Monday, July 18, 2016

श्रद्धांजलि : बीमारी से हार गया मेरा दोस्त सुदीप कुमार

"और रामकृष्ण".... यही वो शब्द थे,
जिससे सुदीप मुझसे बातचीत की शुरुआत करते थे।

आखिरी बार जब बात हुई तब 26 जून के पहले की कोई तारीख रही होगी। हम एक सीनियर स्व. विनय तरुण की याद में होने वाले कार्यक्रम की तैयारी में लगे थे। रायपुर में इस कार्यक्रम के लिए आने के बहाने वह सबसे मिलना चाहता था।
बाएं से स्व. सुदीप कुमार के साथ।

उसने कहा था- 'रामकृष्ण, मैं आने की कोशिश करूंगा। ताकि इस बहाने सभी से मुलाकात हो जाए।

सुदीप कुमार सिन्हा। एमजे-2005-07। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि का छात्र रहा।

जागरण भोपाल में इंटर्नशिप के दौरान ही उसकी कई खबरें सराही गई। फिर उसने वही से अपने करियर की शुरुआत की। सिटी इंचार्ज रवि खरे सर के साथ उसकी अच्छी ट्यूनिंग हो गई थी।

कोर्स पूरा के बाद उसने राजस्थान पत्रिका जयपुर, भोपाल और रायपुर में भी काम किया। इसके अलावा कुछ समय तक हरिभूमि भोपाल से भी जुड़ा रहा। वे वर्तमान में आई- नेक्स्ट पटना में सीनियर रिपोर्टर के तौर पर पदस्थ थे।

मेरे एक दोस्त और क्लासमेट दुलार बाबू ठाकुर भी उनके साथ आई-नेक्स्ट में काम कर रहे है। उन्होंने बताया कि वे आखिरी बार 12 जुलाई को आफिस आए थे। लगातार बारिश और ठंडे-गरम मौसम की वजह से उन्हें वायरल इंफेक्शन हो गया। वे जल्दी ही आफिस से चले गए थे।

वे इन दिनों अपनी मम्मी और भाई के साथ पटना में रहते थे। डायबिटीज के मरीज थे। खान-पान का खास ख्याल रखते थे। 2-3 दिन तक वे घर पर ही इलाज कराते रहे। अस्पताल चलने के लिए तैयार नहीं थे। फिर भाई ने जिद करके उन्हें 16 जुलाई की शाम को पटना के कंकड़बाग स्थित साईं अस्पताल में भर्ती कराया।

निमोनिया का असर था। कमजोर होने के कारण बीमारी में शरीर साथ नहीं दे रहा था। डॉक्टरों ने उन्हें बचाने की बहुत कोशिश की मगर 18 जुलाई की सुबह करीब 7 बजे अस्पताल में दिल का दौरा पड़ने से 35 वर्षीय सुदीप की मौत हो गई। सोमवार दोपहर पटना के बांस घाट पर उन्हें छोटे भाई प्रीतम ने मुखाग्नि दी। असामयिक मौत से पिता गोपाल कृष्ण सिन्हा, मां माधुरी सिन्हा, बड़े भाई प्रदीप सिन्हा और बहन कंचन सिन्हा समेत पूरा परिवार सदमे में है.

उनकी मम्मी को काफी आघात पहुंचा है। सुदीप घर का सबसे छोटा बेटा था। शायद उससे छोटी एक बहन है। भोपाल में जॉब के दौरान उसकी मम्मी और बहन रचना नगर वाले रूम में साथ ही रहती थीं।

सुदीप के बारे में याद किया जाए। या कुछ कहा जाए।
. .. तो वह बेहद एक्टिव रहता था। उसके काम में, बातचीत में फुर्ती नजर आती थी। पढ़ाई के दौरान हम होशंगाबाद गए थे। शायद उसी ने टूर प्लान किया था। जहां हमने एमजे डिपार्टमेंट के साप्ताहिक विकल्प के लिए स्टोरी की थी। मेरी शादी के दौरान वह छिंदवाड़ा भी आया था। दो-तीन दिन हमारे घर पर रहा था। पूरा परिवार उसे पसंद करने लगा था।

एक अच्छे रिपोर्टर की तरह खबरों के पीछे भागना उसे सबसे ज्यादा प्रिय था। पत्रिका में नौकरी के दौरान रायपुर में वह मेरे साथ वाले कमरे में रहता था। हमारे एक सीनियर और मित्र राकेश मालवीय जी और सुदीप अक्सर बैठा करते थे। कई बातें होती थी। अपनी दीदी की शादी के मौके पर लंबी छुट्टी पर घर गया था। फिर कुछ समय बाद पटना में ही टिक गया।

लिखने के लिए बहुत कुछ है। मगर जो लिखा जाएगा वो कम ही होगा। इंसान बीमारी से हार जाता है। सुदीप को कई बार बीमारी ने घेरा। मगर अपनी जिंदादिली और जूझने की क्षमता की वजह से वह हर बार ठीक हो जाता था।

मगर... इस बार हंसने और हंसाने वाले सुदीप कुमार को बीमारी ने हरा दिया।
अलविदा मेरे दोस्त... तुम हमेशा याद आओगे।


गंगाधर के बाद शायद सुदीप मेरा दूसरा दोस्त था, जो मुझे अचानक छोड़कर चला गया। दुनिया में जो आया है, उसका जाना भी तय है। किसी अपने के चले जाने पर जो दुख होता है, उसको रोका नहीं जा सकता।

किसी की मौत को न यूं दिल से लगाया जाए,
रास्ते में जो भी मिले, उसे अपना बनाया जाए।

श्रद्धांजलि ! नमन  !!!

सुदीप सिन्हा का फेसबुक पेज- https://www.facebook.com/sudeep.sinha.7?fref=pb&hc_location=profile_browser

Tuesday, June 14, 2016

नेताओं के पीछे भागने से क्रांति आ पाएगी ?

मेरा अनुभव रहा है कि सामाजिक समारोहों में आजकल सामाजिक विषयों पर चर्चा करने, समाजजन के मन की बात सुनने का हमारे मंच संचालक के पास समय नहीं होता। किंतु नेता के इंतजार में हम घंटों समय बीता देते हैं। उनके भाषण की कोई समय सीमा नहीं होती।

यहाँ तक की समर्पित समाज सेवियों को पीछे छोड़ नेताओं के साथ फोटो खिंचवाने और वाट्सएप, फेसबुक, लोकल न्यूज़ पेपर पर उन्हें चमकाने में मसगुल रहते हैं। समाजजन से जनसंपर्क के लिए अपने पाँव घिसने की बजाय नेताओं के पीछे भागने से समाज मे क्या क्रांति आ पाएगी। समाज का भला हो पाएगा ?

कहते है charity starts from home (समाज सुधार की शुरूआत अपने घर से) किंतु जब नवयुवक समिति गठन की घड़ी आती है तो हम अपने लड़के-लड़कियों की पढ़ाई का ख्याल कर उन्हें छोड़ दूसरों के लड़के-लड़कियों की ओर नज़र दौड़ाते हैं l समाज को मजबूत करने समाजजन को सक्षम बनाना होगा, उसे नेताओं के पिछलग्गु बनने से नहीं तो जन जन को आधुनिक समय के अनुसार ढालने से ही संभव है।

हमारे बुजुर्गों ने समाज को शिक्षा की ओर अग्रसर किया। बैल गाड़ियों तथा साइकिलों से घूम-घूम कर चेतना लाई। समाजजन से गाँव-गाँव जाकर धन जमाया और छात्रावास उभारे, जो गोंदिया और बालाघाट में 40 -50 वर्षों तक हमारे युवाओं को आश्रय प्रदान करने सेवारत रहे।

आज हमारे कार्यकर्ता जो अपनी गाड़ी, कार को घर में रख संगठन के पैसे से टैक्सी से समाज सेवा करते नज़र आते हैं। हमने नेताओं से डोनेशन लेकर मंगल भवन बनाए और उन्हें चलाने धंधेवालों को सौप देते हैं। नाम पवार भवन और संचालन किसी और के द्वारा। और तो और समाजजन को किराए में कोई छूट नहीं।

जब नागपुर जैसी जगह हमारे दो विशाल भवन हैं जो पवार समाज के धन से बने हैं और उन्हें पवार संगठन चला सकते हैं, नागपुर जैसे शहर मे जहाँ एक दिन का समाज जन को 8 - 10 हजार में शादी ब्याह के लिए बड़ी सहूलियत से उपलब्ध हैं, फिर दूसरे शहरों में क्यों नहीं ?

ऐसी व्यथा हमारे समाजजन आए दिन व्यक्त करते रहते हैं l क्या सिर्फ राजा भोज की जय से सब साध्य हो जायेगा ? यदि राजनेता समाज की समस्याएं हल करने में सक्षम हैं तो फिर सामाजिक संगठनों की क्या आवश्यकता। जो नेता स्टेच पर सामूहिक विवाह पर जोशिला भाषण देते हैं और अपने पुत्र-पुत्रियों के विवाह मे सम्मिलित होना तो दूर पर बड़े-बड़े मैदान पर विशाल मंडप तान कर आयोजित किया जाता हैं। लाखों मेहमान, घोड़ा क्या ऊंट या हाथी पर दुल्हा विराजमान होता है। इधर अहेर प्रथा हमारी महासभा 1906 से निर्मूलन में जुटी है और उधर हम अहेर समेटने मिनी ट्रक हायर करते हैं। बारात के लिए दो-चार बस और 25-30 इनोवा, ट्रैक्सी कम पड़ती हैं।

हम बड़े गर्व से भाषण में कहते हैं कि पवारों में हुंडा नहीं है, दहेज नहीं है और हमारे नेताजी अपने दामाद को नई चमचमाती कार और लक्जरी फ्लैट देते है। इसलिए प्रारम्भ में मैंने कहा कि हर कोई चाहता है कि मैं उपदेश करूं और दूसरा फालोअप करें।

लेखक- डॉ. ज्ञानेश्वर टेंभरे
( आपकी किताब पवारी ज्ञानदीप, समाज के लिए काफी जानकारीपरक है।)


Thursday, June 2, 2016

ऐसा पहली बार कि कांग्रेसी खुश, जोगी समर्थक खुश और बीजेपी भी खुश

'छाया के शुभ कदम'

कॉफी हाऊस गॉसिप, रायपुर से

प्रदेश के सबसे नामचीन पालिटिकल गॉसिप की जगह कॉफी हाऊस में चर्चाओं में अजीत जोगी ही थी. नेता, ब्यूरोक्रेट्स, एक्टिवस्ट आकर यहां जोगी के कांग्रेस छोड़ने की खबर पर तरह तरह की चर्चाएं कर रहे थे. कुछ चर्चाएं बेहद दिलचस्प थीं.

एक ने कहा कि ''ऐसा पहली बार हो रहा है कि सभी खुश हैं. जोगी के बाहर जाने से कांग्रेसी के संगठन खेमे के नेता और कार्यकर्ता खुश हैं. जोगी की उपेक्षा से लंबे समय से आहत उनके समर्थक भी खुश हैं कि कुछ काम करने का मौका मिलेगा. बीजेपी भी खुश है कि दोनों की लड़ाई का फायदा उसे फिर से 2018 के विधानसभा चुनाव में होगा.

तभी दूसरे भाई साहेब ने कहा कि उन विधायकों का हाले दिल बयान करो जो जोगी समर्थक हैं. दूसरे नंबर के भाई साहेब ने अपना अनुभव सुनाया. उन्होंने कहा कि मैंने खबर देखी नहीं थी कि एक कांग्रेस के मित्र की कॉल आ गई और उन्होंने सलाह मांग ली कि किधर रहना चाहिए . भूपेश के साथ या जोगी के साथ. तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस बड़े महात्वाकांक्षी होते हैं. 2018 में जिन्हें कांग्रेस से टिकट नहीं मिलेगी वो थोक के भाव में जोगी के साथ जाएंगे और उनमें से कई जीत भी जाएंगे. जोगी ने अभी तक हर विधानसभा से तीन-तीन उम्मीदवारों की लिस्ट बना ली है. तभी तीसरे भाईसाहेब से रहा नहीं गया और उन्होंने कहा कि कुछ भी कहो छाया के कदम बड़े शुभ हुए. जो काम सालों तक कांग्रेस में बड़े दिग्गज नहीं कर पाए उसे छाया के आते ही कर दिया गया.

इस तरह की चर्चाएं दिन भर कॉफी हाऊस में होती रही. कोई जोगी को जनाधार वाला नेता बताता रहा तो उनकी तुलना वीसी शुक्ल से करता रहा. कोई बताता रहा कि आने वाले समय में जोगी की ही जय जय होगी. तो किसी ने कहा कि अब बीजेपी के शहरी वोट में जबरदस्त सेंधमारी होगी और थोक के भाव में कांग्रेस को वोट मिलेंगे.

साभार -पायनियर रायपुर फेसबुक पेज

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Monday, May 30, 2016

ज्यु माथो नवानो जानस आय

सबरी दुनिया ओकीच सा
ज्यु हासनो जानस आय

उजारो बि ओकोच सा
ज्यु दियो जलानो जानस आय

हर जघा मंदिर, मज्जित, गुरुद्वारो सा l
पर भगवान त ओको च सा
ज्यु "माथो" नवानो जानस आय

पवारी अनुवाद : पंकज चौधरी

सारा जहां उसी का है
जो मुस्कुराना जानता है
रोशनी भी उसी की है
जो शमा जलाना जानता है
हर जगह मंदिर मस्जिद ,गुरूद्वारे है।
लेकीन इश्वर तो उसीका है जो 
"सर"  झुकाना जानता है..

मूल रचना


Friday, May 20, 2016

अचानक किसी को फोन कीजिए और बात करके देखिए...

अचानक किसी को फोन कीजिए और बात करके देखिए...

# Conversation_with_anyone

आज हर हाथ में मोबाइल। हमारे-आपके मोबाइल में सौ- 200 और 1000 - 2000 मोबाइल नंबर हैं। जिसका जितना बड़ा फ्रेंड सर्किल या जाॅब। जरा याद करके देखिए...कितने ऐसे फ्रेंड है, रिलेटिव है, जिनसे आपने महीनों-सालों से बात नहीं की है।

आप कहेंगे रोज तो चैट होती है। एफबी पर मिलते हैं। फिर क्या जरूरत।आप वाट्सएप-एफबी पर चैट करते हैं। यानी रोज अपना आधा घंटा चैटिंग में निकाल देते हैं। कभी किसी फ्रेंड को, रिलेटिव, एक्स कलीग को अचानक फोन कीजिए। दिल की बात कीजिए। देखना आपको वो खुशी मिलेगी। जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की होगी।

बस फोन करने से पहले सामने वाले के डेली रूटीन का ख्याल रखिए। यानी जिसे आप फोन लगाए वह शख्स फ्री होना चाहिए।

आज हर कोई बिजी होने का बहाना करता है। मगर होता नहीं। हम मोबाइल पर, वाट्सएप, फेसबुक पर अपना बहुत समय बर्बाद करते हैं। इसी समय से कुछ टाइम निकाल अपनों को अचानक फोन कीजिए। रिश्ते मजबूत होंगे। नए दोस्त बनेंगे। आपके जाॅब सर्किल में नेटवर्किंग बढ़ेगी। हर तरह से फायदा ही होगा।

मेरा अनुभव तो यही कहता है। 10 साल पहले जब मेरे पास मोबाइल नहीं हुआ करता था। तब भी मैं दोस्तों को एसटीडी बूथ पर जाकर फोन करता था। मोबाइल आने के बाद ये सब इजी हो गया। इधर वाट्सएप जैसे एप के आने से हम 24 घंटे लाइव तो रहते है मगर असली खुशी हमें दिल की बात करने से ही मिलती है।

हम सिर्फ काम पड़ने पर भी किसी को फोन करते हैं। यह गलत है। इसलिए आजकल तुरंत ही पूछ बैठते है- बोलिए क्या काम था। सोचिए। हम किस दिशा में जा रहे। अपनों का हाल-चाल जानना, घर-परिवार की बातें करना, दोस्तों से उनकी नौकरी के बारे में हमने बिल्कुल ही छोड़ दिया है।

चलिए फिर से हम अपनों के करीब जाएं और अपनों को दिल के करीब लाएं। सेल्फी विथ डाॅटर की तरह .... चैट विथ एनीवन या चैट विथ फ्रेंड जैसा कोई अभियान चलाए।

# डोंगरे_की_बात , # डोंगरेकीडायरी ,
# ChatWithFriend #Conversation_w
ith_anyone

July 13, 2015 at 4:14pm


Saturday, May 7, 2016

ओ मां... तुझे सलाम

पहली तस्वीर में मां, दूसरी में दादी और तीसरी फोटो में परदादी

⁠⁠मुझे यह बताने में गर्व महसूस होता है कि हमारा परिवार शायद कई पीढ़ियों से मातृसत्तामक ही रहा है। जहां तक मुझे जानकारी है मेरे पिताजी स्व. श्री संपतराव डोंगरे की दादी मां यानी श्रद्धेय पूनी बाई ने अपनी पाई-पाई जमा की गई रकम से हमारी पुस्तैनी जमीन खरीदी। जहां आज हमारे परिवार रहते हैं। उसी जमीन को हमारी दादी मां ने अपने सीधे और सज्जन पति स्व. किसन डोंगरे के साथ मिलकर सजाया-संवारा। यानी मरते दम तक खेतों में बैल गाड़ी चलाने से लेकर हर तरह के काम किए।

मेरी सबसे बड़ी प्रेरणास्त्रोत दादी (डोकरी माय) ही थीं। उनकी परंपरा को मेरी मां श्रीमती गौरा बाई और भाभी जी कैकई बाई आगे बढ़ा रही है।

जब भी कोई दुख की घड़ी आती है तो मेरे मुंह से ओ मां ही शब्द निकलते हैं। मां मेरी कमजोरी और ताकत भी है। घर से दूर रहने के कारण बरबस ही मां की याद आ जाती है, आंखों में आंसू झरने लगते हैं। लेकिन तभी मां के वे शब्द कान में गूंजने लगते हैं। बेटा- तुम दोनों भाइयों को बाहर निकलकर कुछ करना है। अपना और हमारा नाम बढ़ाना है।

शायद यही वजह है हम आज भी मुश्किलों से घबराते नहीं, जूझते है और अपने आप को संभाल लेते हैं।

मां से मिली मुझे प्रेरणा, ताकत और भरोसा

ओ मां.... तुझे सौ सौ सलाम

( मदर्स डे, 8 मई 2016)




Monday, April 4, 2016

दशक बीत गए... गांवों में बचपन अब भी नंगे पांव

दैनिक भास्कर रायपुर, 3 अप्रैल, 2016

दशक बीत गए... बचपन अब भी नंगे पांव

दैनिक भास्कर रायपुर में प्रकाशित फोटो जर्नलिस्ट सुधीर सागर की इस तस्वीर ने तीन दशक पहले बीते बचपन की याद को ताजा कर दिया। खास तौर पर स्कूल के दिन। साल 1985 से 1990 के प्राइमरी स्कूल के दिन। जब कई बच्चे नंगे पांव ही स्कूल जाते थे। मार्च-अप्रैल-मई की लू जैसी गर्मी में धूप से बचने के लिए दौड़ लगाते थे। गुलमोहर के पेड़ के नीचे खड़े होते थे। सड़क के किनारे चलते वक्त धूब यानी घास वाली जगह पर पैर रखकर चलते थे। सिर पर बस्ता भी रखते थे..... कितना मशक्कत होती थी तेज धूप से बचने के लिए। ये सच है कि कई बच्चों को पहनने के लिए जूते-चप्पल तक नहीं मिलते थे। बाद में पैरागाॅन, लखानी की चप्पलें आ गई। ....मगर कितने माता-पिता इन्हें बार-बार खरीदकर दे पाते थे। क्योंकि बच्चे तो चप्पल तोड़ेंगे ही।

तीन दशक बीत चुके हैं कि मगर गांव भी हालत सुधरे नहीं है। फिर गांव चाहे किसी भी राज्य के हो। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ या यूपी-बिहार। इसके लिए कौन जिम्मेदार है। गांव में बचपन आज भी अभावों में बीत रहा है।



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