"रिश्ते-नाते सब हों, लेकिन भूख से बिलबिलाते या फिर अभावों में जीते, छोटी-छोटी खुशियों के लिए तरसते क्या हम प्यार कर सकते हैं? बच्चे को प्यार करें और उसे खराब स्थिति में देखें तो क्या अच्छा लगेगा? मां-बाप को ही प्यार करें और उनका टूटा चश्मा बनाने के लिए पैसे न हों, तो अच्छा लगेगा?"
अक्सर प्यार, पैसे और रिश्तों की तुलना होते हुए आपने सुना होगा. अधिकतर लोगों का कहना है कि रिश्तों और प्यार से बढ़कर कुछ भी नहीं होता है, लेकिन कभी-कभी मेरे मन में कई ख्याल आते हैं, तो सोचा कि आपसे भी इन्हें बांटूं और आपकी भी राय इस पर जानूं...
दरअसल परिवार की शुरुआत होती है विवाह नाम की संस्था से, क्योंकि विवाह होगा, तभी संतान होगी, फिर वही पति-पत्नी माता-पिता बन जाएंगे और फिर जब उनके बच्चे बड़े होंगे तब वे अपना परिवार कहेंगे अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी/पति और फिर उनकी खुद की संतान को...
अब आते हैं प्यार और पैसे पर.. हम जैसे ही जन्म लेते हैं वैसे ही हमें लगती है भूख, जिसके लिए चाहिए दूध तो वो दूध आता है पैसे से... क्योंकि मां की छाती में भी दूध तभी उतरता है जब उसे पौष्टिक या फिर चाहे जैसा भी आहार मिला हो, तो वो भोजन भी आता है पैसे से... इससे भी पहले जब महिला गर्भवती होती है, तो सबसे पहले उसे डॉक्टर को दिखाने की जरूरत होती है और डॉक्टर को देनी पड़ती है फीस .. फीस मतलब पैसा.. अगर आप सरकारी अस्पताल में निःशुल्क इलाज कराने भी जाएं, तो ऑटो या रिक्शा करने के लिए चाहिए होगा पैसा... दवाई लाने के लिए चाहिए होगा पैसा.. 9 महीने महिला को अच्छी देखभाल यानि अच्छा आहार मिले, तो उसके लिए भी चाहिए पैसा. जब बच्चे के जन्म का समय आया, तो फिर अस्पताल में भर्ती होने के लिए चाहिए पैसा.. बच्चा पैदा हो गया, उसे पहनाने के लिए कपड़ा चाहिए, उसकी दवाई चाहिए, टीकाकरण चाहिए, तेल-पाउडर शैंपू चाहिए, इन सबके लिए चाहिए पैसा.. मां स्वस्थ हो पाए, तो उसे अच्छा खिलाने के लिए, कंफर्ट फील कराने के लिए चाहिए पैसा.. बच्चे को जब भूख लगती है, उस वक्त मां का अथाह प्रेम भी सिर्फ थोड़ी देर ही उसे चुप करा सकता है.. उसे सबसे पहले चाहिए दूध.. इसका मतलब कि जब पेट भरा होता है, जरूरतें पूरी रहती हैं, तभी आप प्रेम को भी महसूस कर पाते हैं. भूख से तड़पने पर केवल खाना चाहिए होता है, उस वक्त न तो किसी का प्रेम अच्छा लगता है और न तो किसी की बातें...
जब बच्चा थोड़ा सा बड़ा हुआ तो उसे पढ़ाने के लिए चाहिए पैसा.. स्कूल भेजने के लिए चाहिए पैसा.. किताब-कॉपी खरीदने के लिए चाहिए पैसा... उसके खिलौने खरीदने के लिए चाहिए पैसा... किसी अलग तरह के फील्ड में करियर बनाना चाहता हो तो उसकी कोचिंग के लिए चाहिए पैसा.. बच्चा जब बड़ा होता है और जब नौकरी के लिए फॉर्म भरना हो तो चाहिए पैसा, जॉब इंटरव्यू के लिए जाना हो तो पैसा.. वर्क फ्रॉम होम करना हो, तो लैपटॉप के लिए चाहिए पैसा.. बात करने के लिए मोबाइल चाहिए वो आएगा पैसे से...
जब बच्चे की शादी करनी हो, तो लड़का या लड़की ढूंढने के लिए या फिर बात-वात चलाने के लिए इधर-उधर जाना पड़ता है, उसके लिए चाहिए पैसा.. शादी तय हो गई, तो शादी करवाने के लिए चाहिए पैसा.. गृहस्थी शुरू कराने के लिए जो सामान देते हैं उसके लिए चाहिए पैसा.. भोज-भात कराने के लिए चाहिए पैसा.. बेहतर जिंदगी के लिए भी चाहिए पैसा... माता-पिता बुजुर्ग हो जाते हैं उनकी देखभाल, उनके भोजन-दवा के लिए भी चाहिए पैसा...
रिश्ते-नाते सब हों, लेकिन भूख से बिलबिलाते या फिर अभावों में जीते, छोटी-छोटी खुशियों के लिए तरसते क्या हम प्यार कर सकते हैं? बच्चे को प्यार करें और उसे खराब स्थिति में देखें तो क्या अच्छा लगेगा? मां-बाप को ही प्यार करें और उनका टूटा चश्मा बनाने के लिए पैसे न हों, तो अच्छा लगेगा?
हर मां-बाप ये क्यों सोचते हैं कि बच्चे का करियर अच्छा बन जाए.. अच्छा करियर मतलब जिसमें अच्छे पैसे मिलते हों.... अच्छा खाए स्वस्थ रहे.. अच्छा खाना दूध-फल अनाज सबके लिए चाहिए पैसा....
न्यूज की हेडलाइन बनती है-
रिक्शेवाले का बेटा बना कलेक्टर,
खुद से लिखी अपनी तकदीर
या
चौकीदार की बेटी जाएगी IIT,
गरीबी को मात देकर बनाया भविष्य
ये हेडलाइन कहां बनती है...
रिक्शेवाले के बेटे ने पाए बहुत अच्छे संस्कार,
कभी नहीं बोलता है झूठ
अंबानी के बेटे ने पकड़ी
ईमानदारी की राह, सादा जीवन उच्च विचार
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यहां भी अच्छा करियर, सुनहरे भविष्य के पीछे का मतलब पैसा और उसके साथ मिलने वाला पावर ही है...
अरे, लड़की की तो किस्मत ही चमक गई.. गरीब की लड़की इतने अच्छे (अमीर) घर में चली गई...
यानी गरीब की लड़की की किस्मत भी तभी चमकती हुई मानी जाती है, जब अच्छा कमाने-खाने वाला लड़का मिल जाए...
रिश्ते संतोष देते हैं, प्यार खुशी देता है, लेकिन उसे एंजॉय तभी किया जा सकता है, जब पैसे से बुनियादी जरूरतें (ठीकठाक भोजन, छोटा मगर अच्छा आवास, करियर ओरिएंटेड शिक्षा, ढंग के कपड़े और सुविधासहित चिकित्सा) पूरी हो चुकी हों...
मैं खुद को तब रिलैक्स फील करती हूं, जब खा-पीकर, नहा-धोकर बच्चे को बढ़िया ऑनलाइन क्लास करते हुए देखती हूं, तब लगता है अब शांति से बैठती हूं.. लेकिन खा-पीकर यानी अनाज आया पैसे से, नहा-धोकर यानी साबुन-शैंपू आया पैसे से यहां तक कि वॉटर भी आया पैसे से, क्योंकि कॉलोनी मेंटेनेंस में इन्क्लूडेड है... ऑनलाइन क्लास यानी बच्ची के पास मोबाइल है, जो आया है पैसे से.. इतना सबकुछ हो जाने के बाद अब रिलैक्स हो सकी...
कहीं घूमने जाना है तो चाहिए पैसा (जगह सस्ती-महंगी हो सकती है), किसी के यहां शादी-छठी, बर्थडे में भी जाना हो तो चाहिए पैसा, रिश्तेदारों के यहां जाना हो तब भी चाहिए पैसा..
आखिर में मरने के बाद कफन के लिए भी चाहिए पैसा... श्मशान ले जाने के लिए जो चचरी बनेगी उसके लिए भी चाहिए पैसा... जलाने के लिए चाहिए लकड़ी वो आएगा पैसे से.. पंडित क्रियाकर्म कराएगा... उसके लिए लेगा दक्षिणा यानी पैसा....
अब पता नहीं कि पैसा महत्वपूर्ण है या इंसान.. रिश्ता या प्रेम... अगर आपलोग कुछ प्रकाश डाल सकें तो बताएं...
बाकी मकर संक्रांति की बहुत-बहुत शुभकामनाएं...
और हां, जो दही-चूड़ा, तिल-लाई, खिचड़ी जो भी खाई हूं,
उन सबमें भी लगा है पैसा...
(ये आलेख वरिष्ठ पत्रकार प्रज्ञा प्रसाद के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है। प्रज्ञा मूलतः पूर्णिया बिहार की रहने वाली है। वे डेढ़ दशक से ज्यादा समय से पत्रकारिता में सक्रिय है। दूरदर्शन, ईटीवी, ईटीवीभारत, आईबीसी24 में अपनी सेवाएं दे चुकी है। फिलहाल रायपुर में न्यूज24 मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के साथ जुड़ी हुई है।)
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