Thursday, December 31, 2009

नया साल मुबारक


नववर्ष साल 2010

आप सभी को मुबारक हो

Thursday, October 22, 2009

वर्तमान एवं भावी बिजनेस पत्रकारों को एक मंच पर लाने का प्रयास

नमस्कार

आप सभी को सूचित करते हुए हमें हर्ष हो रहा है

हमने गूगल के संयोजन से बिजनेस जर्नलिस्ट्स और विद्यार्थियों के लिए एक बिजनेस ग्रुप बनाया है. आप एक क्लिक पर इसे ज्वाइन कर सकते है. हमारा प्रयोजन ब्यापार पत्रकारिता के शुभेच्छुओं को उनकी आवश्यकता अनुरूप आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराना है. आप इस ग्रुप के माध्यम से जानकारियों का आदान-प्रदान भी कर सकते हैं. साथ ही किसी भी प्रकार की दुविधा होने पर हमसे संपर्क करके उसका समाधान पा सकते हैं. उम्मीद है कि हमारे इस प्रयास को सार्थक बनाने में आप हमारा साथ देंगे. अगर आपके पास हमारा आमन्त्रण नहीं पहुंचा है तो हमें नीचे दिए गए नंबरों या ईमेल पर सूचित करें. आपको हमारे ग्रुप का हिस्सा बनाने में हमें खुशी होगी।

-स्कन्द विवेक
9584353012
-गौतम
9981596647

Monday, October 12, 2009

फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स

पोस्ट से पहले में .... एक बार फ़िर ... बहस वाला ब्लॉग ... उल्टा तीर


उल्टा तीर पर महीने भर के लिए जारी है बहस .... फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स पर ...

क्या है
फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स क्या आपके है इसका कोई अनुभव तो बांटे ....


फ्रेंड्स विद वेनिफिट्स को युवा वर्ग, वह वर्ग जिसकी ये जरूरत है स्वीकार चुका है क्योंकि समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग आज प्रत्येक कार्य के ऊपर सेक्स को महत्व दे रहा है।


इस तरह के रिश्तों के बारे में जो अधिकतर अभी तक महानगरों में है पर देर सवेर इनका असर छोटे शहरों पर भी दिखने लगेगा इसमें कोई अतिशयोक्ति नही है। क्योंकि लोग अपनी सहूलियत के लिए मिसाल ढूंढ लेते है कि वो भी तो ऎसा कर रहा फिर हम क्यों नही करे क्योंकि संस्कृति कैसी भी हो कही न कही उसका स्थान्तरण दूसरे स्थानों पर भी हो ही जाता है।


इस रिश्ते में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष वर्ग की संलग्नता थोडी सी ज्यादा है। इसमें पुरुष वर्ग लाभीय केंदित महिला वर्ग की अपेक्षा अधिक होता है वहीं महिला अधिकांशतः मित्रवत केन्द्रित होती हैं। इसमें कोई आर्श्चय नहीं है कि इस सम्बन्ध के दोनों वर्ग महिला व पुरुष मानते हैं कि बिना प्रेम के शारीरिक सम्बन्ध होना असहज नहीं है.


इस तरह के रिश्ते में अगर आपके पास हैं अपने अनुभव या है कोई आपका मित्र, जानकार जुड़ा हुआ है इस रिश्ते में तो हमें लिख भेजिए! [उल्टा तीर]

Monday, September 21, 2009

दुष्यंत कुमार पर डाक टिकट कुमार जारी होगा

हो गई पीर परबत- सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए

आज ये दीवार परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी की बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खडा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश ये है की ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

दुष्यंत कुमार स्मारक डाक टिकट जारी करेंगे राज्यपाल

हिन्दी गजल को नया तेवर और ताजगी प्रदान करने वाले मध्यप्रदेश के साहित्यकार दिवंगत दुष्यंत कुमार के सम्मान में भारतीय डाक विभाग स्मारक डाक टिकट जारी करने जा रहा है। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर २७ सितम्बर को माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान में एक समारोह में दुष्यंत कुमार स्मारक डाक टिकट जारी करेंगे। इस मौके पर दुष्यंत रचनावली के संपादक डा. विजय बहादुर सिंह तथा पूर्व कुलपति प्रो. धनंजय वर्मा दुष्यंत के व्यक्तित्व और कृतित्व पर व्याख्यान देंगे।

http://sangrahalay.blogspot.com/


‘मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए’

परदे के पीछे मशहूर कवि और शायर दुष्यंत कुमार का 75वां जन्मोत्सव एक सितंबर 2007 से 31 अगस्त 2008 तक मनाया जाएगा। भोपाल में आयोजक ने बताया कि इस दौरान वर्ष भर व्याख्यान, कवि सम्मेलन और मुशायरों का आयोजन होगा। आज बाजार की ताकतों के कारण आए सामाजिक परिवर्तनों पर दुष्यंत कुमार किस तरह लिखते, इस बात की कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके जैसी विलक्षण प्रतिभा के लिए इस कालखंड में लिखना अत्यंत महत्वपूर्ण होता, क्योंकि विसंगतियों और विरोधाभास के इस दौर को वे बेहतर ढंग से प्रस्तुत करते, साथ ही उनके नजरिए से मौजूदा दौर को देखना एक विरल अनुभव होता। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि उनकी रचनाएं आउटडेटेड हो गईं हैं। उनकी रचनाएं आज भी सार्थक हैं और कल भी महत्वपूर्ण साबित होंगी।.......

Saturday, May 30, 2009

आज दिल कहता है हर बात कह दूं ,

आज दिल कहता है हर बात कह दूं,
वो दिन कह दूं, वो रात कह दूं,

आज दिल कहता है हर बात कह दूं

तुम्हें देखें हुए अर्सा हो गया है ,
दिल कहता है हाँ यही बात कह दूं,

आज दिल कहता है हर बात कह दूं

तुम होती तो कुछ ना कहता
बस इसलिए आज ये बात कह दूं

आज दिल कहता है हर बात कह दूं


Friday, February 13, 2009

Happy Valentine's Day

wishing you all a happy & memorable valentine's day....

Happy Valentine's Day

वैलेंटाइन डे पर सभी दोस्तों को मेरी ओर से बधाई। प्यार के रंग हजार होते है. आप जिस रंग में रंगे हो, बस प्यार कीजिये. एक बात और ... अगर कोई आपका प्यार स्वीकार ना करें तो उसे दोस्त बना लीजिये।

दोस्ती ता- उम्र बरक़रार रहे,
या खुदा जब तक ये संसार रहे।
हैप्पी वैलेंटाइन डे... मेरा वैलेंटाइन कौन है ... कहाँ है ... ये सवाल आपके मन में जरूर होगा . इसका जवाब तो फिलहाल मेरे पास भी नहीं है ...

हैप्पी वैलेंटाइन डे
आपका दोस्त ...




इन्हें भी पढें....

प्यार का पहला ख़त

Valenlines day प्यार : इक शै के रंग हजार

जब मैं तुमसे प्यार करता हूँ

Thursday, February 5, 2009

पांव छूने पर प्रतिबंध

पांव छूने पर प्रतिबंध

दिल में रखें आदरभाव, चरण छुआई बंद करें

- बीएचयू के समाजशास्त्र विभाग ने लगाया प्रतिबंध
- चरण छूने की प्रथा छदम व्यवहार का परिचायक
- कुछ परंपरागत परिवारों के लोग स्वाभाविक रूप से पांव छूते हैं लेकिन कुछ इस बारे में गंभीर नहीं रहते।
- पांव छूना सामाजिक आउटलुक के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाता

पांव छूना आदर का सूचक हो सकता है लेकिन यह दूसरों के अहं को ठेस भी पहुंचाता है। इसी सोच के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग ने पांव छूने पर रोक लगा दी है। इसके लिए बकायदा विभाग में नोटिस तक जारी की गई है। विभाग के प्राध्यापकों का तर्क है कि दिल की भाषा को दिल समझ लेता है। आदरणीय को अपने मन के भाव को समझाने के लिए पांव छूना जरूरी नहीं है।

जब अज्ञेय ने टैगोर के पांव नहीं छूये
इलाहाबाद में कविवर रविंद्र नाथ टैगोर आए थे। सब उनका पांव छू रहे थे। एक दृढ़ व्यक्तित्व का धनी सुदर्शन युवक आया। उसने नमस्ते किया और भीतर चला गया। इस घटना ने विश्वकवि को झकझोर कर रख दिया था। वह बहुत देर तक संयत नहीं हो पाए। युवक भी कोई नहीं बल्कि हिंदी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे।

युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत : अज्ञेय
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. एमके चतुर्वेदी जेपी आंदोलन के दौरान अज्ञेय से मिलने दिल्ली गए थे। जैसे ही वह आए उनके साथ गए लोग अज्ञेय के पांव की ओर लपके। पर उन्होंने कहा कि नहीं, पांव छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूं।
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काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में पांव छूने पर प्रतिबंध लगा दिया है। विभाग अध्यक्ष प्रो. एमके चतुर्वेदी का मानना है कि किसी के प्रति आदर प्रकट करने के और भी तरीके हो सकते हैं लेकिन आज पांव छूना कई मायनों में अच्छा नहीं है।

कहां से मिली प्रेरणा
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. एमके चतुर्वेदी जेपी आंदोलन के दौरान अज्ञेय से मिलने दिल्ली गए थे। जैसे ही वह आए उनके साथ गए लोग अज्ञेय के पांव की ओर लपके। पर उन्होंने कहा कि नहीं, पांव छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूं। यह बात उनके मन को छू गई। अब उन्होंने अपने विभाग में सबसे बातचीत करके पांव छूने पर प्रतिबंध लगा दिया है। उनका कहना है कि किसी के प्रति आदर प्रकट करने के और भी तरीके हो सकते हैं लेकिन आज पांव छूना कई मायनों में अच्छा नहीं है।
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क्या कहते हैं समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. चतुर्वेदी
उनका कहना है कि कभी दान देते समय दाता दान स्वीकार करने वाले का पांव छूता था। इसके पीछे मकसद था कि लेने वाले के मन में याचक का भाव न जगे। चरण छूने की प्रथा छद्म व्यवहार का परिचायक हो रही है। इसके पीछे कुछ लोग दूसरों को भी भ्रम में रखने की कोशिश करते हैं।
इसी विभाग के डा. एके जोशी का कहना है कि कुछ परंपरागत परिवारों के लोग स्वाभाविक रूप से पांव छूते हैं लेकिन कुछ इस बारे में गंभीर नहीं रहते। इससे बात बिगड़ रही थी। वैसे भी पांव छूना सामाजिक आउटलुक के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाता है। इसलिए छात्रों से बात कर इस चलन को कम किया गया है।
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विश्वविद्यालय में पांव छूने की परंपरा
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, संपूणानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में पांव छूने की परंपरा है। यहां इसी के माध्यम से गुरु शिष्य के बीच संबंध बनते हैं। पूर्वांचल में नया अनाज पैदा होने पर जब उसका नेवान किया जाता है तो लोग मुहल्ले भर में घूम कर बड़ों का पांव छूते हैं। किसी के घर पुत्र पैदा होने पर भी ऐसा ही किया जाता है। पांव छूना आदर का सूचक हो सकता है लेकिन यह दूसरों के अहं को ठेस भी पहुंचाता है। इसी सोच के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग ने पांव छूने पर रोक लगा दी है। इसके लिए बकायदा विभाग में नोटिस तक जारी की गई है। विभाग के प्राध्यापकों का तर्क है कि दिल की भाषा को दिल समझ लेता है। आदरणीय को अपने मन के भाव को समझाने के लिए पांव छूना जरूरी नहीं है।

गहरी जड़े हैं पांव छूने के संस्कार की
संगीत में बड़े कलाकारों का पांव छूने की परंपरा रही है। संस्कृत विद्वानों में भी यह परंपरा है। साधु-संतों के यहां तो साष्टांग दंडवत करने की परंपरा है। मान्यता है कि सिद्ध पुरुष के हाथ और पांव से हमेशा तरंगे निकलती रहती हैं। पांव छूने पर ये तरंगें शिष्य में भी प्रवेश करती हैं। सिद्ध पुरुष जब आशीर्वाद देता है तो भी इस तरह की तरंगों का प्रवाह होता है। ऊर्जा की तरंगों के संरक्षण के लिए कई सिद्ध संत किसी को अपना पांव छूने ही नहीं देते हैं। उन्हें दूर से ही नमन करना पड़ता है। कहते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने स्पर्श मात्र से इसी ऊर्जा और आनंद की झलक स्वामी विवेकानंद को दिखाई थी। पूर्वांचल में बचपन से ही माता, पिता और गुरु के पांव छूने की शिक्षा दी जाती है। यह परंपरा कमोबेश विश्वविद्यालयों में भी दिखाई देती है।

Friday, January 16, 2009

मेल-मिलाप और परिचित का अपरिचित सा वो ख़्वाब

मेल-मिलाप और परिचित का अपरिचित सा वो ख़्वाब

शनिवार की देर रात तक काम करने के बाद मैं रविवार की छुट्टी यानी मस्ती, सोना, घूमना, जो मन करे वो करने का अहसास लिए दिल में अपने रूम तक आया. अगले दिन की छुट्टी है ही तो क्यों देर रात को भी टेलीविजन देख ही लिया जाए. यूँ भी देर रात टेलीविजन देखना एक अलग बात ही है. देर रात टेलीविजन यानी देर रात के कार्यक्रम. आह और ये तन्हाई! आप यकीन करें लोग जो महसूस करते हैं तन्हाई को, लोग जो भीड़ में होके भी अकेले रहते हैं...उनके लिए ये साधन वाकई लाज़बाब है।



सबसे पहले तो "डोंगरे" भाई से माफ़ी चाहूँगा कि उनके कहे मुताबिक मैं यह पोस्ट रविवार को ही न लिख सका. मेरा मन तो था मगर शाम ढलते ढलते दिल किन्हीं और ख़यालों व मुश्किलों की गिरफ़्त में कुछ ऐसा आया कि दिल में फ़िर अहसास भी नहीं पनपे कि कुछ लिखा जाए. लिखने को तो अभी भी दिल बहुत नहीं मग़र बहाव हो पड़ेगा ऐसा मुझे महसूस रहा है. ख़ैर, "डोंगरे" भाई की डायरी...! में लिखना यानी ख़ुद की डायरी की याद भी है. मैं ख़ुद भी अपनी डायरी आजकल नहीं लिख पाता. चाह कर भी नहीं. बस कभी-कभार ही लिख लिया करता हूँ. और आज अपने मित्र की डायरी में लिखने के लिए कलम पकड़ा दी गई है तो माज़रा भी कुछ न कुछ तो खास होगा ही. यूँ भी "डोंगरे" भाई आजकल व्यस्तता के चलते अपनी डायरी ख़ुद नहीं लिख पा रहे. माफ़ करना, थोड़ी सी हंसी आ रही है. सोच रहा हूँ, ये कितना अद्भुत और अलहदा अहसास है कि आप अपनी डायरी ख़ुद नहीं लिख पाते मगर दूसरों की डायरी लिखने का निमंत्रण पाके लिखना ही पड़ता है. बहरहाल, "डोंगरे" भाई की डायरी में लिखने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ तो मैं अब "डोंगरे" भाई की ही बातें लिखूँ तो ज्यादा रोचक रहेगा.
"बकौल डोंगरे जी मेरे शब्दों में"

शनिवार की देर रात तक काम करने के बाद मैं रविवार की छुट्टी यानी मस्ती, सोना, घूमना, जो मन करे वो करने का अहसास लिए दिल में अपने रूम तक आया. अगले दिन की छुट्टी है ही तो क्यों न देर रात को भी टेलीविजन देख ही लिया जाए. यूँ भी देर रात टेलीविजन देखना एक अलग बात ही है. देर रात टेलीविजन यानी देर रात के कार्यक्रम. आह और ये तन्हाई! आप यकीन करें लोग जो महसूस करते हैं तन्हाई को, लोग जो भीड़ में होके भी अकेले रहते हैं...उनके लिए ये साधन वाकई लाज़बाब है. बेशक आँखों का क्षणिक सुख हो. सो, डोंगरे भाई देर रात ड्यूटी से वापस आने के बाद मन की तन्हाई को टेलीविजन का साज़ देते हुए और भी देर कर देते हैं सोने में. रविवार का दिन छुट्टी वाला होने की वजह से अगले दिन ड्यूटी की बाबत कोई चिंता का विषय नहीं है. इसलिए ये रात भी आजाद है और रविवार अर्थ से भी आज़ाद. यह तर्क बहुत ज़्यादा ठीक तो नहीं मग़र काम-चलाऊ तो है ही. चूँकि लोग इस दिन भी किसी न किसी कारण से परतंत्र ही होते हैं.

दिल्ली जैसे शहर में सुबह होते वक़्त चिडियाएँ, कोयल, मुर्गे आवाज़ नहीं करते. बस आपकी घड़ी या फ़िर आपका मोबाइल बताता है कि सुबह हो गई मामू. अब तो जागो! और सर्दियों के मौसम में तो बिस्तर से वाहर आने का मन नहीं होता. मग़र आदत! इंसान को आदतन अपनी तरह चलाती रहती है. अब यह आदत पर डिपेंड करता है कि वो आदत अच्छी है या बुरी.

खैर, सुबह ९ बजे तक "डोंगरे" भाई आदतन जग गए. नित्य-कर्म किए. चूँकि इस रविवार न तो मेरा या किसी अन्य मित्र के साथ कहीं घूमने या फ़िर कोई फ़िल्म वगैराह देखने का प्रोग्राम था न कुछ प्रायोजन ही. तो बड़ा मुश्किल था कि आज क्या किया क्या जाए. ये दिक्कत है उस शख्स के साथ होती होगी जो दूसरे शहरों से दूसरे शहरों में आके किसी भी कारणवश रह रहे हैं. वाकी ५- या ६ दिन तो ऑफिस में गुज़र जाते हैं. शेष बचे हुए एक छुट्टी वाले दिन का अगर आपने प्रोग्राम नहीं सोचा है तो दिमाग पर दिन हावी हो जाता है जैसे छुट्टी के दिन का होना दुश्वारी हो कोई.

बकौल "डोंगरे" भाई के मोबाइल इनबोक्स में दो रोज़ पहले का इक खूबसूरत सँदेस पडा था, संदेश किसी परिचित का था मग़र अपरिचित सा. व्यस्तता इतनी रही कि न तो उस संदेश वाले नंबर पर "डोंगरे" भाई न तो फोन ही कर सके और नाहीं संदेश का जवाब ही तलब कर पाए. संदेश में आज मिलने की बाबत भी लिखा था. रविवार को मेल-मिलाप. खाली दिन खाली दिमाग. कुछ तो सूझेगा ही.

नहा धोके "डोंगरे" भाई यूँ ही रूम से वाहर निकल पड़े, कुछ न सूझा तो मोबाइल में ही घुस गए. एक जानकार लड़की का अनजाना सा संदेश फ़िर से देखकर डोंगरे भाई चौंके...लगा जैसे कोई चमत्कार हुआ है. मोबाइल में. कितने बरस हो गए हैं जब से "डोंगरे" भाई "मैं और मेरी तन्हाई" का आलम लिए फिरते हैं. मग़र को ऐसा अब तक नहीं मिला कि दो पल बाँट ही लेता तन्हाई को. मग़र इस संदेश में तन्हाई के बांटने की संभावना झलक रही थी. मिलन की बात लिखी थी. वाव! दिल खुश हो गया एक अनजान से संदेश का. कहीं ये कोई किसी का मजाक तो नहीं जो तन्हाई पर और भी भरी पड़े. इसी सोचा-विचारी में "डोंगरे भाई" ने मुझे फोन किया. जो भी था सब बताया, संदेश भी भेजा. जुम्मे की रात का ज़िक्र था उसमें...डोंगरे भाई का दिल कुलान्चों से फुदक रहा था. दिल से एक दुआ निकल रही थी...हे, भगवान्, ये सच हो जाए...तो क्या हो जाए! आह! इक मीठी सी आह! उस अपरचित खुशी के अहसास में डूब पडी...जिसके अहसास ने "डोंगरे भाई" को भिगो दिया.

मुझे सुबह ही पहले तो संदेश मिला फ़िर कुछ देर बाद (किसी कारणवश जब मैंने कोई जवाब तलब न किया तो) "डोंगरे" भाई ने मुझे फोन ही कर डाला...और लगे तन्हाई का रोना...इस बीच पूछ ही लिया "सागर" भाई क्या किया जाए...कहीं ये मजाक तो नहीं...जो हम पर हंस रहे हैं...उन्हें और हंसनी की कोई नई खुराक तो नहीं...मैं भी सोच में पढ़ गया...दरअसल, नव वर्ष के अगले दिन यानी २ जनवरी २००९ को मुझे भी एक खूबसूरत सा संदेश आया...नव वर्ष की वधाइयां थी, साथ में ई-मेल पता भी लिखा था. पर मैंने संदेश का जवाब मोबाइल से संदेश कर के नहीं दिया. मैंने कोशिश की जो भी ये अपरिचित है, क्यों न इनसे बात की जाए...दो बार नंबर मिलाया...१ बार फोन काट दिया गया तो दूसरी बार किसी ने फ़िर उठाया ही नहीं. ये आलम था कि फ़िर हमने भी सोच लिया, दिए गए ई-मेल पर नव वर्ष की वधाई व शुक्रिया कहा जाए और फ़िर कभी इस नंबर पर बात करने की कोशिश न की जाए. ये वाकया मुझे "डोंगरे" भाई के संदेश के कारण सहज ही याद आ गया. मैंने फोन पर ही "डोंगरे" भाई को इस बाबत बताया भी. और अंततः मैंने सलाह दी: आपको फोन ही कर लेना चाहिए. बात होगी तो बस हो ही पडेगी...फ़िर जो होगा..अच्छा होगा. इसी सिद्धांत पर डोंगरे भाई ने फोन कर ही डाला. वाव! मैं इंतज़ार में था...देखें तो सही क्या हुआ...?

बहुत देर के बाद "डोंगरे" भाई का फोन आया. "डोंगरे" भाई की आवाज़ से ही पता चल रहा था कि जो भी हुआ है बड़ा सुखद हुआ है. "डोंगरे" भाई की खुशी का कोई ठिकाना नहीं लग रहा था. बहुत खुश! अरे क्या हुआ भाई! "डोंगरे" भाई ने बताया- मेरी उस लडकी से बात हो गई...अरे यार में उसको अच्छी तरह जानता हूँ. अब मेन बात ये है कि वो लड़का तलाश रही है और मैं लडकी...

इस पर मैंने जो दो मिसरे लिखे वो कुछ यूँ हैं:
यूँ जो आपसे मुलाक़ात हुई सहरा में जैसे बरसात हुई
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"डोंगरे" भाई के लिए तमाम दुआएं...
आगे-आगे जो ही मग़र हमें ज़रूर बताएं.
होनी हो अच्छे तो हो जाए शुरुआत अभी,
हो जो भी मग़र तन्हाइयां कट जाएँ
--
आपका;
अमित के सागर
उल्टा तीर मौजे-सागर