आज ही के दिन (चार फरवरी 1950), जब सूरज ने अपनी पहली किरणें फैलाईं, मेरे पिताजी का जन्म हुआ था। यदि वे आज हमारे बीच होते, तो 75 वसंत देख चुके होते।
मेरे पिताजी, श्री संपतराव डोंगरे, अब हमारे बीच नहीं हैं; वर्ष 2006 में हृदयाघात ने उन्हें हमसे छीन लिया।
एक किसान के बेटे, ईमानदारी की मूर्ति, जिन्होंने स्वास्थ्य विभाग में नौकरी की थी, लेकिन समाज और रिश्तेदारों की आलोचना की आँधी में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था।
यदि मैं अपने आप से पूछूँ कि मैं अपने पिता को कैसे याद करता हूँ, तो मुझे कई घटनाएँ याद आती हैं, पर कुछ विशेष क्षण हैं जो मेरे दिल में गहरे उतरे हैं।
पहली कहानी है-
जब मैं बहुत छोटा था, स्कूल में पढ़ता था। स्कूल की फीस के लिए जब मुझे कुछ रुपए चाहिए होते थे, तो मैं पिताजी की जेब से रुपये लेता और एक पर्ची पर लिख देता कि "पिताजी, मुझे स्कूल की फीस के लिए इतने रुपए लेने पड़े।"
एक दिन, स्कूल से लौटते हुए, मैंने उन्हें मेरे गांव तंसरामाल के पान ठेले पर बैठे पाया। वह अपने मित्रों को बता रहे थे, "मेरा बेटा कितना ईमानदार है, जब वह मेरी जेब से पैसे निकालता है तो कागज पर लिखकर रखता है कि कितने रुपए निकाले और क्यों।"
यह किस्सा मेरे मन में हमेशा के लिए अंकित है।
एक और स्मृति है - - -
जब हम सभी भाई और मोहल्ले के बच्चे, टीवी देखने के लिए लगभग आधा किलोमीटर दूर जाते थे। वह दौर था, जब टीवी पर रामायण और महाभारत का प्रसारण होता था, और हमारे मोहल्ले में नया-नया टीवी आया था।
हम न सिर्फ इन सीरियलों को, बल्कि चित्रहार और अन्य सामान्य टीवी धारावाहिक भी देखते थे।
एक रात, मूवी देखकर लौटते समय, अंधेरे में एक बड़े लड़के ने हमें डराया, जिससे मेरे बड़े भाई को गहरा सदमा लगा। वे रात में बार-बार उठ जाते और रोने लगते थे।
अगले दिन, पिताजी ने छिंदवाड़ा से एक नया टीवी लाकर हमारे घर को खुशियों से भर दिया।
फिर वह दिन याद आता है-
जब मैं भोपाल में काम और पढ़ाई कर रहा था। मुझे एक मोबाइल खरीदने के लिए 4000 रुपए चाहिए थे, लेकिन मेरे पास न तो बैंक खाता था और न ही एटीएम कार्ड।
पिताजी गांव से छिंदवाड़ा और फिर ट्रेन में बैठकर भोपाल आए, पूरी रात जागकर, ताकि उनके पास के पैसे चोरी न हों।
जब वे मेरे छोटे से कमरे में पहुंचे, तो मैंने उन्हें टिफिन का खाना खिलाया। इस दौरान उन्होंने मुझे यह कहानी सुनाई, जो मुझे आज भी रुला देती है। 😭😭😭
1998 में जब मैंने गांव छोड़ा, तब से मेरा मन पैतृक ग्राम तंसरामाल, उमरानाला और छिंदवाड़ा शहर की यादों में डूबा रहता है।
गांव से आते समय, दादी ने पूछा था,
"क्या तुम वापस नहीं आओगे?"
मां ने हमें सिखाया था कि अपना भविष्य बनाने के लिए बाहर जाना जरूरी है, और हम उनके मार्गदर्शन में आगे बढ़ते गए।
मुझे इस बात का दुख है कि मैं अपने पिता को अधिक वक्त नहीं दे पाया, और 2006 के उस मनहूस दिन, 15 नवंबर को, उन्हें हार्ट अटैक आया और वे हमेशा के लिए हमें छोड़कर चल बसे।
तब वे केवल 56 वर्ष के थे।
मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में पढ़ रहा था, जब मुझे उनकी तबीयत की खबर मिली।
मैं भोपाल से पिपरिया तक ट्रेन से, फिर बस से छिंदवाड़ा पहुंचा, और अंत में गांव। उन्हें देखकर मेरा दिल टूट गया, और मैं दहाड़ मारकर रो पड़ा।
एक बच्चे के लिए, पिता का साथ छूटना बहुत दुखद होता है, खासकर जब वह सुख न दे पाए।
पिता के बारे में बातें, यादें और कहानियां तो बहुत हैं, लेकिन उनकी कोई विशेष सीख मुझे याद नहीं आती। भारतीय परिवारों में पिता और बच्चों के बीच संवाद कम होता है, जबकि मां से गहरा जुड़ाव रहता है। माँ की बातें सदा याद रहती हैं, पर मेरे लिए, मेरे पिता भगवान के समान थे।
#ramkrishnadongre #डोंगरे_की_डायरी #father #fatherlove #mydaddymyhero #MyChildhoodStory #tansaramal
#dongrejionline #dongredigitalfamily
#daksh #DakshDongre #dhanushree #dongre #डोंगरजी #उमरानाला #छिंदवाड़ा #मेरागांवतंसरामाल #मोहखेड़ #radheshyam
#viralpost2025シ #viralpost2025
#viralpost #fb #fbpost #fbpostviral
#BMW #bmwe #dakshsvlog
No comments:
Post a Comment