तस्वीर में नजर आ रही इस बैलगाड़ी से जुड़े वैसे तो कई किस्से है। लेकिन मैं आपको एक दो वाकये सुनाता हूं।
बचपन की बात है। जब मैं बमुश्किल पहली - दूसरी में पढ़ता रहा होगा. जैसा कि अक्सर होता है. अगर कोई भी बैलगाड़ी या कोई वाहन हमारे घर के सामने से गुजरता है। तो बच्चे अक्सर उसके पीछे लग जाते हैं। मतलब उस पर सवार हो जाते हैं। बैठ जाते हैं। तो यही कुछ हमारे साथ भी हुआ। शाम का वक्त था 4-5 बजे का. और हम कुछ बच्चे एक बैलगाड़ी के पीछे लटक गए।
बैलगाड़ी हमारे घर से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर दूर तारा गांव के लिए जा रही थी। तो बैल अपनी रफ्तार से बैलगाड़ी को लेकर दौड़ रहे थे।
बाकी बच्चे तो गाड़ी से उतर गए लेकिन मैं उतर नहीं पाया। डर के मारे कि उतरने पर चोट लग जाएगी। उसके बाद वह बैलगाड़ी जिस काम के लिए जा रही थी। यानी चारा भूसा या कड़बी लाने। उसको भरने के बाद शाम के 7 या 8:00 बजे तक को बैलगाड़ी वापस मेरे घर के सामने आई। तब तक मेरा रो रो कर बुरा हाल और पूरे घर वाले भी मुझे ढूंढ ढूंढ के परेशान हो गए थे।
तो यह बचपन का एक किस्सा। इसके अलावा गांव में बैलगाड़ी महिलाएं भी चलाती है। ये कोई नई बात नहीं है। कई जगह परंपरा के नाम पर उन्हें मना किया जाता है। हमारी दादी खुद बैलगाड़ी चलाकर खेत के पत्थर उठाकर फेंका करती थी बाहर।
एक बार बैलगाड़ी में हमारा एक भांजा चक्के के बीच में फंसते फंसते बचा था। तो गांव देहात की ये बैलगाड़ी सबसे भरोसेमंद सवारी गाड़ी होती है। जिस पर हर काम होता है। हालांकि इन दिनों सभी तरह के वाहन गांव में भी पहुंच गए हैं। इसलिए बाजारों में सब्जी लेकर जाना है। मार्केट- बाजार का काम अब बैलगाड़ी से कम ही होता.
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Wednesday, November 15, 2017
हमारी बैलगाड़ी : बचपन की सवारी...
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