साल 2005-07 के बीच का एक किस्सा आपको सुनाता हूं. उस समय मैं भोपाल के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में एमजे की पढ़ाई कर रहा था. एक एजुकेशनल टूर या असाइनमेंट पर अपने क्लासमेट के साथ होशंगाबाद गया था। वहां नर्मदा मैया के दर्शन और घूमना-फिरना हुआ। ये सब अलग बात है। लेकिन मूल विषय पर आता हूं।
लौटते वक्त हम बस से आ रहे थे। जिस क्लासमेट के साथ मैं गया था वह अब इस दुनिया में नहीं है। हम दोनों जिस बस में सवार थे। उसी बस में कुछ लोगों ने हमसे बातचीत की। जब हमने उन्हें कहा कि हम पत्रकार है तो एक सज्जन बुरी तरह से अड़ गए। उन्होंने कहा कि नहीं, आप पत्रकार हो ही नहीं सकते।
हमने कहा - नहीं हम पत्रकार हैं. क्योंकि मैं खुद और मेरा साथी विश्वविद्यालय के छात्र होने के साथ ही पहले से ही कुछ अखबारों में काम कर रहे थे.
इसलिए हम जोर देकर कह रहे थे कि हम पत्रकार हैं...
अब वह बात समझ में आती है कि वे सज्जन क्यों ऐसा कह रहे थे कि आप पत्रकार नहीं हो।
प्रोफेशनली देखा जाए तो किसी का डॉक्टर, किसी का इंजीनियर, किसी का एक्टर का काम करना.. अलग बात होती है. और परिपक्व होना, अलग बात होती है.
हम जब प्रोफेसर कहते हैं तो अतिथि विद्वान की तरह, गेस्ट फैकल्टी की तरह क्लास में जाकर एक-दो लेक्चर दे देना ही प्रोफेसर कहलाने के लिए पर्याप्त नहीं होता.
प्रोफेसर मतलब अपने विषय का मास्टर।
इस संदर्भ में देखे तो अब कोई पत्रकार नजर नहीं आता। (एक दो अपवाद को छोड़कर). हम सब तो मीडिया हाउस के कर्मचारी है। जोकि ऊपर से मिले निर्देशों के अनुसार काम करते हैं।
पत्रकार तो किसी जमाने में होते थे, जो खुद की सुनते थे. और जैसा वे चाहते थे. वैसा लिखते थे. इंटरव्यू में वैसे ही सवाल करते थे. जैसा वे पूछना चाहते थे। आजकल के इंटरव्यू पूरी तरह से प्रायोजित और मैच फिक्सिंग जैसे होते हैं। या सिर्फ खुश करने वाले।
चाहे तो टेबल पर बैठकर ही लिख लो। तारीफ में लिख रहे हो तो छपने के बाद किसको खराब लगेगा। बुरा लगेगा। किसको आपत्ति होगी।
#फेसबुक_पोस्ट
20 जनवरी 2020
Sunday, January 19, 2020
मेरी फेसबुक पोस्ट : आप पत्रकार हो ही नहीं सकते...
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