गिरमिटिया बनते बिहारी
विश्वनाथ सुमन
पुराने आंकड़ों पर गौर करें बिहार से बाहर पलायन करने वालों में कोसी क्षेत्र के लोग अधिक हैं। 1954 में कोसी बैराज बनने के बाद अभी तक चार बार तटबंध टूट चुका है और पिछले 50 वर्षों में इस क्षेत्र के लोग पलायन करने वालों में शामिल हैं।
आशंका जताई जा रही है कि इस साल भी इस क्षेत्र से ही पांच लाख लोग उद्योगों वाले शहर में पहुंचेंगे, काम की तलाश में। कहीं काम नहीं करेंगे तो करेंगे क्या? सरकार के पास ऐसी योजना नहीं है, जो इनके कदम रोक ले।
1834 में अंग्रेजों की ज्यादती के कारण पहली बार बिहार के कुछ लोग गिरमिटिया बने, अब कुदरत के कहर और सरकार की उपेक्षा के कारण गिरमिटिया बन रहे हैं, वह भी अपनी मर्जी से। आखिर जीना तो सभी चाहते हैं।
अथ बिहार कथा ...
बाढ़ ने ही बीमारू राज्य बना दिया बिहार को
प्रत्येक वर्ष करीब 55 लाख बिहारी दूसरे राज्यों में रोजी रोटी तलाशने निकलते है
प्लानिंग कमीशन की मानें तो बिहार की 42.6 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रही
एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार की 82 प्रतिशत श्रमिक कृषि, मछली पालन सहित प्राइमरी सेक्टर से जुड़े हैं
बिहार फिर मुसीबत में हैं। इस राज्य के 16 जिले कोसी के कहर की चपेट में हैं। करीब 755 गांवों के 25 लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से इस विभिषिका से प्रभावित हैं। टूटी रेल पटरियां, सिर पर गठरी लेकर सुरक्षित ठिकाने की तलाश करते वृद्ध और महिलाएं, जलमग्न खेत, दशहत और बेबसी की कहानी कहतीं इस तरह कितनी तस्वीरें अखबारों के पन्नों पर दिख रहे हैं।
खबरिया टीवी चैनलों में इस भयावह आपदा के दृश्यों को देखकर लोग सिहर जाते हैं। हालात दिन ब दिन बदतर होते जा रहे हैं। बाढ़ में फंसे लोग दो जून की रोटी और पानी के लिए तरस रहे हैं। अब तो बाढ़ से घिरे लोग ही नहीं, दूर परदेस में बैठे लोग भी यह सोचने को मजबूर हो गए कि यह बुरे दिन कब खत्म होंगे। रोज बढ़ रहे कोसी के कहर और सरकारी इंतजामात से यह नहीं लगता है कि यह विपदा जल्द ही खत्म हो जाएगी। इसलिए लोगों ने पलायन करना भी शुरू कर दिया है।
हालांकि यह इस प्रदेश के लिए बाढ़ और पलायन कोई नई समस्या नहीं है। शायद ही कोई ऐसा वर्ष बीता हो, जब बाढ़ ने विकराल रूप नहीं दिखलाया हो।
पिछले वर्षों में कमला, बलान, गंडक, बागमती और अधवारा समूह की नदियां उत्तर बिहार को जलमग्न करती रहीं हैं। बाढ़ ने ही इस राज्य को बीमारू बना दिया और इसका नतीजा यह रहा है कि प्रत्येक वर्ष करीब 55 लाख बिहारी दूसरे राज्यों में रोजी रोटी तलाशने निकल जाते हैं।
प्रदेश के 35 जिलों में से 24 जिले कमोवेश बाढ़ प्रभावित रहे हैं। इनमें से 11 जिलों में तो हर साल बाढ़ पैर पसार ही लेती है। कुल मिलाकर बिहार का 73.6 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ से ग्रस्त है। यहां के सिर्फ पांच जिले ही ऐसे हैं, जहां बाढ़ और सूखा का प्रकोप नहीं होता है।
जाहिर तौर पर बाढ़ और सूखे की वजह से फसलें भी चौपट होती रहीं हैं और लोग रोजी-रोटी की तलाश में भागते रहे हैं शहरों की ओर। इस बार भी स्थिति और भी विकराल है और इसका असर काफी लंबे समय तक रहेगा। इस कारण इस बार घर छोड़कर परदेस जाने वालों की तादाद काफी बढ़ेगी। फिर जाएंगे दिल्ली, हरियाणा, मुंबई, सूरत, लुधियाना और इंदौर। खेतिहर श्रमिकों की कमी से जूझ रहे पंजाब और हरियाणा को मजदूर आसानी से मिल जाएंगे। दिल्ली और लुधियाना में बिहार के मजदूरों की खेप आनी शुरू हो गई है। कई परिवार के साथ आए तो कई परिवार को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ आए । इस उम्मीद के साथ कि जब वापस जाएंगे तो उनकी जरूरतों को पूरा कर लेंगे। इस दौरान ये श्रमिक कहीं भी, कैसे भी के आधार पर गुजारा कर लेंगे।
इस बीच क्षेत्र विशेष में वहां के उपराष्ट्रवाद और उनके सियासी गुस्से को झेल लेंगे। इसके सिवा उनके पास चारा ही क्या है। इन दिनों उनका साथ उनके पुराने परिचित दे रहे हैं जो उनसे पहले घर छोड़ चुके हैं। पुराने आंकड़ों पर गौर करें बिहार से बाहर पलायन करने वालों में कोसी क्षेत्र के लोग अधिक हैं। 1954 में कोसी बैराज बनने के बाद अभी तक चार बार तटबंध टूट चुका है और पिछले 50 वर्षों में इस क्षेत्र के लोग पलायन करने वालों में शामिल हैं।
आशंका जताई जा रही है कि इस साल भी इस क्षेत्र से ही पांच लाख लोग उद्योगों वाले शहर में पहुंचेंगे, काम की तलाश में। कहीं काम नहीं करेंगे तो करेंगे क्या? सरकार के पास ऐसी योजना नहीं है, जो इनके कदम रोक ले। प्लानिंग कमीशन की मानें तो बिहार की 42.6 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रही है। राज्य के अन्य जिलों की अपेक्षा कोसी परिक्षेत्र में ही बीपीएल परिवारों की तादाद अधिक है। उदाहरण के तौर पर अररिया की 78.6 फीसदी आबादी बीपीएल पैमाने के नीचे गुजर बसर कर रही है। इंडियन इन्स्तित्युत ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट के अनुसार बिहार की 82 प्रतिशत श्रमिक कृषि, मछली पालन सहित प्राइमरी सेक्टर से जुड़े हैं। कल कारखाने हैं नहीं। 2006-07 में इंडटि्रयल डिवेलपमेंट रेट 5.5 फीसद रही (जबकि नैशनल रेट 20.1 है )।
ऐसे हालात में प्राकृतिक आपदा से घिरा यह तबका क्या करें? हाथ पर हाथ धरकर कब तक सरकार की राहत का इंतजार करे? हालांकि इस श्रम पलायन का खामियाजा खुद बिहार को ही उठाना पड़ रहा है। विधानसभा में पेश इननॉमिक सवे 2006-07 मे जब खुलासा हुआ कि पिछले एक साल में खाद्यान्न का उत्पादन स्तर 26.4 फीसदी तक गिर गया है। इसके बावजूद सरकार को कम होती श्रम शक्ति का एहसास नहीं हुआ।
फिलहाल दु:ख की इस घड़ी में पूरा देश बिहार के साथ खड़ा दिख रहा है। हर तरफ से मदद के हाथ बढ़ रहे हैं। मगर इस राज्य के पलायन की समस्या को भी बाढ़ और सूखे की मार से अलग करके देखना सही नहीं होगा। कोई भी अपना घर, अपना गांव नहीं छोड़ना चाहता है और न ही परदेस में दर-दर की ठोकरें खाना।
1834 में अंग्रेजों की ज्यादती के कारण पहली बार बिहार के कुछ लोग गिरमिटिया बने, अब कुदरत के कहर और सरकार की उपेक्षा के कारण गिरमिटिया बन रहे हैं, वह भी अपनी मर्जी से। आखिर जीना तो सभी चाहते हैं।
अब इस पलायन को रोकने की जिम्मेदारी भी समाज और सरकार को मिलकर उठानी होगी।
दो महत्वपूर्ण क्षेत्र में सहयोग और सुविधा से प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त बिहार की इस समस्या का निदान हो सकता है। पहला वहां की कृषि संबंधी सुधार किए जाएं । दूसरा वहां शिक्षा की बेसिक और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारा जाए। शायद बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर के डिवेलप होने के बाद घर छोड़ने वालों के कदम देहरी छोड़ने से पहले ठिठकेंगे तो सही।
विश्वनाथ सुमन
(लेखक दिल्ली के एक राष्ट्रीय अखबार में कॉपी एडिटर के रूप में कार्यरत है . इन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल से वर्ष 2005 में मास्टर ऑफ़ जर्नलिज्म का कोर्स भी किया है . खास बात ये है की लेखक ख़ुद उस राज्य के मूल निवासी है जिसकी कहानी वे बयां कर रहे है .)
1 comment:
आभार इसे पेश करने का!
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