#savemcu #savejournalism #लड़ाईजारीहै
पुष्प की अभिलाषा… चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं… राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी… और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि भोपाल… दोस्तों, आपको याद तो होगा ही… चलिए फिर से याद करते हैं। इस बार मौका है- सेव एमसीयू, सेव जर्नलिज्म, लड़ाई जारी है के साथ… कुठियाला हटाओ, माखनलाल बचाओ…।
यहां के कुछ मौजूदा और पुराने छात्रों ने कई मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया पर विवि के कुलपति बीके कुठियाला के खिलाफ मुहिम शुरू की है। छात्रों से जुड़े मद्दे है जैसे- इंटर्नशिप, प्लेसमेंट, लाइब्रेरी, कंप्यूटर लैब की टाइमिंग, सीनियर प्राध्यापकों की अवहेलना और कम योग्य प्राध्यापकों को प्रश्रय देना। इसके साथ ही कुलपति की गलत नीतियां। लड़ाई किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं… उस व्यक्ति के तालिबानी फरमानों के खिलाफ चल रही हैं।
छात्रों का आंदोलन जोर पकड़ रहा है। छात्रों की द्वारा बनाए फेसबुक पेज पर अब तक 1200 से ज्यादा लोग जुड़ चुके हैं। यह आंदोलन इसी विवि में साल 2001 में महीनेभर तक चले एक और आंदोलन की याद दिला रहा है। उस वक्त भी छात्रों ने इंटर्नशिप, छात्रों की फीस के मुद्दे पर लगातार आंदोलन चलाया था। आखिरकार विवि प्रशासन को छात्रों की सभी मांगों को मानना पड़ा था। मतलब साफ है कि छात्रों की जायज मांगों के सामने विवि प्रशासन को झुकना पड़ा था और इस बार भी झुकना पड़ेगा।
रेडियो… एफएम आकाशवाणी छिंदवाड़ा ने मेरे अंदर जुनून पैदा किया। मीडिया में आने के लिए प्रेरित किया। उन दिनों मैं हिंदी लिटरेचर से एमए प्रिवियस की पढ़ाई कर रहा था। साल था 2003। अचानक एक मित्र माखनलाल (एमसीयू) जा पहुंचा। इधर मैं पत्रकारिता के पेशे से जुड़ता चला गया। कॉलेज फंक्शन की खबरें बनाना और अखबारों में देना। फिर अनियमित रूप से लोकमत समाचार से जुड़ गया। कई खबरें पब्लिश हुई और पत्रकार बनने की दिशा में आगे बढ़ गया…।
एमए कम्पलीट होते ही 5 जुलाई, 2004 को भोपाल जा पहुंचा। पढ़ाई…पढ़ाई और लगातार पढ़ाई के बाद फिर तुरंत एडमिशन लेने का कोई इरादा नहीं था। सो स्वदेश न्यूजपेपर में नौकरी शुरू की। जॉब के दौरान कई लोगों से मिलना जुलना हुआ। आखिर कुछ शुभचिंतकों की सलाह पर साल 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी विवि में एडमिशन ले लिया। उससे पहले भी कई पुराने पत्रकारों ने कहा- भैया पत्रकार क्यों बनना चाहते हो, कुछ और कर लो। पढ़े-लिखे हो। लेकिन हम नहीं माने, क्योंकि हमें तो पत्रकार ही बनना था।
एमए कम्पलीट होते ही 5 जुलाई, 2004 को भोपाल जा पहुंचा। पढ़ाई…पढ़ाई और लगातार पढ़ाई के बाद फिर तुरंत एडमिशन लेने का कोई इरादा नहीं था। सो स्वदेश न्यूजपेपर में नौकरी शुरू की। जॉब के दौरान कई लोगों से मिलना जुलना हुआ। आखिर कुछ शुभचिंतकों की सलाह पर साल 2005 में माखनलाल चतुर्वेदी विवि में एडमिशन ले लिया। उससे पहले भी कई पुराने पत्रकारों ने कहा- भैया पत्रकार क्यों बनना चाहते हो, कुछ और कर लो। पढ़े-लिखे हो। लेकिन हम नहीं माने, क्योंकि हमें तो पत्रकार ही बनना था।
माखनलाल में एडमिशन लेने के बाद यहां के माहौल का पता चला। भोपाल शहर में यहां-वहां कई बिल्डिंगों में बिखरें कमरों में लगने वाले डिपार्टमेंट और इनमें पढ़ने वाले स्टूडेंट्स ही पूरी माखनलाल यूनिवर्सिटी थी। एक बार का वाकया है… मुझे किसी काम से ई-8 त्रिलंगा, अरेरा कॉलोनी में यूनिवर्सिटी में जाना था। मिनी बस से उतरते ही मैंने लोगों से माखनलाल विवि का एडरेस पूछा। काफी मशक्कत करने के बाद ही मुझे विवि की बिल्डिंग का रास्ता मिला। मतलब साफ है कि आम लोग विवि की बिल्डिंग को नहीं उन कुछ कमरों में चलने वाले डिपार्टमेंट और उन काबिल स्टूडेंट्स के सहारे विवि को जानते थे… आज भी कुछ नहीं बदला है। किसी कॉलेज और यूनिवर्सिटी की पढ़ाई, वहां का माहौल और वहां से पढ़े बच्चों की काबिलियत ही सबसे ज्यादा मायने रखता है।
यूनिवर्सिटी से पासआउट होने के बाद लगातार आठ साल से पत्रकारिता के फील्ड में हूं। यूनिवर्सिटी में आने से पहले रिपोर्टिंग की…. फिर डेस्क पर वर्किंग…। यूनिवर्सिटी के उन दिनों को बहुत मिस करते हैं। वहां के लेक्चर अटेंड करना… लैब जर्नल विकल्प को निकालने का अनुभव…। अलग-अलग फील्ड के नामी लोगों से मिलने-सीखने को अवसर मिला। देशभर के बड़े मीडिया में कार्यरत हमारे सीनियर्स से मिलने… बात करने का मौका मिला। माखनलाल विवि के ताजा विवाद के बाद हम सबकी चिंता का विषय यही है कि क्या यूनिवर्सिटी की आने वाली पीढ़ी इन खूबसूरत लम्हों को जी पाएगी।
पिछले चार-पांच साल से पूरी तरह से भोपाल से दूर हूं। साल 2010 का विवाद… दिल्ली में अमर उजाला में कार्यरत रहने के दौरान घटा। मगर इस सबसे कुछ-कुछ अंजान ही थे हम। क्योंकि उन दिनों सोशल मीडिया, आज की तरह सबके पास नहीं था। कुलपति कुठियाला द्वारा एक एचओडी को एक संगीन आरोप लगाकर हटाना। घोर निंदनीय कृत्य था।… और अब ताजा विवाद रोटेशन के नाम पर सीनियर लोगों के साथ ऐसा बर्ताव…।
यूनिवर्सिटी की ताजा व्यवस्था या अव्यवस्था, जो कि जुनियर साथियों के जरिए हम तक पहुंची हैं। लाइब्रेरी की टाइमिंग बदलना, कंप्यूटर लैब की टाइमिंग बदलना… कई बंदिशें। पत्रकारिता जगत के सीनियर पत्रकारों से रूबरू कराने, उनके अनुभवों से लाभ मिलने के अवसरों का कम हो जाना।
पत्रकारिता के गुर सीखने के लिए निकलने वाले विकल्प और अन्य लैब जर्नल का काम ठप हो जाना। सेमेस्टर एग्जाम के बाद होने वाली इंटर्नशिप पर पाबंदी… कहते हैं कि कुलपति कुठियाला के काले कारनामे की फेहरिस्त काफी लंबी है। क्या ऐसे कुलपति को अपने पद पर विवि में बने रहने का कोई हक होना चाहिए… कदापि नहीं… तो हमारी लड़ाई जारी रहेगी…
कुठियाला हटाओ, माखनलाल बचाओ
… का नारा हम सब बुलंद करना ही होगा।
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