दस मार्च उन्नीस सौ चौबीस मोहखेड़ में जन्में थे संपतराव धरणीधर।
इन्हें प्रोत्साहित करने वाले थे, पिता इनके श्री बापूराव उर्फ तुकड़ों जी धरणीधर।
मात्र एक वर्ष की आयु में छोड़ गयी थी, माता इनकी अनुसुईया जी धरणीधर।
पढ़ाई के लिए भटके थे आप, कभी मोहखेड़, कभी छिन्दवाड़ा तो कभी नागपुर।
बी.ए. की उपाधि हासिल की थी आपने, उन्नीस सौ पैंसठ में विश्वविद्यालय सागर से।
उब्बीस सौ छियालिस, सेण्ट्रल जेल नागपुर में, 'मुझे फाँसी पे लटका दो...' गाते थे जोर-शोर से।
उल्नीस सौ छियालिस में ही मोहगांव स्कूल में, एक वर्ष अंग्रेजी शिक्षक रहे श्री धरणीधर ।
उन्नीस सौ अइतालिस से तक चौरई हाईस्कूल में, अध्यापन कार्य में लगे रहे श्री धरणीधर ।
उन्नीस सौ पचहत्तर में जुट गये थे पूर्णतः साहित्य साधना में।
स्थानीय कलेक्ट्रेट से क्लर्क के कार्य से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर।
बालक संपत की पहली रचना हुई थी प्रकाशित, 'बालक' श्री संतराम बी. ए. के अखबार में।
तभी से डटे हुए हैं धरणीधर, साहित्य साधना के दरबार में।
इनका नहीं कोई घर-द्वार, फिर भी नहीं करते ये किसी से कोई तकरार |
उन्नीस सौ नब्बे दिल्ली में सम्मानित हुए थे धरणीधर, डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार से।
उन्नीस सौ चौरासी में चुने गये थे धरणीधर, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से प्रदेश के साहित्यकार में।
बीते आठ वर्षों से जिला चिकित्सालय छिन्दवाड़ा में डाले अपना डेरा पड़े हैं मझधार में।
आज भी होती है इनकी गिनती, सतपुड़ा के महान साहित्यकार में।
इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'किस्त-किस्त जिंदगी' और 'महुआ केसर'।
आज भी करते हैं, रचना धरणीधर, ताजा-तरीन है इनकी रचना 'अपनी मौत पर'।
धर्म, साहित्य, कला, राजनीति, या हो कोई अन्य विषय रखते हैं ये अपने विचार, तब गर्व महसूस होता है हमें इनकी सोच पर।
याद रखें इनको हर शख्स कहता है ये 'तृष्णा' क्योंकि इनके जैसा नहीं कोई दूसरा साहित्य जगत का मुरलीधर।
ये है 'बाबा' हमारे श्री संपतराव धरणीधर
©® रामकृष्ण डोंगरे "तृष्णा", कला तृतीय वर्ष, डीडीसी कॉलेज, साल 2002
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