इस फिल्म के अंत में एक जगह अलाउद्दीन खिलजी कहता है- आज से पद्मिनी हमारी बहन है...
*(मुझे नहीं लगता कि उस समय किसी समाज ने या वर्ग इस संवाद पर हंगामा किया होगा या फिल्मकार कलाकार को थप्पड़ मारे होंगे।)*
फिल्मकार- साहित्यकार - लेखक को कल्पना करने का अधिकार है। इस पर किसी भी सभ्य समाज में रोक नहीं लगनी चाहिए।
भंसाली
की जिस फिल्म में खिलजी और पद्मिनी को प्रेम करते हुए दिखाए जाने की चर्चा
फैलाई जा रही है। उससे अभी 'परदा' उठना बाकी है। और हम अभी से दो पक्ष
बनाकर एक-दूसरे के खिलाफ तलवार तानें खड़े हो गए है। ये सरासर गलत है।
जरा फुर्सत मिले तो ये फिल्म भी देख लीजिए।
*@रामकृष्ण डोंगरे तृष्णा*