जब भी मन पुरानी यादों की गलियों में भटकता है, तो कुछ चित्र ऐसे उभरते हैं, जो समय के साथ और गहरे हो जाते हैं। एक ऐसी ही याद है मेरे उन दिनों की, जब मैं आकाशवाणी भोपाल में लंबे समय तक कार्यरत रहे वरिष्ठ उद्घोषक और लेखक श्री राजुरकर राज जी की संस्कृतिकर्मियों की संवाद पत्रिका “शब्द शिल्पियों के आसपास” और पड़ाव प्रकाशन में कार्यालय प्रबंधक के रूप में कार्यरत था।
दैनिक भास्कर रतलाम के स्थानीय संपादक, मेरे मित्र और बड़े भाई श्री संजय पांडेय Sanjay Pandey जी ने आज मुझे व्हाट्सएप पर इस मैगजीन का स्क्रीनशॉट भेजा तो मैं अचानक पुरानी यादों में खो गया।
यह वर्ष 2004-2005 की बात है, जब भोपाल में दैनिक समाचार पत्र स्वदेश से मेरा पहला जॉब छूट गया था और मैंने 1,000 रुपये मासिक वेतन पर यहां काम शुरू किया था। वह दौर मेरे जीवन का एक अनमोल अध्याय था, जो न सिर्फ मेरे पेशेवर अनुभव को समृद्ध करता है, बल्कि मेरे भीतर की रचनात्मकता को भी जगाता है।
इसी दौरान मुझे देशभर के साहित्यकारों से जुड़ने का अवसर मिला, क्योंकि मैं देशभर से आने वाले आलेख, पत्र को पढ़ता था। यहां से हमने डायरेक्टरी भी तैयार की थी। इसमें साहित्यकारों, संस्कृत कर्मियों का नाम, पता, मोबाइल नंबर या लैंडलाइन नंबर दर्ज होता था।
"शब्द शिल्पियों के आसपास" एक ऐसी पत्रिका थी, जो जो लेखक, साहित्यकार, संस्कृति कर्मियों के जीवन और उनके सुख-दुख के समाचार की जानकारी देती थी। उनकी नई किताबों का प्रकाशन, उनके जीवन की उपलब्धि, घटना दुर्घटना, बच्चों का जन्मदिन, विवाह जैसी छोटी-छोटी सूचनाओं इसमें होती थी। इसमें साहित्यिक आलेख और साक्षात्कार भी होते थे।
राजुरकर जी का मानना था कि समाचार पत्र राजनेताओं या अपराध की खबरों से भरे होते हैं। इनमें साहित्यिक समाचारों के लिए स्पेस बहुत कम होता है। अगर किसी बड़े लेखक साहित्यकार का किसी कार्यक्रम में आना हुआ तो साहित्यिक समाचारों को स्पेस मिलता है लेकिन साहित्यकारों से जुड़े छोटे-छोटे समाचार तो अखबारों का हिस्सा बनते ही नहीं है।
दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय उस वक्त नेहरू नगर स्थित उनके आवास पर ही था। वहां मुख्यतः पत्र, पत्रिकाओं का काम मुझे करना होता था। इसके अलावा अन्य और भी काम थे। मुझे लगता है इसी दौरान मैंने सबसे ज्यादा भोपाल के गली- मोहल्लों को अपनी एटलस साइकिल से नापा था। ज्यादातर अपनी साइकिल से ही मैं जाता था या कभी बस या टेम्पो का सहारा लेता था।
कार्यालय में प्रवेश करते ही किताबों और कागज़ों की सौंधी खुशबू, साहित्यकारों की गहन चर्चाएं-ये सब मेरे रोज़मर्रा का हिस्सा थे। मैं, रामकृष्ण डोंगरे, वहां कार्यालय प्रबंधक के रूप में था, मगर मेरी भूमिका सिर्फ प्रशासनिक कार्यों तक सीमित नहीं थी। मैं उन शब्द शिल्पियों का साक्षी था, जो अपने विचारों से समाज को नई दिशा दे रहे थे।
इसी जगह मैंने पहली बार लेखक साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी के दर्शन किए थे। उस वक्त उनकी उम्र करीब 93 साल थी। मुझे उन्हें इतने करीब से देखकर भरोसा नहीं हो रहा था कि मैंनै उनकी कहानियों को बचपन में स्कूल की किताबों में पढ़ा था।
पड़ाव प्रकाशन में काम करना अपने आप में एक साहित्यिक यात्रा थी। हर किताब, हर पांडुलिपि के पीछे लेखक की मेहनत और सपनों की कहानी होती थी। मैं कार्यालय के दैनिक कामों को संभालता, लेखकों से संवाद करता, और उनके रचनात्मक सफर का हिस्सा बनता। उन पलों में मैंने सीखा कि साहित्य सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि भावनाओं और विचारों का जीवंत दस्तावेज़ है। राजुरकर जी कहा करते थे कि जब वे छोटे थे, तो किताबें पढ़ने पर उन्हें ऐसा एहसास होता था कि यह किताबें कोई ईश्वर ही लिखना होगा। लगभग मेरी भी भावनाएं कुछ ऐसी थी। क्योंकि मैं मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव तंसरामाल में पला- बढ़ा था।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो "आसपास की याद आ गई" । वो सुबहें, जब मैं कार्यालय में सबसे पहले पहुंचकर मेज़ पर बिखरी पांडुलिपियों को सहेजता। वो दोपहरें, जब लेखकों के साथ चाय की चुस्कियों के बीच साहित्यिक चर्चाएं होतीं। और वो शामें, जब नया अंक छपकर आता और हम सब उसकी सफलता पर गर्व करते। ये यादें मेरे लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं। आज सोचता हूं तो लगता है कि भोपाल में बिताया मेरा समय, मेरे जीवन का सबसे अनमोल क्षण है। चाहे वह समय मात्र तीन-चार साल का क्यों ना रहा हो।
“शब्द शिल्पियों के आसपास” और पड़ाव प्रकाशन ने मुझे न सिर्फ़ एक पेशेवर के रूप में गढ़ा, बल्कि एक इंसान के रूप में भी समृद्ध किया। आज भी जब मैं कोई किताब खोलता हूं या कोई कविता पढ़ता हूं, उन दिनों की गूंज मेरे कानों में सुनाई देती है। सचमुच, आसपास की याद आ गई... और मन फिर से उन गलियों में खो गया।
~~पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे~~
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