Wednesday, October 1, 2025

सब फोन देखने में बिजी हैं, रामलीला देखने कौन जाएगा?

मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित मेरा ग्राम तंसरामाल, जहां कभी दुर्गोत्सव और मंडई मेलों की रौनक पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी, आज एक अजीब सी खामोशी में डूबा हुआ है।

पहले इन मेलों में रंग-बिरंगे मंच सजते थे, गांव के लोग रामलीला और नाटकों के लिए उत्साह से इकट्ठा होते थे। बच्चे, बूढ़े, जवान—सब एक साथ बैठकर रामायण के चरित्रों को जीवंत होते देखते थे। ढोल-मंजीरे की आवाज, राम-सीता के संवाद और रावण के दहाड़ते किरदार गांव की फिजा में गूंजते थे। लेकिन आज, यह सब एक धुंधली याद बनकर रह गया है। मंच खाली हैं, दर्शक गायब हैं, और गांव की सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। 

कारण? हर हाथ में स्मार्टफोन और हर आंख स्क्रीन पर टिकी हुई है। 

शायद आपके पिताजी, चाचा जी या आपके बड़े भाई कभी रामलीला के किरदारों को जीवंत करते रहे होंगे। हमारे गांव के भी कई नाम मुझे याद आते हैं। जैसे- मयाराम काका, अर्जुन काका, छोटू काका, शिवपाल काका आदि। 

तंसरामाल में दुर्गोत्सव और मंडई मेलों का समय गांव वालों के लिए उत्सव का पर्याय था। रामलीला के मंच पर स्थानीय कलाकार अपने अभिनय से रामायण को जीवंत करते थे। बच्चे राम के बाण चलाने का दृश्य देखकर तालियां बजाते, तो बुजुर्ग राम-सीता के आदर्शों पर चर्चा करते। ये आयोजन केवल मनोरंजन नहीं थे, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक मूल्यों को जीवित रखने का माध्यम थे। गांव के लोग महीनों पहले से तैयारी में जुट जाते—मंच सजाना, वेशभूषा तैयार करना और किरदारों के लिए अभ्यास करना। यह सब गांव की सामूहिकता का प्रतीक था। 

आज समय बदल गया है। स्मार्टफोन ने न केवल हमारा समय, बल्कि हमारी संस्कृति को भी अपने आगोश में ले लिया है। युवा अब रामलीला के मंच के बजाय यूट्यूब और सोशल मीडिया पर वीडियो देखने में मशगूल हैं। बच्चे गेमिंग ऐप्स में खोए रहते हैं, और बड़े-बूढ़े भी व्हाट्सएप और फेसबुक की स्क्रॉलिंग में समय बिता रहे हैं। 

~ वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे ~

Photo Credit : Google

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