Friday, December 8, 2017

रोज एक शायरी

हर दौर में जमाने ने देखे हैं कमीने दो-चार आदमी
मैं फिर क्यों अफसोस करूं, जो एक कमीना देख लिया।

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©® रामकृष्ण डोंगरे #तृष्णातंसरी


Tuesday, December 5, 2017

रोज एक शायरी

खेलने को तुमको एक खिलौना चाहिए था,
कमबख्त तुमको बस दिल मेरा चाहिए था।

#अधूरी_शायरी #रचना_डायरी

रचना समय : 14 नवंबर 2017, रायपुर, छत्तीसगढ़

©® रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा' तंसरी


शशि कपूर: कला चेतना से भरे मासूम चेहरे का खामोश हो जाना

अजय बोकिल

सहजता से बोला गया एक डायलाॅग भी तमाम स्टाइलिश संवादों पर कैसे भारी पड़ सकता है, इसे समझने पहले ‘शशि कपूर स्टाइल आॅफ एक्टिंग’ को समझना होगा। यादगार फिल्म दीवार’में अमिताभ के खाते में दसियों दमदार डायलाॅग थे। उस पर बिग- बी की आवाज उन डायलाॅग्स में और जान डाल देती थी। लगता था छल-प्रपंच भरी इस दुनिया में प्रतिशोध ही जीने का सही रास्ता है। लेकिन सिर्फ और सिर्फ एक डायलाॅग अमिताभ की सारी एक्टिंग को पानी भरने पर मजबूर कर देता है और वह है- मेरे पास मां है! यानी सौ सुनार की और एक लुहार की।

सोमवार (4 दिसंबर, 2017) को दिवंगत अभिनेता शशि कपूर के पास ‘मां’ के अलावा भी बहुत कुछ था। एक मशहूर फिल्मी खानदान में पैदा होने के बाद भी उनमें कोई हेकड़ी नहीं थी। दरअसल 60 के दशक में शशि कपूर फिल्म इंडस्ट्री के चाकलेटी चेहरों के बीच एक ऐसा फेस थे, जो काफी कुछ विदेशी सा लगता था। उनके नाक-नक्श ग्रीक हीरो की तरह लगते थे। मानो कोई गलती से ग्रीक देवताअों के स्वर्ग से हिंदुस्तानी खलिहान में चला आया हो। जो तन से युवा और मन से किशोर हो। यूं शशि कपूर ने ढाई दशक में फिल्मों में कई रोल अदा किए, लेकिन उन्हें याद तो कुछ भूमिकाअो, अपने सामाजिक तथा कला सरोकारों के ‍िलए किया जाएगा। साम्प्रदायिक दंगों पर बनी फिल्म ‘धर्मपुत्र’ में उनका रोल एकदम अलग तरह का था तो हिट फिल्म ‘वक्त’ में ‘जी को मारकर’ जिंदगी बिताने वाले युवा के रूप में उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। उम्र में बड़े होने के बाद भी शशि कपूर ने पर्दे पर अमिताभ के छोटे भाई का रोल कई फिल्मों में  बड़ी शिद्दत से अदा किया था। उन्होने प्ले ब्वाॅय टाइप भूमिकाएं भी कीं। लेकिन यह उनके स्वभाव के अनुकूल कभी नहीं लगीं। कारण कि शशि कपूर के चेहरे में एक स्थायी मासूमियत और दुनिया की चालािकयों से स्तब्ध हो जाने का परमनेंट भाव था। शशि जब पर्दे पर नाचते थे तो लगता था कि यह काम उनसे जबरन कराया जा रहा है। हां, फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ में  शशि जब ‘हम को तुम पे प्यार आया..प्यार आया..’ चीखते हुए इश्क में बावले हो जाते हैं, तब महसूस होता है कि सच्ची मोहब्बत करने वाला जब प्यार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करना चाहता है तो उसका हाल क्या होता है। शशि कपूर की पर्दे पर और जाती जिंदगी में भी इमेज एक क्लीन और ईमानदार इंसान की रही है। वह जो भी कहता है, सच सच और बेलाग ढंग से कह देता है। जिसमें कोई बनावटीपन नहीं है। शशिकपूर का यह नेचर अपने अग्रज राज कपूर की देसी और गंवई छवि एवं  शम्मी कपूर की मस्त मौला तथा चुहलबाज इमेज से बिल्कुल हटकर है। शशि कपूर को देखकर हमेशा यही लगा कि ये आदमी कभी विलेन नहीं हो सकता। वह कांटो पर भी चलेगा तो फूलों की संवेदना के साथ चलेगा। 

शशि कपूर को फिल्मी किरदारों से ज्यादा फिल्म इंडस्ट्री और थियेटर क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए याद किया जाएगा। सच्चा कलाकार न तो पैसे से संतुष्ट होता है और न ही प्रसिद्धी से भरमा जाता है। उसके मन में कुछ ऐसा करने की भूख होती है, जिससे सरस्वती संतुष्ट हो। कला की देवी मुस्कुराए। संस्कृति का पैमाना छलके। इतिहास खुद बांहे फैलाकर उसकी तलाश करे। फिल्मी चकाचौंध में रहकर भी शशि कपूर में सच्चे अभिनय की तड़प थी। इसलिए उन्होने अपनी जीवन साथी भी मशहूर अदाकारा जेनिफर कैंडल को बनाया। ’36 चौरंगी लेन’ में जेनिफर का अभिनय भला कौन भूल सकता है। इस फिल्म को ‘सेल्युलाइड पर लिखी कविता’ कहा गया। फिल्मों से नाम और पैसा कमाने के बाद 1978 में शशिकपूर ने  दो माइलस्टोन काम किए। उन्होने अपने पिता और महान ‍अभिनेता पृथ्वीराज कपूर की याद में मुंबई में ‘पृथ्वी  थियेटर्स’ की स्थापना की। साथ ही खुद की फिल्म कंपनी ‘फिल्म वाला’ भी शुरू की। दोनो प्रयास वास्तव में ‍शशि कपूर के भीतर छुपे और कुलबुलाते कलाकार तथा  सर्जक के बैटिंग ग्राउंड थे। उन्होने इसे पूरी तरह भुनाया भी। शशि कुछ ऐसा करना चाहते थे, जो कपूर परिवार के ग्लैमर से हटकर हो और उसके बाद भी याद रखा जाए। ‘फिल्म वाला’ के बैनर तले शुरू हुआ यह ‘जनून’, ‘उत्सव’ तक अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा। दुनिया ने शशि की कला को एक नए शीशे में देखा, उससे अभिभूत हुई। उसके अनोखेपन को महसूस किया।

पिछले कई दिनों से शशि कपूर काफी बीमार चल रहे थे। जीवन संगिनी का जिंदगी की शाम से पहले साथ छोड़ जाने का दर्द तो था ही। शरीर भी थकने लगा था।  इस बीच उन्हें पद्म विभूषण और प्रतिष्ठित दादा साहब फालके अवाॅर्ड से नवाजा गया। तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री अरूण जेटली उन्हें यह पुरस्कार  देने शशिजी के घर पहुंचे। यह पुरस्कार लेते समय शशि का चेहरा अवाक था। मानो बहुत देर कर दी, हुजर आते-आते। फिर भी पुरस्कार तो पुरस्कार है। उसकी अपनी आत्मा होती है। अगर यह पुरस्कार शशि कपूर को न दिया जाता तो शायद यह पुरस्कार ही ग्लानिभाव से भर जाता। क्योंकि दादा साहब फाल्के की जिंदगी ही कुछ नया करने में बीती। भले ही उन्हें फाके करने पड़े हों। शशि का ‘जुनून’ भी कुछ ऐसा ही था। कुछ अलग और लीक से हटकर करने की जिद और कला को उसने नए रूपों में निखारने की चाह। सिनेमा से उलीचकर थियेटर को सींचने वाले फिल्म इंडस्ट्री में बिरले ही होते हैं। क्योंकि यह घर फूंक तमाशा है। लेकिन शशि कपूर ने यह काम पूरी निष्ठा और प्रतिदान की अपेक्षा के बगैर किया। अगर सलीम जावेद‍ फिर से ‘दीवार’ के लिए डायलाॅग लिखें तो उन्हे शशिकपूर के लिए लिखना पड़ेगा- ‘मेरे पास कला है।‘ और कला कभी काल की गुलाम नहीं होती।

‘राइट ‍क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 5 दिसंबर 2017 को प्रकाशित)


Friday, December 1, 2017

मेरी फेसबुक पोस्ट : बहुरूपिया को मदद या भीख क्यों

आज ही का एक किस्सा है। कुछ मिनटों पहले एक एटीएम के गार्ड को 5 रुपये दिए मैंने।

एटीएम से पैसे निकाले ही थे कि उसने कहा

- भैया 5 रुपये दो ना। चाय पीना।
पहले मैंने मना करते हुए कहा कि भाई पांच रुपये नहीं।

ये मैंने टालने के लिए भी कहा था और ये अंदाज लगाकर भी कि मेरे पास 5 रुपये खुल्ले नहीं है। लेकिन याद आ गया कि पर्स में पांच का नोट रखा है।

पहले साफ कर दूं कि भीख देने और भिखारियों को बढ़ावा देने के मैं सख्त खिलाफ हूं। इसलिए कभी सड़क पर, बाजार में, ट्रेन में, मंदिर के बाहर किसी भी बच्चे, बूढ़े या मासूम बच्चे को गोद में लेकर घूमने वाली महिला को 1-2 रुपये या 5-10 रुपये नहीं देता हूं।

मंदिर की दान पेटी इसमें अपवाद है। लेकिन वहां भी सिर्फ कभी-कभी या फैमिली के साथ होने पर ही।

अब मुद्दे की बात। उस गार्ड के साथ मैंने 5-10 मिनट बात की। उसको 5 रुपये देते -देते मैंने दो-तीन खतरनाक किस्से भी सुना दिए कि कैसे लोग दूसरों की दरियादिली, उदारता का फायदा उठाते है और भरोसा तोड़ते है।

एक किस्सा मेरे शहर छिंदवाड़ा का है। देखा-सुना। एक बुजुर्ग महिला बस स्टैंड के आसपास की सड़कों पर घूम-घूमकर अपना दुखड़ा सुनाते हुए पांच रुपये मांगा करती थी। भैया, मुझे घर जाना है। बस किराये के लिए 5 रुपये दे दो।

कई लोगों से पांच रुपये की 'वसूली' करने के बाद भी वो महिला कभी अपने घर नहीं पहुंची ! महीनों तक शहर में घूमती रहती थी।

एक किस्सा और है। मजदूर टाइप के कुछ लोगों ने,  हम भूखे है खाने के लिए कुछ पैसे दे दो साहब। कहकर कुछ लोगों से 100-200 रुपये झटक लिए। उन साहब ने कहा- आप लोग अमुक पते पर चले जाइए। मैंने माताजी से कहकर घर पर आप लोगों का खाना बनवा दिया है।

मगर वे लोग घर नहीं पहुंचे। खाना बेकार हो गया। भरोसा टूट गया।

दुनिया में ज्यादातर लोग मदद मांगने के नाम धोखा देते हैं। बहरुपियों की इस दुनिया में आप क्या करेंगे। किसकी मदद करके आप खुद को दानी या मददगार साबित कीजिएगा।

(मेरी फेसबुक पोस्ट, 1 दिसंबर, 2015)