भोपाल यानी झीलों की नगरी। यहां आपको नजर आते हैं छोटा और बड़ा तालाब। बड़ा तालाब को करीब से देखने की चाहत ने मुझे बरबस ही तालाब की ओर खींच लिया। मुझे दूर तक फैले तालाब को देखने से कितना सुकून मिल रहा था। तालाब की रेलिंग के सहारे खड़ा होकर मैं दूर-दूर तक फैले तालाब को निहार रहा था। पास ही एक हमउम्र लड़का भी खड़ा था। उसने बताया, मैं आर्किटेक्ट हूं। बातचीत आगे बढ़ी और बढ़ते-बढ़ते जाति-धर्म तक जा पहुंची। शुक्र है कि वह भी जाति-धर्म को नहीं मानता था। फिर उसने अपने गांव की एक दिलचस्प घटना सुनाई। सुनकर लगा यह तो मेरी कहानी का हिस्सा बन सकती है। कहानी का हिस्सा क्या भाई, पूरी कहानी बन सकती है। कहानी कि क्या कहें...उपन्यास भी बन सकता है। तो मैंने कलम उठाई और लिख डाली एक कहानी... ‘एक घूंट पानी‘।
कहानी एक गांव से जुड़ी है। गांव में जाति-धर्म के बंधन बहुत जटिल होते हैं। अलग-अलग जाति के मोहल्ले-टोले होते हैं। ऐसा ही एक गांव था। जहां विभिन्न जातियों के मोहल्ले बंटे हुए थे। इसी गांव में एक सज्जन रहते थे। नाम था सुखीराम। सुखीराम की लाखों की दौलत थी। सुखी घर-परिवार था। थे तो धार्मिक प्रवृत्ति के। पूजापाठ नित्यप्रति होती थी। उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि एक महाराज दूर से अपने गांव में पधारे हुए हैं। उन्होंने तुरंत उन्हें अपने घर बुला लिया। महाराज ने पूजापाठ की। सुखीराम बहुत खुश थे। क्योंकि इतने प्रसिद्ध महाराज उनके घर आए थे। उन्होंने महाराज के द्वारा जूठा किया गया गिलास, जो कि आधा भरा हुआ था, उठाकर उसमें से एक घूंट पानी पी लिया। इस अवसर पर शायद गांव का ही कोई व्यक्ति उनके घर में था जो यह सारा दृश्य देख रहा था। कहना चाहिए कि महाराज के जूठे गिलास से एक घूंट पानी सुखीराम के द्वारा पीने का वह एक मात्र प्रत्यक्षदर्शी था। जो यह जानता था कि महाराज नीची जाति के है। बस, फिर क्या था। वह जहां भी जाता सबको खूब नमक-मिर्च लगा-लगाकर बताता कि सुखीराम ने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पीया है।
सुखीराम जाति-धर्म को मानने वाला व्यक्ति था। उससे ऐसी महाभयंकर भूल कैसे हुई? इसके पीछे भी एक वजह थी। दरअसल महाराज थे तो नीची जाति के मगर उनके रहन-सहन और बुद्धि के प्रभाव के चलते उन्हें कोई भी नीची जाति का समझने की सोच भी नहीं सकता था।
सुखीराम के दिल में यह बात घर कर गई कि उसने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। वह अब घर से बहुत कम निकलने लगा। घर से खुशहाल होते हुए भी, सुना जाता है कि उन्होंने कभी अपने घर के बच्चों के लिए चॉकलेट नहीं खरीदी थी। और अब वही व्यक्ति जब भी बाहर निकलता बच्चों के लिए खूब चॉकलेट खरीदता। केवल इसलिए कि बच्चे यह कहकर न चिढ़ाए कि सुखीराम दादा ने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। पर यह सब करने के बावजूद चिढ़ाने का सिलसिला नहीं थमा। क्योंकि थे तो वे बच्चे ही। खाने-पीने के बाद वे भी भूल जाते थे। और फिर वही दोहराना शुरू...। सुना तो यहां तक जाता है कि सुखीराम इतनी ज्यादा चाकलेट खरीदते थे कि दुकानदारों के पास की सारी चाकलेट खत्म हो जाती थी।
सुखीराम तो खाली नाम के सुखीराम बन के रह गए थे, बात तो यह थी कि वे इन दिनों दु:खी रहने लगे थे। उनके मन में यह बात बैठ गई थी कि उन्होंने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। वे लगातार यही सोचा करते। उन्होंने पूरे गांव से अपने आप को काट लिया। क्योंकि वे लोगों के ताने सुन-सुनकर और दु:खी हो जाते थे, और डेढ़ माह नहीं बीते होंगे कि वे चल बसे। एक घूंट पानी उनके लिए मौत की निशानी बन गया।
- रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा'
कहानी एक गांव से जुड़ी है। गांव में जाति-धर्म के बंधन बहुत जटिल होते हैं। अलग-अलग जाति के मोहल्ले-टोले होते हैं। ऐसा ही एक गांव था। जहां विभिन्न जातियों के मोहल्ले बंटे हुए थे। इसी गांव में एक सज्जन रहते थे। नाम था सुखीराम। सुखीराम की लाखों की दौलत थी। सुखी घर-परिवार था। थे तो धार्मिक प्रवृत्ति के। पूजापाठ नित्यप्रति होती थी। उन्हें जैसे ही मालूम हुआ कि एक महाराज दूर से अपने गांव में पधारे हुए हैं। उन्होंने तुरंत उन्हें अपने घर बुला लिया। महाराज ने पूजापाठ की। सुखीराम बहुत खुश थे। क्योंकि इतने प्रसिद्ध महाराज उनके घर आए थे। उन्होंने महाराज के द्वारा जूठा किया गया गिलास, जो कि आधा भरा हुआ था, उठाकर उसमें से एक घूंट पानी पी लिया। इस अवसर पर शायद गांव का ही कोई व्यक्ति उनके घर में था जो यह सारा दृश्य देख रहा था। कहना चाहिए कि महाराज के जूठे गिलास से एक घूंट पानी सुखीराम के द्वारा पीने का वह एक मात्र प्रत्यक्षदर्शी था। जो यह जानता था कि महाराज नीची जाति के है। बस, फिर क्या था। वह जहां भी जाता सबको खूब नमक-मिर्च लगा-लगाकर बताता कि सुखीराम ने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पीया है।
सुखीराम जाति-धर्म को मानने वाला व्यक्ति था। उससे ऐसी महाभयंकर भूल कैसे हुई? इसके पीछे भी एक वजह थी। दरअसल महाराज थे तो नीची जाति के मगर उनके रहन-सहन और बुद्धि के प्रभाव के चलते उन्हें कोई भी नीची जाति का समझने की सोच भी नहीं सकता था।
सुखीराम के दिल में यह बात घर कर गई कि उसने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। वह अब घर से बहुत कम निकलने लगा। घर से खुशहाल होते हुए भी, सुना जाता है कि उन्होंने कभी अपने घर के बच्चों के लिए चॉकलेट नहीं खरीदी थी। और अब वही व्यक्ति जब भी बाहर निकलता बच्चों के लिए खूब चॉकलेट खरीदता। केवल इसलिए कि बच्चे यह कहकर न चिढ़ाए कि सुखीराम दादा ने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। पर यह सब करने के बावजूद चिढ़ाने का सिलसिला नहीं थमा। क्योंकि थे तो वे बच्चे ही। खाने-पीने के बाद वे भी भूल जाते थे। और फिर वही दोहराना शुरू...। सुना तो यहां तक जाता है कि सुखीराम इतनी ज्यादा चाकलेट खरीदते थे कि दुकानदारों के पास की सारी चाकलेट खत्म हो जाती थी।
सुखीराम तो खाली नाम के सुखीराम बन के रह गए थे, बात तो यह थी कि वे इन दिनों दु:खी रहने लगे थे। उनके मन में यह बात बैठ गई थी कि उन्होंने नीची जाति के व्यक्ति का जूठा पानी पी लिया है। वे लगातार यही सोचा करते। उन्होंने पूरे गांव से अपने आप को काट लिया। क्योंकि वे लोगों के ताने सुन-सुनकर और दु:खी हो जाते थे, और डेढ़ माह नहीं बीते होंगे कि वे चल बसे। एक घूंट पानी उनके लिए मौत की निशानी बन गया।
- रामकृष्ण डोंगरे 'तृष्णा'