Sunday, April 8, 2018

ये सोचना ग़लत है के' तुम पर नज़र नहीं...

ये सोचना ग़लत है के' तुम पर नज़र नहीं,
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बेख़बर नहीं....

बड़े भाई जैसे श्री आलोक श्रीवास्तव जी की ये लाइनें और वे स्वयं किसी परिचय के मोहताज नहीं है।

प्रोफाइल आप गूगल कर सकते हैं। या आप जानते ही होंगे। आलोक जी से मेरी पहली मुलाकात साल 2004 में भोपाल में हुई थी।

तब वे दैनिक भास्कर की रविवारीय मैग्जीन रसरंग में हुआ करते थे। तब मैं भोपाल के अपने शुरुआती पत्रकारीय जीवन में साहित्यकारों की मैग्जीन "शब्द शिल्पियों के आसपास", पड़ाव प्रकाशन में काम कर सकता था।

भास्कर आफिस में ही उनसे मुलाकात हुई थी। इससे पहले सिर्फ उनको पढ़ा था। बाद में आलोक जी उसी साल 2004 में दिल्ली चले गए। 2006 में फिर मेरी उनसे इंडिया टीवी में मुलाकात हुई। 2007 से लगातार 2013 तक मैं दिल्ली में रहा। अमर उजाला में नौकरी के दौरान। मगर उनसे मुलाकात नहीं हो पाई।

इधर रायपुर आने के बाद उनसे एक दो बार और मुलाकात हुई। वे पिछली बार ओमपुरी जी के साथ आए थे।

आलोक पुतुल जी से भी पहली बार रूबरू मुलाकात हुई है। जान पहचान काफी पुरानी है। आलोक पुतुल जी की धारदार रिपोर्ट्स मैंने बीबीसी पर पढ़ी थी। खास तौर पर बस्तर को लेकर। इन दिनों आप नवभारत से भी जुड़े हुए हैं।

आलोक श्रीवास्तव जी और आलोक पुतुल जी के बीच मैं किसी जुगनू की मानिंद हूं। मैं ऐसे लोगों से ज्यादा मिलना पसंद करता हूं। जिनसे दिल से जुड़ाव महसूस करता हूं। मुझे आज आप जैसे महानुभावों से मिलकर बेहद खुशी हुई।

उम्मीद है ये मुलाकात फिर होगी...

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