पहली बार चौथी क्लास में यानी 32 साल पहले बख्खर मारा था।
लास्ट टाइम करीब 25 साल पहले बख्खर, नागर, तिफन, डौरा चलाया था। कॉलेज पढ़ने के लिए 1998 में छिंदवाड़ा चला गया था। तब से ये सब छूट गया था। कभी-कभी हाथ लगाया होगा।
आज करीब आधे घंटे तक खेत में बख्खर मारा। लगा ही नहीं कि इतने सालों से हल, बख्खर से दूर हो गया था।
बख्खर मारने में क्या क्या परेशानी आती है। वो भी याद आ गई। जैसे - बैल का इधर उधर मुंह मारना, मुस्का उतार लेना, पास में चारा फंसने से ठीक से बखराई नहीं होना, कई बार बैल ज्वांडा निकाल देता है आदि कई परेशानी आती है। कई बार बैल चलते नहीं है तो उन्हें पिराना या छड़ी से मारना पड़ता है। कई बार हंकनी से कोंचना पड़ता है।
खेत बखरना, हल चलाना, डौरा मारना धैर्य का काम है। खेत बहुत दिखता है। एक - दो एकड़ मगर धैर्य के साथ काम करते जाओ तो काम थोड़ा कम होने लगता है। जब पूरा खेत बखरा जाता है तो उसकी खुशी अलग ही होती है।
और जब खेत में अनाज, दाना बोने के बाद फसल उगती है तो खुशी चार गुना बढ़ जाती है। रोज सुबह जल्दी उठकर खेत में जाना। मूंगफली, गेहूं, सोयाबीन, मक्का को उगते देखना अलग ही आनंद देता है।
खेती करना हर किसान के बेटे को अच्छा लगता है। लेकिन जब उसका रिजल्ट अच्छा नहीं मिलता। तो माता-पिता खुद ही अपने बच्चों को खेती किसानी से दूर करने लगते है और शहर में दो टके की नौकरी करने भेज देते है। क्या किया जा सकता है?
©® *ब्लॉगर और पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे*
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