Sunday, March 7, 2010

महिला दिवस विशेष : दहलीज़ पर खडी एक लड़की

दरवाजे की दहलीज़ पर खडी एक लड़की सोच रही है। ' मैं लड़की हूँ ' इसमें मेरा क्या दोष है। मैं भी इस दहलीज़ के बाहर जाना चाहती हूँ। अपनी मंजिल को मैं भी पाना चाहती हूँ। फिर क्यों मुझे बाहर जाने से रोका जा रहा है। आखिर क्यों ? और किसलिए ? क्या सिर्फ इसलिए कि मैं एक लड़की हूँ। मैं लड़की हूँ इसमें मेरा क्या दोष... मैं भी अपनी मंजिल को पाना चाहती हूँ दरवाज़े की दहलीज़ पर खडी एक लड़की सोच रही है। रामकृष्ण डोंगरे

1 comment:

Anuj Srivastava said...

भाई डोंगरे जीवन की छोटी-छोटी यादों को सहेजना अद्भुत हैं। तमाम घटनाओं की प्रस्तुति आपने ने बेमिसाल तरीके से की है। कलम का अभागा मैं आपके लेखों में अपने तकलीफों और यादों को खोजता हूं। आपको ऐसे ही लिखते रहने के लिए ढेरों शुभकामनाए। आपका अनुज