Monday, June 28, 2021

मेरी मोबाइल गाथा-1 : पहला मोबाइल 2004 में लिया था पेनासोनिक का एंटीना वाला, सेकंड हैंड एक हजार में

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एक मिडिल क्लास फैमिली में जन्म लेने वाले लोगों का जीवन बड़ी मुश्किल से गुजरता है। ज्यादातर लोग अपनी हर जरूरत के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। तब उन्हें वो चीजें मिलती है। मेरी जिंदगी में भी अब तक बहुत ज्यादा स्ट्रगल रहा है। सेकंड हैंड चीजों से हम मिडिल क्लास वालों को समझौता करना होता है। पापा ने घर के लिए सबसे पहले टू व्हीलर मोपेड लूना खरीदी थी। वह भी सेकंड हैंड थी। ₹4000 की। उसके बाद हमारे लिए साइकिल खरीदी। वो भी सेकंड हैंड थी। जब मैं कॉलेज पहुंचा तो मैंने छिंदवाड़ा में अपने लिए हरक्यूलिस की 800 रुपये की साइकिल खरीदी। वह भी सेकंड हैंड थी। जब मैं भोपाल पहुंचा तो मोबाइल की जरूरत महसूस हुई। तब 1000 रुपये में सेकंड हैंड मोबाइल खरीदा पैनासोनिक का। 

अभी हमारे पास दो स्मार्टफोन हैं। एक रेडमी नोट-3 3/32जीबी वाला, जो कि मैं इस्तेमाल करता हूं। और दूसरा श्रीमतीजी के पास सैमसंग गैलेक्सी कोर- 2 (512एमबी के स्पेस वाला)। इन मोबाइल के बारे में आपको बाद में बताऊंगा। पहले मूल विषय पर आते हैं। बच्चे की आनलाइन क्लास की वजह से हमें नया मोबाइल खरीदना पड़ रहा है। चूंकि सैमसंग गैलेक्सी मोबाइल में आनलाइन क्लास के लिए Google meet एप सपोर्ट नहीं कर रहा है। इस साल हमने 4 साल के बेटे का एडमिशन पीपीवन में करवाया है। इसलिए उसकी आनलाइन क्लास के चक्कर में जल्दी ही नया फोन लेना हमारी मजबूरी है। 

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ऑनलाइन क्लास के चक्कर में हर पैरेंट्स स्मार्टफोन अपने बच्चों के लिए खरीद रहे है। लेकिन जहां प्राइमरी तक के बच्चों को स्मार्टफोन से कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं होने लगी है। वही कम उम्र से ही स्मार्टफोन रूपी खिलौना मिलने के बाद बच्चों का ध्यान पढ़ाई पर कम रहता है, इसमें कोई शक नहीं है। इसलिए मैं 10वीं तक के बच्चों को स्मार्टफोन देने के पक्ष में नहीं रहता। बच्चों को पहले से ही टीवी देखने की लत लगी हुई है। अब फोन की लत लगेगी। फिर मोबाइल गेम्स की।

… मैं थोड़ा पीछे फ्लैशबैक में जाता हूं। जब मैं 1992 में सातवीं कक्षा में था. तब हमारे घर में पिताजी ने टीवी खरीदा था. उसके पीछे भी एक किस्सा है. दरअसल उस वक्त पूरे मोहल्ले में एक या दो ही टेलीविजन सेट थे. जहां हम रात को सीरियल या पिक्चर देखने के लिए जाया करते थे. एक दिन रात को 9-10 बजे लौटते वक्त किसी ने हमें डरा दिया. उसका शॉक मेरे बड़े भाई को बैठ गया। रातभर हम सभी लोग परेशान रहे। 

… और इस घटना के बाद मेरे पिताजी ने टीवी खरीदने का फैसला किया. टीवी आने के बाद हम लोग घंटों तक हर सीरियल, हर मूवी देखते रहते थे. कभी टीवी से दूर नहीं होते थे. इसका असर हमारे रिजल्ट पर साफ नजर आया. छठवीं क्लास की तुलना में सातवीं में मेरे पर्सेंटेज कम आए थे। इसीलिए बच्चों को मोबाइल से दूर ही रखना चाहिए. …

लेकिन अब ऐसा दौर आया है कि छोटा सा बच्चा भी मोबाइल यूज करने लगा है. आजकल के बच्चे तो आंख खोलते ही सामने मोबाइल देखते है। 

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1998 में जब कॉलेज पहुंचा तब मुझे मोबाइल के बारे में कुछ पता नहीं था. शायद एमए (2003-04) के दौरान एक या दो छात्रों के पास मोबाइल रहा होगा। जब 2004 में भोपाल पहुंचा तब मेरे रूममेट के कहने पर ही मैंने 9 अगस्त को एक हजार रुपए में पैनासोनिक का एंटीना वाला सेकंड हैंड मोबाइल लिया था। उससे भी ठीक ठाक बात नहीं होती थी। उस मोबाइल के कंकाल गांव के घर में कहीं बिखरे पड़े होंगे। जब मेरी सैलरी अठारह सौ रुपये महीना थी। उस वक्त 1000 रुपए का मोबाइल खरीदना, मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। घर से संपर्क में रहने के लिए जरूरी था इसलिए मुझे मोबाइल खरीदना पड़ा। 

उस मोबाइल को करीब डेढ़ साल तक यूज किया होगा। 14 जुलाई 2004 को भोपाल में लगी मेरी पहली नौकरी स्वदेश अखबार से लेकर दुष्यंत संग्रहालय में जॉब और फिर सांध्य दैनिक अग्निबाण तक वो मोबाइल मेरे पास था। अग्निबाण मैंने 2005 में ज्वाइन किया था। इसी साल मैंने माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में एडमिशन लिया। तब तक पैनासोनिक का मोबाइल मेरे पास था। जब मैं गांव जाता था, तब घर की छत पर चढ़कर सिग्नल पकड़ता था। क्योंकि तब तक गांव में टॉवर नहीं लगा था। 

nokia 1600
माखनलाल यूनिवर्सिटी में सुबह से क्लास और अखबार में सुबह की नौकरी… ये सब मैनेज नहीं हो पाया। और मेरी नौकरी छूट गई। उसके बाद साल जनवरी 2006 में मैंने राज्य की नई दुनिया में पार्ट टाइम जॉब शुरू किया। उस वक्त तक मेरा मोबाइल बिगड़ चुका था। 

आफिस में मोबाइल खरीदने के लिए दबाव बनाया जा रहा था। 4500 की सैलरी में कॉलेज का खर्च और घर खर्च किसी तरह संभाल रहा था। फिर मैंने अपने एक रिश्तेदार से पैसे उधार लिए। लेकिन पिताजी ने छिंदवाड़ा से भोपाल तक ट्रेन का सफर करके मुझ तक रकम पहुंचा दी। और तब जाकर मैंने 19 मार्च 2006 को 3350 रुपये में नोकिया-1600 मोबाइल खरीदा। 

इतना लेट कंप्यूटर और मोबाइल यूज करने के बावजूद मेरी रुचि होने की वजह से मैं कंप्यूटर और मोबाइल फ्रेंडली बन गया। एमए फाइनल के दौरान जब हमें कॉलेज में "ओ लेवल" का कंप्यूटर कोर्स कराया जा रहा था तब पहली बार मैंने नजदीक से कंप्यूटर को देखा था. 

लेकिन माखनलाल में एडमिशन लेने के बाद ही कंप्यूटर को ठीक से देखा और यूज किया। हालांकि इससे पहले छिंदवाड़ा में लोकमत समाचार के दफ्तर में, फिर भोपाल में स्वदेश, अग्निबाण और राज्य की नई दुनिया के दफ्तर में दूर से ही कंप्यूटर को निहारते थे।

किताबी कीड़े के बाद हम कंप्यूटर के कीड़े बन गए। आजकल मोबाइल हमारे हाथ से चिपक गया है। 

देखा जाए तो कच्ची उम्र में मोबाइल और कंप्यूटर मिलना नुकसानदायक ही होता है। मोबाइल ऐसा खिलौना है, जिससे खेलना सबको अच्छा लगता है। लेकिन जरा सी चूक होने पर ये खिलौना आपकी लाइफ को बर्बाद कर सकता है। आपका बैंक अकाउंट खाली कर सकता है। आपके बच्चों की खुशहाल जिंदगी को वीरान बना सकता है। इसलिए आपके घर में किसी को भी स्मार्टफ़ोन देने से पहले उसे साइबर शिक्षा यानी तकनीकी ज्ञान देना जरूरी है। 

आप पढ़ रहे थे डोंगरे की डायरी... 

*अगली किस्त में पढ़िए… 3जी से 4जी मोबाइल का सफर*

©® ब्लॉगर और पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे

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