ही किसी ना किसी बहाने मिलना भी चाहिए। 


~~~*आपका दोस्त रामकृष्ण डोंगरे* ~~~
---मेरी डायरी के पन्नों से/26 जनवरी, 2021---