Tuesday, June 21, 2022

Gust Writer : गुजरातियों के छत्तीसगढ और मध्य प्रान्त में आने की कहानी


डाॅ. परिवेश मिश्रा 
सन् 1882 में नागपुर से राजनांदगांव के बीच जब मीटरगेज रेल लाईन बिछाने का काम शुरू हुआ तब बीच का इलाका घने जंगलों और नदी नालों वाला, किन्तु आमतौर पर सपाट था। लाईन आसानी से बिछ गयी। सिर्फ एक हिस्सा छूट रहा था। गोंदिया के पास जहां मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र की सीमाएं मिलती हैं, वहां पहाड़ था और बिना सुरंग (बोगदा) बने लाईन नहीं जा सकती थी। 

प्रचलित कहानी के अनुसार बड़े इंजीनियर ने दीवार पर टंगे नक्शे पर निशान लगाते कर कहा था यहां से पहाड़ खोदना शुरू करो। किन्तु युवा अंग्रेज़ इंजीनियर अनुभवहीन था और काम शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसे किसी जबर्दस्त मोटिवेशन की आवश्यकता थी। सो बड़े ने सुझाव दिया :  कल्पना करो कि पहाड़ के उस पार तुम्हारी पत्नी खड़ी है। तुम्हे वहां पहुंचना है और उसे "किस" करना है। लेकिन इंजीनियर के लिए हिम्मत जुटाना आसान नहीं था। काम शुरू करने से पहले मजदूरों ने अपने साहब को दसियों बार बड़बड़ाते सुना - "शैल आय किस हर ?" "शैल आय किस हर ?" (मैं उस छोर को "किस" कर पाऊंगा?)। युवा इंजीनियर के तमाम अविश्वास और शंकाओं के बावज़ूद काम शुरू हुआ। तब तक यह वाक्य, मजदूरों की अपनी जुबान में, उनके उच्चारण में, उनका नारा बन गया था। 

और एक दिन मजदूरों ने वह पत्थर हटाया जिसके दूसरी ओर रौशनी थी, सिरा मिल गया था। युवा इंजीनियर खुशी के मारे चीख उठा -"देयर आय किस हर" ( मैंने सही सिरा चूम ही लिया)। खुश मजदूर भी थे। उनके बीच भी नारा उठा, उनकी जुबान में, - "देअर आय किस हर"। पहले छोर की तरह यहां भी मजदूरों की दूसरी बस्ती बसी। दोनों बस्तियों के स्थान पर - सुरंग के दोनों सिरों पर - स्टेशन बने। इनके नाम मजदूरों ने पहले ही तय कर दिये थे। सलेकसा (शैल आय किस हर) और दरेकसा (देअर आय किस हर)। 

नागपुर-राजनांदगांव सेक्शन शुरू होते ही छत्तीसगढ को अपना घर बनाने वाले गुजरातियों के आगमन का मार्ग खुल गया। 
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उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का समय, विशेषकर 1870 के बाद का, गुजरातियों के लिए बहुत कष्ट का दौर था। सूखे और अकाल के इन वर्षों में अंग्रेज़ों के व्यवसायिक लालच का दुष्परिणाम कृषि पर दिखने लगा था। आमदनी के स्रोत घटने पर राज्य ने भूमि, नमक और शराब पर टैक्स अनाप-शनाप बढ़ा दिये थे। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से लड़ाई हारते हज़ारों परिवार गुजरात छोड़ने के लिए मजबूर हुए। उन्नीसवीं सदी के "द ग्रेट इंडियन माईग्रेशन" में बड़ी संख्या में गुजराती समुद्र पार गये। लेकिन उतनी ही संख्या में लोगों ने देश के भीतर पूर्व की दिशा में - बंगाल और बर्मा तक - पलायन किया। ऐसे लोगों का बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ों के सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज़ (सी.पी.) में आया। 

सन 1870 में जब नागपुर और मुम्बई के बीच रेलमार्ग बनना शुरू हुआ, तब तक नागपुर से आगे छत्तीसगढ की ओर रेल लाईन लाने का अंग्रेज़ों का कोई ठोस इरादा नहीं बन पाया था। लेकिन यहां लाईन जनता की मांग के कारण नहीं बल्कि अंग्रेज़ों की मजबूरी और उनके स्वार्थ के चलते आयी। मध्य प्रान्त में रेल लाना अपरिहार्य हो गया था।  
* दो रेल पटरियों को जोड़ने के लिए बीच में बिछाई जाने वाली पट्टी - रेल्वे स्लीपर - जो अब कांक्रीट की होती हैं, कुछ समय पहले तक लोहे की और उससे भी पहले - शुरुआती दौर में - लकड़ी की बनी होती थी। वनों को काटकर बड़े वृक्षों से स्लीपर बनाये जाते थे। भारत भर में इनकी भारी मांग थी और अधिकांश जंगल मध्य भारत में थे। इंजिन भाप से चलते थे और इसी इलाके में कोयला के भंडार भी थे। 

* छत्तीसगढ के महानदी कछार में, विशेषकर धमतरी-राजिम-कुरुद इलाके में सरप्लस धान पैदा हो रहा था। इसे गुजरात जैसे उन इलाकों में भेजा जा सकता था जहां के खेत अफ़ीम, कपास, तम्बाखू और नील से पाट दिये गये थे और जहां खाने के लिए अनाज नहीं था। साथ ही यहां की वनोपजों का तब तक व्यापारिक दोहन शुरू नहीं हुआ था लेकिन इसकी असीम सम्भावनाएं जगजाहिर थी। प्रमुख था तेन्दू पत्ता जिससे बीड़ी बनती थी। 

इस पृष्ठभूमि में नागपुर और राजनांदगांव के बीच रेल लाईन की शुरुआत हुई थी। बनाने की जिम्मेदारी दी गयी सी.पी. सरकार की छत्तीसगढ स्टेट रेल्वे को (1888 में बंगाल-नागपुर रेल्वे ने इसे खरीदकर ब्राॅडगेज में बदला और हावड़ा से जोड़ा)। 
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गुजरातियों की कहानी रेल लाईन, वनोपज, चावल मिलों और बीड़ी के बिना बताना संभव नहीं है। 

यहां "गुजराती" शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त है जिनकी भाषा, बोली, खान-पान की पद्धतियां, जीवन-शैली आदि समान थीं। लेकिन एक और समानता इन्हे आपस में बांधती थी। ये सारे परिस्थितियों के मारे, मजबूरी में, अपनी जड़ों से उखड़कर आजीविका की तलाश में यहां आये थे। सब ने गरीबी देखी थी। कुछ ने भुखमरी की हद तक। अनेक के पास हुनर और सब के पास भविष्य के लिए सपने और विश्वास था। इन गुजरातियों में जैन, वैष्णव हिन्दू, पाटीदार, कच्छी मेमन, खोजा, पारसी और दाऊदी बोहरा परिवार शामिल हैं। केवल एक समुदाय था जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत खुशहाल था। फिर भी बेहतर भविष्य की तलाश में बाहर निकला था। यही वह समाज था जो बाकी गुजरातियों की उंगली पकड़ उन्हे रास्ता दिखाते इस इलाके में लाया था। यह समुदाय था "कच्छी गुर्जर क्षत्रिय" समुदाय। 
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गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र इलाके में बसे कच्छी-गुर्जर-क्षत्रिय समाज को निर्माण (कन्स्ट्रक्शन) और माईनिंग के क्षेत्र में पुश्तैनी महारत हासिल थी। जिन दिनों भारत में इंजीनियरिंग काॅलेज नहीं खुले थे, इस समाज के बच्चे पैदा होते ही, पिता, भाई और समुदाय के अन्य लोगों के साथ सिविल इंजीनियरिंग का काम सीखने में जुट जाते थे। और यह परम्परा सदियों से चली आ रही थी। कच्छ और सौराष्ट्र में महलों, किलों, नहरों आदि का निर्माण यही समाज करता आया था। समय के साथ देश में इनकी ख्याति आर्किटेक्ट और निर्माण-ठेकेदार के रूप में स्थापित हो गयी थी। स्थानीय लोग इन्हे "मिस्त्री" या "ठेकेदार" के रूप में संबोधित करते थे। कच्छ के राजा साहब के दिये धनोटी, कुम्भारिया, लोवारिया, मालपार, मेघपार, जैसे अठारह गांवों में बसा यह समुदाय राठौड़, सोलंकी, परमार, चौहान, सावरिया जैसी उपजातियों में बंटा रहा है। सरनेम का चलन आने पर अनेक लोग "मिस्त्री" शब्द का प्रयोग भी करते हैं। 
उन्नीसवीं सदी में गुजरात के दूसरे लोगों की तरह यह समुदाय भी बेहतर जीवन की संभावनाएं कच्छ के बाहर तलाश रहा था। 1850 के दशक में जब अंग्रेज़ों ने रेल निर्माण का फ़ैसला किया तो इस समुदाय ने लपक कर इस अवसर को जकड़ लिया और समय के साथ रेलमार्गों पर अपना लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया। सिन्ध और रावलपिंडी से लेकर असम और चेन्नई तक इन्होने रेल लाईनों में और झारखण्ड की कोयला खदानों तक में इन्होने ठेकेदारी की। किन्तु लेख की बढ़ती लम्बाई मुझे विवश करती है मैं फ़ोकस छत्तीसगढ और मध्य प्रान्त पर रखूं। 

रेल से पहुंचे गुजरातियों के शुरुआती जत्थे में अनेक मिस्त्री ठेकेदार परिवार थे। इनमें कुम्भरिया (कच्छ) के गंगानी परिवार के सात भाईयों का समूह भी था, जिनमें से एक भाई जगमल गांगजी सावरिया ने जयराम मंदान के साथ मिलकर 1890 में बिलासपुर का स्टेशन बनाया। इनमें वालजी रतनजी चौहान भी थे। जगमल सावरिया के बेटे मूलजी सावरिया के साथ साथ वालजी के बेटे जयराम वालजी चौहान को आगे चलकर अंग्रेज़ों ने "राय साहब" के ख़िताब से नवाज़ा। रेल्वे ने अपने ठेकेदार के सम्मान में बम्बई-हावड़ा लाईन पर बिलासपुर के पास एक स्टेशन पाराघाट का नाम बदलकर जयरामनगर रखा। टाटानगर के अलावा संभवतः यह एकमात्र स्टेशन है जिसका नाम अंग्रेज़ों ने किसी भारतीय पर रखा। सावरिया भाईयों में वालजी मेघजी सावरिया ने रायपुर का रेलवे-स्टेशन बनाया और वहीं बसे, श्यामजी गांगजी सावरिया ने रायगढ़ का स्टेशन बनाया और वहीं बसे और वस्ता गांगजी सावरिया ने खरसिया का स्टेशन बनाया। सिंगूरा गांव के रघु पान्चा टांक ने राजनांदगांव स्टेशन बनाया। बहुत लम्बी लिस्ट हैं मिस्त्री समाज के लोगों की उपलब्धियों की। 

गैर-मिस्त्री परिवार आमतौर पर धान/चावल और वनोपज (हर्रा, बेहरा, चिरौंजी, शहद आदि के अलावा मुख्य रूप से तेन्दू पत्ता) के व्यापार में रहे। ऐसे अधिकांश गुजराती कच्छ और सौराष्ट्र जैसी पृष्ठभूमि से आये थे और छत्तीसगढ के राजे-रजवाड़ों के माहौल में घुलमिल जाने में उन्हे परेशानी नहीं हुई। कुछ मदद अंग्रेज़ों ने भी की। 

जैसे सौराष्ट्र के राजकोट के पास उपलेटा से निकलकर आये हाजी अब्बाहुसैन हाजी मोहम्मद दल्ला जिन्होने शुरुआत सुहेला में की थी, वनोपज और चावल के व्यापार के साथ। पड़ोसी राज्य फुलझर के राजा साहब लालबहादुर सिंह जी से परिचय करा कर उन्हे राज्य मुख्यालय सरायपाली में बसाने में अंग्रेज़ मददगार रहे। बाद में इनका और राजा साहब का संबंध घनिष्ठ हुआ और हाजी अब्बाहुसैन के पुत्र हाजी अब्दुल सत्तार दल्ला बसना में स्थापित हुए। हाजी अब्दुल सत्तार के पुत्र डाॅ. अब्दुल रज़्ज़ाक (ऐ.आर.) दल्ला छत्तीसगढ के ख्यातनाम वरिष्ठ सर्जन हैं। अपनी पत्नी डाॅ. नूरबानो दल्ला तथा बहू डाॅ. तबस्सुम दल्ला के साथ रायपुर में ज़ुबेस्ता अस्पताल का संचालन करते हैं। सिकल-सेल बीमारी पर इनके किये काम की देश भर में प्रशंसा हुई है। 

युवा गुजराती गोरधनदास भगवानदास दोशी जी ने हर्रा का व्यवसाय करने के इरादे से धमतरी से जगदलपुर पहुंच कर बस्तर राजा साहब से जंगल ठेके पर ले लिया। किन्तु अनुभव न होने के कारण पहले ही साल गहरे नुकसान में चले गये। तब राजा साहब के सामने वकालत करने अंग्रेज़ अधिकारी ही आया। उसने समझाया कि यदि इस युवा को हतोत्साहित होने दिया गया तो आगे और कोई इतनी दूर जंगल में आये, इसकी संभावना कम ही है। गोरधनदास जी के लिये अगले दो साल तक जंगल टैक्स-फ्री कर दिया गया। उनका व्यवसाय चल निकला।  उस ज़माने में लगभग चालीस हज़ार वर्ग किलोमीटर के जंगल को एक अंग्रेज़ अधिकारी मात्र दो डी.एफ.ओ. और 12 रेन्जरों की मदद से संभालता था। गोरधनदास जी के बेटे श्री किरीट दोशी (श्री भूजीत दोशी के पिता) प्रख्यात पत्रकार रहे। इसी दोशी परिवार की श्रीमती जयाबेन धमतरी से विधायक रहीं। 

गुजरात के मेहसाणा इलाके से निकलकर खरसिया के पास बंजारी गांव में आकर बसे छन्नालाल मेहता के परिवार ने बिलासपुर से आगे की यात्रा बैलगाड़ी पर की थी। रायगढ़ के श्री यतीश गांधी की दादी श्रीमती समरत बेन और खरसिया के श्री हितेंद्र मोदी की दादी श्रीमती तारा बेन छन्नालाल मेहता जी की बेटियां थीं। 

हंसराज राकुण्डला जी के परिवार की बैलगाड़ी यात्रा रायपुर तक रेल पहुंचने के बाद हुई थी। वे रायपुर से कोई तेरह मील पर रसनी गांव में बसे। कुछ वर्षों के बाद- सन् 1901 में - रायपुर से धमतरी तक रेल लाईन बनी और धान की पैदावार बढ़ाने के लिए अंग्रेज़ों ने घमतरी के पास नदी पर एक बांध भी बना दिया। उद्धाटन करने पहुंचे सी.पी. के गवर्नर सर फ्रैंक जाॅर्ज स्ली। इंजीनियर ने सुझाव दिया नये बांध का नाम गवर्नर की पत्नी - मैडम स्ली  के नाम पर रखा जाये। सबने हामी भरी। और "मैडम स्ली" बांध उद्धाटित हो गया। समय के साथ "मैडम" और "स्ली" का स्थानीयकरण हुआ। अब यह बांध "माड़म सिल्ली" के नाम से जाना जाता है। खेती बढ़ी तो किसान मेढ़ों पर दाल उगाने लगे और राकुण्डला परिवार ने रसनी से वहां पहुंच कर पहली दाल मिल स्थापित कर दी। 

इन गुजरातियों ने छत्तीसगढ में चावल मिलों की स्थापना में भी अगुवाई की। सरायपाली-बसना की पहली मिल दल्ला परिवार ने, रायगढ़ के खरसिया के पास पहली मिल छन्नालाल मेहता के परिवार ने और सारंगढ़ की पहली चावल मिल पारसी खुदादाद डूंगाजी ने स्थापित की। 

गोंदिया से नैनपुर और वहां से जबलपुर जुड़ते ही तब तक गोंदिया पहुंचे गुजरातियों के लिए जबलपुर के साथ साथ आगे दमोह और सागर जैसे तेन्दूपत्ता से समृद्ध वनाच्छादित इलाकों में पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 

1919 में गुजरात के खैरा (नादियाड) ज़िले से छोटाभाई पटेल अपने बेटे जेठाभाई के साथ व्यवसाय करने गोंदिया पहुंचे। गुजरात में खैरा, वदोडरा और आणन्द ज़िलों में ही तम्बाखू ही मुख्य पैदावार होती रही है। कर्णाटक जैसे अन्य इलाकों की तम्बाखू जहां सिगरेट के लिए उपयुक्त माना जाता है, वहीं गुजरात की तम्बाखू बीड़ी के लिए प्रयुक्त होती रही है। अधिकांश तम्बाखू उत्पादक पाटीदार हैं। इन्होने अपने फ़र्म की एक शाखा मध्यप्रदेश के सागर में खोली और उसे अपना मुख्यालय बना लिया। लगभग एक दशक के बाद छोटाभाई के भतीजे मनोहरभाई भी गुजरात से आ गये और गोंदिया का काम भतीजे ने सम्भाल लिया। तम्बाखू गुजरात से मंगा कर यहीं बीड़ी बनाने और बेचने का क्षेत्र और काम बढ़ गया। एक समय इनकी 27 नम्बर (और बंदर छाप) बीड़ी देश की दूसरी सबसे अधिक बिकने वाली बीड़ी  थी। मनोहरभाई ने कम समय में बहुत सफलताएं पायीं। एक समय चालीस से अधिक फैक्ट्रियों में पांच से छह करोड़ बीड़ियां रोज बनती थीं। उनका अपना "सेसना" विमान और अपनी हवाई पट्टी भी थी। समय के साथ बीड़ी का चलन कम होता गया और छोटाभाई जेठाभाई के नाम पर शुरू हुए सीजे ग्रुप का कारोबार अब बीड़ी से हट कर दवा-उत्पादन, रियल एस्टेट, पैकेजिंग, फायनेन्स, और तेल के क्षेत्रों में फैल चुका है। लगभग साठ हज़ार लोग अब भी रोजगार पा रहे हैं। मनोहरभाई के बेटे हैं सांसद श्री प्रफुल्ल पटेल जो विदर्भ (महाराष्ट्र) के बीड़ी-किंग कहलाते हैं। 

सागर की फ़र्म छोटाभाई जेठाभाई ही कहलायी। हालांकि बाद में परिवार के मुखिया मणिभाई पटेल हुए किन्तु उनके परिवार के विट्ठल भाई पटेल को फिल्म गीतकार के रूप में अधिक प्रसिद्धि मिली। वे बाॅबी फ़िल्म में "झूठ बोले कौवा काटे" के अलावा अनेक गानों के रचयिता के रूप में याद किये जाते हैं। 

श्री मोहनलाल जबलपुर में सड़क के किनारे बैठकर बीड़ी बनाया करते थे। यह सन् 1902 की बात है। और फिर उन्होने अपनी बीड़ी को "शेर" ब्रैन्ड के साथ बेचना शुरू किया।  मेहनत रंग लायी और "मोहनलाल हरगोविंद दास"  देश की "नम्बर वन" बीड़ी उत्पादक फ़र्म बनी। मोहनलाल ने अपना कारोबार दत्तक पुत्र परमानन्द भाई को सौंपा। उनके बाद पुत्र श्रवण पटेल ने कमान सम्भाली। 
1930 के आसपास जिन दिनों मोहनलाल हरगोविंद दास फ़र्म अपना कारोबार बढ़ा रही थी, प्रभुदास भाई फ़र्म में मुनीम थे। उन्होने काम छोड़ अपना कारोबार शुरू किया। बेटों जसवन्तलाल और प्रह्लाद भाई ने कुछ समय पिता के साथ काम करने के बाद दमोह में एक बीड़ी फैक्टरी स्थापित की। एक समय ऐसा आया जब इनके "टेलीफोन" छाप की प्रतिदिन दस करोड़ बीड़ियां बनने लगीं और फ़र्म लगभग चार लाख रुपये प्रतिदिन एक्साइज ड्यूटी के रूप में पटाने लगी।  

रायपुर में डी.एम. ग्रुप रियल एस्टेट सेक्टर में बहुत बड़ा नाम है। डायालाल मेघजी भाई के नाम से स्थापित यह कम्पनी किसी समय अपनी मशहूर बादशाही बीड़ी के लिए जानी जाती थी। धमतरी के मीरानी परिवार की गोला बीड़ी हो या रायगढ़ के पास भूपदेवपुर की बाबूलाल बीड़ी, अनेक गुजराती परिवार बीड़ी उद्योग से जुड़े और सफल हुए। इनमें गैर-पाटीदार भी शामिल हैं। 
बीड़ी व्यवसाय में उतरे गुजरातियों में से अनेक मध्य प्रान्त की राजनीति में भी आये। आर्थिक सम्पन्नता के साथ साथ हज़ारों की संख्या में रोज़गार के लिये बीड़ी पर आश्रित ग्रामीण आमतौर पर इनके राजनैतिक करियर का आधार बने। उदाहरण अनेक हैं (पर स्थान कम है)। गुजराती समाज छत्तीसगढ और मध्य प्रान्त की संस्कृति में रच-बस जाने के बावज़ूद अपनी भाषा, खान-पान और सांस्कृतिक परम्पराओं को सहेज कर रखने में काफी हद तक सफल रहा है। इनकी जीवनशैली में सादगी आमतौर पर अब भी बरकरार है। 
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डाॅ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस 
सारंगढ़  

साभार : फेसबुक वाल
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