Friday, October 17, 2025

सत्ता को दो-टूक जवाब: 'मैं संपादक हूँ, खबर मैं तय करूँगा, आप नहीं!’

किस्सा संपादक का : पहली किस्त

आज मैं तेज-तर्रार पत्रकार और संपादक आनंद पांडे जी से जुड़ा एक रोचक किस्सा साझा करना चाहता हूं। पांडे जी, जो वर्तमान में 'द सूत्र' से जुड़े हैं और चर्चा में हैं, उस समय रायपुर के एक प्रतिष्ठित अखबार के संपादक थे।
यह बात उस वक्त की है जब मैंने अमर उजाला, नोएडा छोड़कर उस अखबार में नौकरी शुरू की थी। वहां के संपादक आनंद पांडे जी के तेवर देखते ही बनते थे। एक बार हमारे होनहार रिपोर्टर गोविंद पटेल ने एक सनसनीखेज खबर फाइल की। 

खबर थी कि तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष और भाजपा के बड़े नेता गौरीशंकर अग्रवाल के बंगले में 48 एयर कंडीशनर (एसी) लगे थे। यह खबर सरकारी बंगलों में रखरखाव और मरम्मत के नाम पर होने वाली फिजूलखर्ची को उजागर करती थी।

खबर छपते ही रायपुर के राजनीतिक गलियारों में हड़कंप मच गया, चर्चाएं गर्म हो गईं और स्वाभाविक रूप से गौरीशंकर जी नाराज हो गए। अगले दिन सुबह की मीटिंग के दौरान पांडे जी के पास गौरीशंकर अग्रवाल का फोन आया।

उन्होंने सवाल किया, 

“आनंद जी, क्या आपको लगता है कि मेरे बंगले की यह खबर पहले पेज पर टॉप बॉक्स में छपने लायक थी? क्या यह इतनी बड़ी खबर थी?” 

पांडे जी ने तुरंत सख्त लहजे में जवाब दिया, 

“गौरीशंकर जी, आप राजनेता हैं, अपना काम करें। मैं संपादक हूँ, मेरा काम करूँगा। कौन सी खबर कहाँ छपेगी, यह मैं तय करूँगा, आप नहीं।” 

यह सुनते ही गौरीशंकर जी की बोलती बंद हो गई और बातचीत आगे बढ़ना मुश्किल था। 

इस घटना ने मुझे पांडे जी के बेबाक तेवर दिखाए। एक सच्चा संपादक वही होता है जो सच का साथ दे और झूठ को बर्दाश्त न करे, चाहे सामने कितना बड़ा व्यक्ति क्यों न हो। 

इसी तरह का एक और किस्सा भोपाल के प्रतिष्ठित संपादक गिरीश मिश्र जी का है। जब वे एक अखबार के संपादक थे, तब मालिक ने उनसे कहा कि वे मुख्यमंत्री निवास जाकर मुख्यमंत्री से मुलाकात करें। 

मिश्र जी ने दो टूक जवाब दिया, “मैं संपादक हूँ, मेरा काम अखबार को बेहतर बनाना है। अगर किसी को मुझसे मिलना है, तो वे मेरे दफ्तर आएँ। मैं किसी के पास नहीं जाऊँगा।” 

ऐसे तेवर वाले संपादक कम ही देखने को मिलते हैं, लेकिन अक्सर ऐसे लोग मालिकों को पसंद नहीं आते। बाद में मिश्र जी को उस अखबार से हटना पड़ा, हालांकि वे दूसरे अखबार के संपादक बने। 

आनंद पांडे जी और 'द सूत्र' की खबरों को देखकर लगता है कि वे केवल वही दिखाते हैं जो जनता को जानना चाहिए। राजस्थान के घटनाक्रम “दीया तले अंधेरा” सीरीज को आप देखेंगे तो समझ पाएंगे कि जो दिखाया गया है, वह जनता को जरूर देखना चाहिए। 

 'द सूत्र' के वीडियो देखकर आप भी अपनी राय बना सकते हैं कि क्या वे कुछ गलत कर रहे हैं। 

कृपया अपनी राय जरूर बताएं कमेंट में आपका स्वागत है….। 

~~ रामकृष्ण डोंगरे, पत्रकार व यूट्यूबर, डोंगरेजी ऑनलाइन ~~

Saturday, October 4, 2025

डेढ़ दशक बाद डॉ. लक्ष्मीचंद सर से मुलाकात: पीजी कॉलेज, छिंदवाड़ा की स्मृतियां

भाग-दौड़ भरे दिन के पश्चात कल (चार अक्टूबर, 2025) रात लगभग 8:30 बजे एमए हिंदी के मेरे प्रिय शिक्षक आदरणीय डॉ. लक्ष्मीचंद सर से मुलाकात हुई। यह मिलन लगभग डेढ़ दशक के अंतराल के बाद हुआ। छिंदवाड़ा के पीजी कॉलेज से वर्ष 2004 में एम.ए. हिंदी की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं (रामकृष्ण डोंगरे) भोपाल चला गया था।
सर ने बताया कि नरसिंहपुर रोड पर स्थित बिंद्रा कॉलोनी का यह नया मकान उन्होंने वर्ष 2005 में बनवाया था। मुझे याद है कि मैं कॉलेज के दिनों में उनके पुराने निवास पर भी जा चुका हूँ, जहां सर ने अपनी लाइब्रेरी से मुझे कुछ पुरानी और मूल्यवान किताबें भेंट की थीं, जो आज भी मेरे संग्रह का हिस्सा हैं। 

मुझे याद है कि मैं एक बार पहले भी इस नए मकान में आ चुका हूं। 2011 के बाद मैंने अपना फेसबुक अकाउंट खोला था। इसका मतलब है कि उसके बाद मेरी मुलाकात नहीं हुई है, क्योंकि मैं हर मुलाकात की यादें फेसबुक पर जरूर लिखता हूं। 
यद्यपि इस डेढ़ दशक के दौरान फोन पर हमारा लगातार संपर्क बना रहा, परंतु व्यक्तिगत रूप से मिलना एक सुखद अनुभव था। इस अवधि में सर ने छिंदवाड़ा जिले के विभिन्न कॉलेजों में अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं।

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हिंदी विभाग की यादें
डॉ. लक्ष्मीचंद सर का व्यक्तित्व सरल और सहज है। उन्होंने हिंदी विभाग के कई सफल बैचों को पढ़ाया है। 
एक विशेष बात यह है कि आदरणीय सर रोज अपने गार्डन के फूलों की तस्वीर के साथ सुप्रभात का मैसेज भेजते हैं। हमें याद है कि वर्ष 2002-2004 के सत्र में सर के साथ-साथ गुप्ता मैडम, अवस्थी मैडम, पटवारी मैडम भी हमें पढ़ाया करती थीं। यह मेरे लिए गर्व का विषय था कि मैंने 73% के साथ अपनी कक्षा में टॉप किया था।

मुझे याद है कि हमसे पहले वाले बैच से इमरान खान जी पास आउट हुए थे, जो वर्तमान में हिंदुस्तान डिजिटल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि पीजी कॉलेज छिंदवाड़ा की गिनती उन प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में होती है, जहां छत्तीसगढ़ की पूर्व राज्यपाल अनुसूइया उइके जी भी शिक्षा ग्रहण कर चुकी हैं।

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सांस्कृतिक और साहित्यिक उपलब्धियां 
कॉलेज से जुड़ी मेरी यादों में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियां सर्वोपरि हैं। कॉलेज की पत्रिका 'निर्झरी' में मेरे आलेख और कविताएं प्रकाशित हुई थीं। इससे पहले डीसी कॉलेज की पत्रिका में भी मेरी कविता को स्थान मिला था। सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भाग लेना एक महत्वपूर्ण अनुभव रहा। मैंने अपने मित्र दिग्विजय सिंह के साथ सामान्य ज्ञान प्रश्न मंच प्रतियोगिता में छिंदवाड़ा जिले का प्रतिनिधित्व किया था और सागर विश्वविद्यालय में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। जिले से प्रतिनिधि चयन के लिए गर्ल्स कॉलेज में एक कड़ी प्रतिस्पर्धा आयोजित की गई थी।

हमारा पीजी कॉलेज धर्म टेकरी पर स्थित है, जिसके नज़दीक ही आकाशवाणी छिंदवाड़ा और ऐतिहासिक राज्य बादल भोई संग्रहालय भी मौजूद हैं, जो इस क्षेत्र के सांस्कृतिक महत्व को बढ़ाते हैं।

- वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे, पूर्व विद्यार्थी, पीजी कालेज छिंदवाड़ा

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Thursday, October 2, 2025

School Life : गांव तंसरामाल के प्राइमरी स्कूल के दोस्तों से मुलाकात

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित तंसरामाल गांव में गुरुवार 2 अक्टूबर 2025 को बचपन के यारों कैलाश डोंगरे, पंचम महोबिया और प्रीतम डोंगरे से एक साथ मुलाकात हुई तो मानो समय की मशीन में सवार होकर सीधे 1985 में पहुंच गया! जिस समय शासकीय प्राथमिक शाला तंसरामाल में हमारी स्कूल लाइफ शुरू हुई थी। 


कैलाश से तो मुलाकातें होती रहती हैं, लेकिन पंचम से मिलना? अरे, वो तो दो दशक बाद हुआ! पंचम, जो कभी कोर्ट की नौकरी में, कभी टीचर की भूमिका में मध्यप्रदेश के अलग-अलग शहरों में रहे। इन दिनों विदिशा जिले में शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। 
हमारा प्राइमरी स्कूल का जमाना, वो तो बस एक अलग ही दुनिया थी! हमारा दोस्तों का गैंग—कैलाश, पंचम, शंकर, आरिफ, प्रीतम, सुभाष—जैसे सात समंदर के रत्न! हर दिन नई शरारत, नई मस्ती।
कैलाश के साथ तो एक खास किस्सा है, जो आज भी हंसी ला देता है। स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम में कैलाश के साथ मुझे स्टेज पर चढ़ने का मौका मिला। असल में, कोई और आने वाला था, लेकिन उसकी 'गैरहाजिरी' ने मुझे स्टार बना दिया! वो मेरी जिंदगी का पहला और आखिरी स्कूल स्टेज परफॉर्मेंस था। इनाम में मिला एक चमचमाता गिलास, जिसे मैंने बरसों तक ट्रॉफी की तरह संभाला।

स्कूल की वो गलियां, वो क्लासरूम, वो सैयद सर की डांट और देशमुख सर का वो दमदार अंदाज—कैसे भूलें? गुप्ता सर और मर्सकोले मैडम की पढ़ाई ने तो हमें जिंदगी की पहली सीढ़ियां चढ़ाईं। और हां, हमारे गैंग का शंकर सिरसाम तो बाद में गांव का सरपंच बना, वो भी दो-दो बार! गर्व की बात, है न?

ये मुलाकात बस एक मुलाकात नहीं थी, बल्कि उन पुराने दिनों की एक झलक थी—जब जिंदगी बस हंसी-मजाक, दोस्तों की यारी और मासूम सपनों का पीछा करना थी। तंसरामाल के स्कूल की वो यादें, वो दोस्ती, आज भी दिल में उतनी ही ताजा है, जितनी उस गिलास की चमक!

~ रामकृष्ण डोंगरे, तंसरामाल ~

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Wednesday, October 1, 2025

सब फोन देखने में बिजी हैं, रामलीला देखने कौन जाएगा?

मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित मेरा ग्राम तंसरामाल, जहां कभी दुर्गोत्सव और मंडई मेलों की रौनक पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी, आज एक अजीब सी खामोशी में डूबा हुआ है।

पहले इन मेलों में रंग-बिरंगे मंच सजते थे, गांव के लोग रामलीला और नाटकों के लिए उत्साह से इकट्ठा होते थे। बच्चे, बूढ़े, जवान—सब एक साथ बैठकर रामायण के चरित्रों को जीवंत होते देखते थे। ढोल-मंजीरे की आवाज, राम-सीता के संवाद और रावण के दहाड़ते किरदार गांव की फिजा में गूंजते थे। लेकिन आज, यह सब एक धुंधली याद बनकर रह गया है। मंच खाली हैं, दर्शक गायब हैं, और गांव की सांस्कृतिक धरोहर धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। 

कारण? हर हाथ में स्मार्टफोन और हर आंख स्क्रीन पर टिकी हुई है। 

शायद आपके पिताजी, चाचा जी या आपके बड़े भाई कभी रामलीला के किरदारों को जीवंत करते रहे होंगे। हमारे गांव के भी कई नाम मुझे याद आते हैं। जैसे- मयाराम काका, अर्जुन काका, छोटू काका, शिवपाल काका आदि। 

तंसरामाल में दुर्गोत्सव और मंडई मेलों का समय गांव वालों के लिए उत्सव का पर्याय था। रामलीला के मंच पर स्थानीय कलाकार अपने अभिनय से रामायण को जीवंत करते थे। बच्चे राम के बाण चलाने का दृश्य देखकर तालियां बजाते, तो बुजुर्ग राम-सीता के आदर्शों पर चर्चा करते। ये आयोजन केवल मनोरंजन नहीं थे, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक मूल्यों को जीवित रखने का माध्यम थे। गांव के लोग महीनों पहले से तैयारी में जुट जाते—मंच सजाना, वेशभूषा तैयार करना और किरदारों के लिए अभ्यास करना। यह सब गांव की सामूहिकता का प्रतीक था। 

आज समय बदल गया है। स्मार्टफोन ने न केवल हमारा समय, बल्कि हमारी संस्कृति को भी अपने आगोश में ले लिया है। युवा अब रामलीला के मंच के बजाय यूट्यूब और सोशल मीडिया पर वीडियो देखने में मशगूल हैं। बच्चे गेमिंग ऐप्स में खोए रहते हैं, और बड़े-बूढ़े भी व्हाट्सएप और फेसबुक की स्क्रॉलिंग में समय बिता रहे हैं। 

~ वरिष्ठ पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे ~

Photo Credit : Google

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Sunday, September 21, 2025

Dongre ki Diary डोंगरे की डायरी के अंश



रामकृष्ण डोंगरे का ब्लॉग "DONGRE की डायरी" (dongretrishna.blogspot.com) उनकी व्यक्तिगत स्मृतियों, पत्रकारिता के अनुभवों और साहित्यिक संस्मरणों का संग्रह है। यह एक डिजिटल डायरी की तरह है, जहाँ वे अपने जीवन के विभिन्न चरणों—जैसे भोपाल के साहित्यिक कार्यालय में काम, आकाशवाणी के दिन और पुरानी यादों को ताजा करने—के बारे में लिखते हैं। ब्लॉग की थीम मुख्य रूप से आत्मकथात्मक है, जिसमें किताबों की खुशबू, साहित्यकारों की चर्चाएँ और जीवन के छोटे-छोटे क्षण प्रमुख हैं। नीचे कुछ प्रमुख अंश दिए गए हैं, जो उनके ब्लॉग से लिए गए हैं। ये अंश हिंदी में हैं और उनके मूल भाव को बनाए रखते हुए संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किए गए हैं:

1. **साहित्यिक कार्यालय की यादें (भोपाल के दिनों से)
 
 - **तिथि/संदर्भ**: हालिया पोस्ट (2020-2025 के बीच की यादें)।
   - **अंश**:  
     "कार्यालय में प्रवेश करते ही किताबों और कागज़ों की सौंधी खुशबू, साहित्यकारों की गहन चर्चाएं-ये सब मेरे रोज़मर्रा का हिस्सा थे। मैं, रामकृष्ण डोंगरे, वहां कार्यालय प्रबंधक के रूप में था, मगर मेरी भूमिका सिर्फ प्रशासनिक कार्यों तक सीमित नहीं थी। मैं उन शब्द शिल्पियों का साक्षी था, जो अपने विचारों से समाज को नई दिशा दे रहे थे।"  
     *(यह अंश उनके प्रारंभिक करियर की सादगी और साहित्यिक वातावरण की जीवंतता को दर्शाता है।)*

2. **विष्णु प्रभाकर जी के दर्शन

   - **तिथि/संदर्भ**: भोपाल कार्यालय की पुरानी घटना (लगभग 2004-2005)।
   - **अंश**:  
     "इसी जगह मैंने पहली बार लेखक साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी के दर्शन किए थे। उस वक्त उनकी उम्र करीब 93 साल थी। मुझे उन्हें इतने करीब से देखकर भरोसा नहीं हो रहा था कि मैंने उनकी कहानियों को बचपन में स्कूल की किताबों में पढ़ा था।"  
     *(यह संस्मरण साहित्यिक हस्तियों से उनके व्यक्तिगत जुड़ाव को उजागर करता है, जो बचपन की यादों से जुड़ता है।)*

3. **पुरानी मैगज़ीन की यादें और मित्रता**
   - **तिथि/संदर्भ**: हालिया (2025 के आसपास, व्हाट्सएप के माध्यम से ताजा हुई याद)।
   - **अंश**:  
     "दैनिक भास्कर रतलाम के स्थानीय संपादक, मेरे मित्र और बड़े भाई श्री संजय पांडेय Sanjay Pandey जी ने आज मुझे व्हाट्सएप पर इस मैगजीन का स्क्रीनशॉट भेजा तो मैं अचानक पुरानी यादों में खो गया।"  
     *(यह छोटा अंश पत्रकारिता के पुराने साथियों से जुड़ी भावुकता को व्यक्त करता है।)*

ये अंश डोंगरे जी की डायरी के सार को दर्शाते हैं—एक साधारण जीवन की गहराई, जहाँ साहित्य और पत्रकारिता के अनुभव भावनाओं का स्रोत बनते हैं। ब्लॉग पर और भी कई पोस्ट हैं, जैसे आकाशवाणी के दिनों की डायरी और साहित्यिक चर्चाओं के वर्णन।

हिंद युग्म का युगपुरुष: शैलेश भारतवासी Shailesh Bharatwasi जी से एक यादगार मुलाकात"

शैलेश भारतवासी Shailesh Bharatwasi जी... हिंद-युग्म के प्रकाशक... मेरे आभासी मित्र...
मेरा परिचय शैलेश जी से ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर से है। वर्ष 2007 में दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला की नौकरी के सिलसिले में दिल्ली पहुंचा था, तब से ही मैं ब्लॉगिंग की दुनिया से जुड़ गया था। उस समय मैंने 'डोंगरे की डायरी', 'छिंदवाड़ा छवि' और और अन्य ब्लॉग बनाए थे। 

शैलेश जी के ब्लॉग 'हिंदी युग्म' पर हम तकनीकी आलेख और अन्य रुचिकर सामग्री पढ़ते थे। बाद में शैलेश जी ने अपनी वेबसाइट तैयार की और फिर अपना प्रकाशन शुरू कर दिया है। 

इस तरह हमारा परिचय गहरा होता गया। हालांकि, दिल्ली में रहते हुए भी हमारी कभी आमने-सामने मुलाकात नहीं हो पाई।

'हिंदी युग्म' की चर्चा युवा लेखकों के बीच सबसे ज्यादा है, क्योंकि आज की सबसे ज़्यादा चर्चित किताबें उन्हीं के प्रकाशन से प्रकाशित होती हैं। 'हिंदी युग्म' अपनी टैगलाइन 'नई वाली हिंदी' के साथ युवा लेखकों की सबसे अधिक किताबों को प्रकाशित करने के लिए जाना जाता है।
ठीक 18 साल के लंबे अंतराल के बाद, रायपुर में उनसे हमारी मुलाकात कुछ इस तरह हुई: वे बेहद सरल और सहज हृदय वाले हैं। उनसे मिलने के लिए साहित्य प्रेमियों में गजब का उत्साह था। यह उत्साह स्वाभाविक भी था, क्योंकि 'हिंदी युग्म' और शैलेश भारतवासी हिंदी साहित्य जगत में एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। यह मुलाकात साहित्यिक, सहज और यादगार रही।

~ रामकृष्ण डोंगरे ~

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Wednesday, August 6, 2025

मेरी डिजिटल डायरी : bhopal City और "आसपास" की याद आ गई...

जब भी मन पुरानी यादों की गलियों में भटकता है, तो कुछ चित्र ऐसे उभरते हैं, जो समय के साथ और गहरे हो जाते हैं। एक ऐसी ही याद है मेरे उन दिनों की, जब मैं आकाशवाणी भोपाल में लंबे समय तक कार्यरत रहे वरिष्ठ उद्घोषक और लेखक श्री राजुरकर राज जी की संस्कृतिकर्मियों की संवाद पत्रिका “शब्द शिल्पियों के आसपास” और पड़ाव प्रकाशन में कार्यालय प्रबंधक के रूप में कार्यरत था।
दैनिक भास्कर रतलाम के स्थानीय संपादक, मेरे मित्र और बड़े भाई श्री संजय पांडेय Sanjay Pandey जी ने आज मुझे व्हाट्सएप पर इस मैगजीन का स्क्रीनशॉट भेजा तो मैं अचानक पुरानी यादों में खो गया। 

यह वर्ष 2004-2005 की बात है, जब भोपाल में दैनिक समाचार पत्र स्वदेश से मेरा पहला जॉब छूट गया था और मैंने 1,000 रुपये मासिक वेतन पर यहां काम शुरू किया था। वह दौर मेरे जीवन का एक अनमोल अध्याय था, जो न सिर्फ मेरे पेशेवर अनुभव को समृद्ध करता है, बल्कि मेरे भीतर की रचनात्मकता को भी जगाता है।
इसी दौरान मुझे देशभर के साहित्यकारों से जुड़ने का अवसर मिला, क्योंकि मैं देशभर से आने वाले आलेख, पत्र को पढ़ता था। यहां से हमने डायरेक्टरी भी तैयार की थी। इसमें साहित्यकारों, संस्कृत कर्मियों का नाम, पता, मोबाइल नंबर या लैंडलाइन नंबर दर्ज होता था। 

"शब्द शिल्पियों के आसपास" एक ऐसी पत्रिका थी, जो जो लेखक, साहित्यकार, संस्कृति कर्मियों के जीवन और उनके सुख-दुख के समाचार की जानकारी देती थी। उनकी नई किताबों का प्रकाशन, उनके जीवन की उपलब्धि, घटना दुर्घटना, बच्चों का जन्मदिन, विवाह जैसी छोटी-छोटी सूचनाओं इसमें होती थी। इसमें साहित्यिक आलेख और साक्षात्कार भी होते थे। 
राजुरकर जी का मानना था कि समाचार पत्र राजनेताओं या अपराध की खबरों से भरे होते हैं। इनमें साहित्यिक समाचारों के लिए स्पेस बहुत कम होता है। अगर किसी बड़े लेखक साहित्यकार का किसी कार्यक्रम में आना हुआ तो साहित्यिक समाचारों को स्पेस मिलता है लेकिन साहित्यकारों से जुड़े छोटे-छोटे समाचार तो अखबारों का हिस्सा बनते ही नहीं है। 

दुष्यंत कुमार पांडुलिपि संग्रहालय उस वक्त नेहरू नगर स्थित उनके आवास पर ही था। वहां मुख्यतः पत्र, पत्रिकाओं का काम मुझे करना होता था। इसके अलावा अन्य और भी काम थे। मुझे लगता है इसी दौरान मैंने सबसे ज्यादा भोपाल के गली- मोहल्लों को अपनी एटलस साइकिल से नापा था। ज्यादातर अपनी साइकिल से ही मैं जाता था या कभी बस या टेम्पो का सहारा लेता था। 

कार्यालय में प्रवेश करते ही किताबों और कागज़ों की सौंधी खुशबू, साहित्यकारों की गहन चर्चाएं-ये सब मेरे रोज़मर्रा का हिस्सा थे। मैं, रामकृष्ण डोंगरे, वहां कार्यालय प्रबंधक के रूप में था, मगर मेरी भूमिका सिर्फ प्रशासनिक कार्यों तक सीमित नहीं थी। मैं उन शब्द शिल्पियों का साक्षी था, जो अपने विचारों से समाज को नई दिशा दे रहे थे।
इसी जगह मैंने पहली बार लेखक साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी के दर्शन किए थे। उस वक्त उनकी उम्र करीब 93 साल थी। मुझे उन्हें इतने करीब से देखकर भरोसा नहीं हो रहा था कि मैंनै उनकी कहानियों को बचपन में स्कूल की किताबों में पढ़ा था। 

पड़ाव प्रकाशन में काम करना अपने आप में एक साहित्यिक यात्रा थी। हर किताब, हर पांडुलिपि के पीछे लेखक की मेहनत और सपनों की कहानी होती थी। मैं कार्यालय के दैनिक कामों को संभालता, लेखकों से संवाद करता, और उनके रचनात्मक सफर का हिस्सा बनता। उन पलों में मैंने सीखा कि साहित्य सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि भावनाओं और विचारों का जीवंत दस्तावेज़ है। राजुरकर जी कहा करते थे कि जब वे छोटे थे, तो किताबें पढ़ने पर उन्हें ऐसा एहसास होता था कि यह किताबें कोई ईश्वर ही लिखना होगा। लगभग मेरी भी भावनाएं कुछ ऐसी थी। क्योंकि मैं मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव तंसरामाल में पला- बढ़ा था। 
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो "आसपास की याद आ गई" । वो सुबहें, जब मैं कार्यालय में सबसे पहले पहुंचकर मेज़ पर बिखरी पांडुलिपियों को सहेजता। वो दोपहरें, जब लेखकों के साथ चाय की चुस्कियों के बीच साहित्यिक चर्चाएं होतीं। और वो शामें, जब नया अंक छपकर आता और हम सब उसकी सफलता पर गर्व करते। ये यादें मेरे लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं। आज सोचता हूं तो लगता है कि भोपाल में बिताया मेरा समय, मेरे जीवन का सबसे अनमोल क्षण है। चाहे वह समय मात्र तीन-चार साल का क्यों ना रहा हो। 

“शब्द शिल्पियों के आसपास” और पड़ाव प्रकाशन ने मुझे न सिर्फ़ एक पेशेवर के रूप में गढ़ा, बल्कि एक इंसान के रूप में भी समृद्ध किया। आज भी जब मैं कोई किताब खोलता हूं या कोई कविता पढ़ता हूं, उन दिनों की गूंज मेरे कानों में सुनाई देती है। सचमुच, आसपास की याद आ गई... और मन फिर से उन गलियों में खो गया।

~~पत्रकार रामकृष्ण डोंगरे~~

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