Tuesday, August 27, 2024

नईदुनिया में दूसरी पारी : इनपुट एडिटर की जिम्मेदारी, चुनाव में ग्राउंड रिपोर्ट से लेकर विशेष खबरों का प्रकाशन

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 9 वर्षों तक मैंने सफलतापूर्वक दैनिक भास्कर में काम किया. 1 अप्रैल 2022 से मुझे दैनिक जागरण समूह के नईदुनिया समाचार पत्र में इनपुट एडिटर की जिम्मेदारी सौंपी गई। 
यहां रायपुर यूनिट के 19 जिलों के ब्यूरो प्रभारियों, जिला प्रतिनिधि और संवाद सूत्र साथियों के साथ इनपुट के लिए समन्वय बनाने का दायित्व मुझे सौंपा गया। 
यहां मुझे रायपुर यूनिट के बस्तर संभाग, रायपुर और दुर्ग संभाग के उन सभी जिलों की वे खबरें, जो नेशनल स्तर पर प्रकाशित हो सकती है, उन्हें तैयार करना होता था।

जागरण विशेष, नईदुनिया विशेष कैटेगरी में कई खबरें हमारे यूनिट से प्रकाशित हुई. 
इसके साथ ही विधानसभा चुनाव 2023 और इस लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ चुनाव डेस्क पर काम करते हुए हमने अलग-अलग सेगमेंट की खबरें तैयार करवाई.

इसके साथ ही हमने बस्तर संभाग में दोनों चुनाव के दौरान ग्राउंड रिपोर्ट की। साथ ही वहां से विशेष स्टोरी भी निकाली गई। चुनाव के दौरान विश्लेषणात्मक समाचार भी प्रकाशित किए गए। कई खबरें चर्चित रही, जो यहां दी जा रही है। 

Monday, December 12, 2022

Rachna Dairy : मेरी कविता - खबरों का नशा

| मेरी कविता - खबरों का नशा |

खबरों में भी, 
नशा होता है।
कुछ खबरों को पढ़ने
से नशा हो जाता है।

लेकिन उस नशे से कुछ नहीं मिलता।
ऐसी नशीली खबरों की संख्या बढ़ रही है,
बढ़ाई जा रही है
ताकि आप पर इसका नशा
एक बार चढ़ जाए तो उतरे ना।
ऐसी नशीली खबरों से बचें।

नशा कीजिए
अच्छी खबरों का, 
जिससे आपको कुछ हासिल हो।
ज्ञान मिले, प्रेरणा मिले, 
आनंद मिले, मन को शांति मिले।

बुरी खबरों की
दुनिया से दूर रहे।
क्योंकि खबरों में भी
नशा होता है।

©® *रामकृष्ण डोंगरे Ramkrishna Dongre Pawar तृष्णा*

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Sunday, December 11, 2022

Naidunia Raipur : नईदुनिया, नवदुनिया और जागरण के देशभर के संस्करणों में प्रकाशित - मेरा हौसला बड़ा है... स्टोरी

लोकप्रिय समाचार पत्र दैनिक जागरण, नईदुनिया, नवदुनिया के देशभर में प्रकाशित संस्करणों में आज मेरी स्टोरी 'मेरा हौसला बड़ा है'... प्रकाशित हुई है।

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अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस विशेष इस स्टोरी में मैंने देशभर की महिला पर्वतारोहियों से बात की है। इनमें हरियाणा की आदरणीय संतोष यादव, झारखंड की प्रेमलता अग्रवाल, उत्तर प्रदेश की अरुणिमा सिन्हा, मध्यप्रदेश की बेटियों मेघा परमार, भावना डेहरिया (छिंदवाड़ा), हरियाणा की शिवांगी पाठक, छत्तीसगढ़ की अंकिता गुप्ता शामिल है।

सभी से बात करके अहसास हुआ कि पुरुषों के लिए माने जाने वाले इस फील्ड में महिलाओं ने किस तरह अपना वर्चस्व कायम किया है। अपनी पहचान बनाने के लिए लालायित महिलाओं में ऐसा जुनून होता है, जो पर्वत को भी डिगा देता है। किसी ने 16 साल की उम्र में, किसी ने 48 साल की उम्र में तो किसी ने एक पैर नहीं होने के बावजूद दुनिया की ऊंची ऊंची चोटियों पर देश का तिरंगा लहराया है। 

कहते है ना कि... 
मंजिलें क्या है, रास्ता क्या है, 
हौसला हो तो फासला क्या है...
(आलोक श्रीवास्तव जी का शेर) 

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 Via  Dainik Jagran App.

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Wednesday, November 23, 2022

दिल्ली- नोएडा डायरी 2022 : आदरणीय देवप्रिय अवस्थी Devpriya Awasthi सर से आत्मीय मुलाकात ...

पत्रकारिता के वरिष्‍ठजनों से मुलाकात के क्रम में मैंने परम आदरणीय श्री देवप्रिय अवस्‍थी सर से मुलाकात की। अवस्‍थी सर से मेरी पहली मुलाकात साल 2006-07 में दैनिक भास्‍कर भोपाल में हुई थी, जब मैं माखनलाल यूनिवर्सिटी की ओर से लिखित परीक्षा देने गया था। यहां टेस्‍ट हमारा श्री अरुण आदित्‍य Arun Aditya सर ने लिया था। टेस्‍ट पास करने के बावजूद किन्‍हीं कारणों से हमारी ज्‍वाइनिंग अटक गई। इस बीच मई, 2007 मैंने अमर उजाला नोएडा ज्‍वाइन कर लिया। अगले साल ही अवस्‍थी सर भी बतौर एग्‍जीक्‍युटिव एडिटर अमर उजाला नोएडा में आ गए।

लगभग पांच-छह वर्ष तक यहां सर से सीखने का मौका मिला। वे कभी डांटते नहीं थे। भाषायी, वाक्य रचना संबंधी त्रुटियों को इस तरह समझाते थे कि एक बार जानने के बाद आप कभी  दोबारा वह गलती नहीं दोहराएंगे। मुझे याद है कि वे भाषीय त्रुटियों पर पैनी नजर रखते थे और संपादकीय सहयोगियों को समझाते थे कि ऐसा नहीं, ऐसा लिखना चाहिए। उन्‍होंने मुझे पहली बार बताया था कि अगर आप वाक्‍य में कामा लगाकर लिखेंगे तो जिससे, जिसमें लिखा जाएगा। अगर आप फुल स्‍टॉप लगाकर नया वाक्‍य बना रहे हो तो आपको इससे, इसमें लिखकर अपनी बात आगे बढ़ाना चाहिए।
पत्रकारिता या जीवन में इंसान सारी उम्र सीखता रहता है। अलग-अलग तरह की गलतियां हर कोई करता है लेकिन आपकी किसी गलती की तरफ जब कोई ध्‍यान दिलाता है तो आपका कर्तव्‍य बनता है कि दोबारा वह गलती आप न दोहराए। जैसे- भोपाल में मेरे पहले पत्रकारिता संस्‍थान दैनिक समाचार पत्र स्‍वदेश में साल 2004 में बताया गया था कि जब एक्‍शन की बात होगी तो हम कार्रवाई लिखते है लेकिन जब बात प्रोसिडिंग की आती है तो हम कार्यवाही लिखेंगे। अवस्‍थी सर ने दैनिक भास्‍कर और अमर उजाला सभी जगह शब्‍दावली और वर्तनी पर काफी काम किया था।

आदरणीय अवस्‍थी सर के पत्रकारीय सफर की बात करें तो उन्‍होंने 1976 में दैनिक जागरण से शुरुआत की थी। 1979 में नवभारत टाइम्स,दिल्‍ली आए. फिर  1983 से श्री प्रभाष जोशी जी के सान्निध्‍य में जनसत्ता में काम किया. वे जनसत्ता, दिल्ली के न्यूज रूम की धूरी तो रहे ही. उसके चंडीगढ़ और मुंबई संस्करणों के पहले समाचार संपादक भी रहे. सर चार दशक से ज्‍यादा समय तक पत्रकारिता में सक्रिय रहे। आपने दैनिक भास्‍कर. रायपुर में भी एक साल तक स्थानीय संपादक के रूप में जिम्‍मेदारी संभाली।  भास्कर समूह की भास्कर समाचार सेवा (सेंट्रल डेस्क) की शुरुआत भी उन्होंने ही की.  नईदुनिया, चौथा संसार और राजस्‍थान पत्रिका में भी अपनी सेवाएं दी। 
इन दिनों आप गाजियाबाद में रहकर परिवार के साथ वक्‍त बिता रहे हैं। आप सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते थे। समसामयिक मुद्दों पर बिना किसी संकोच के अपनी राय जाहिर करते हैं। आपके सोशल मीडिया अकाउंट से जुड़कर कई युवा पत्रकारों को हमेशा कुछ नया सीखने और समझने को मिलता है। अवस्‍थी सर ने बताया कि दैनिक भास्‍कर समूह ने नए पत्रकारों के प्रशिक्षण के लिए भोपाल में भास्कर पत्रकारिता अकादमी खोली थी. शुरुआत में उसकी जिम्मेदारी भी उनके पास थी. पहले बैच के 18 प्रशिक्षुओं में से लगभग आधे में  लोग उच्‍च पदों पर कार्यरत हैं। उन्‍होंने कहा कि पत्रकारिता के कालेजों, विश्वविद्यालयो से निकले वही लोग सफल होते है, जिनका इस पेशे के प्रति अतिरिक्‍त लगाव होता है। बाकी लोग ऐसे शिक्षा संस्‍थानों से पढ़कर पत्रकारिता में सफल हो जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। उनका मानना है कि मीडिया संस्‍थानों को ही पत्रकारों की नई पीढ़ी तैयार करने की पहल करना चाहिए।

लगभग एक दशक के बाद आदरणीय अवस्‍थी सर से मुलाकात हुई। हालांकि इस दौरान मोबाइल पर संपर्क बना हुआ था। सर स्‍वस्‍थ हैं और कुशलतापूर्वक जीवन बिता रहे हैं। ईश्‍वर से कामना है कि आपको हमेशा यूं ही बनाए रखें। ईश्‍वर ने चाहा तो जल्‍द ही मिलने का अवसर मिलेगा।

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Monday, November 14, 2022

पिताजी की पुण्यतिथि : काश आप आज हमारे बीच होते...

|| ॐ || पिताजी की 16 वीं पुण्यतिथि || ॐ |

आज मेरे पिताजी स्व. श्री संपतराव डोंगरे की 16 वीं पुण्यतिथि है। साल 2006 में 15 नवंबर को ही वे अचानक हम सभी को छोड़कर इस दुनिया से दूर चले गए। 

मुझे याद है वो मनहूस दिन। जब मुझे भोपाल में एमजे की पढ़ाई के दौरान खबर मिली कि पिताजी (भाऊ) को अटैक आया है। जल्दी घर आ जाओ। किसी तरह देर रात को छिंदवाड़ा पहुंचा। फिर सुबह गांव। 

घर पहुंचते तक मेरी आंखों में आंसू का नामोनिशान नहीं था। मुझे इस बात पर यकीं नहीं हो रहा था कि पिताजी नहीं रहे। घर पहुंचकर जब वहां का माहौल और पिताजी का मृत शरीर देखा तो मेरे आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। बहुत मुश्किल से मुझे लोगों ने संभाला। 

हालांकि मेरा लगाव हमेशा मां से ज्यादा रहा। मां जहां प्रेरणास्त्रोत है। वहीं पिता की तरफ से हमेशा मुझे आजादी मिली। मन मुताबिक सब काम करने की। उनकी तरफ से कभी कोई रोक-टोक नहीं होती थी। एक बार वे मेरे लिए कुछ हजार रुपए लेकर भोपाल आए थे। ट्रेन में चोरी के डर से सारी रात जागते रहे। 

बड़ी बहन और हम तीन भाइयों की सभी जरूरतों वे बराबर ख्याल रखते थे। कभी किसी बात के लिए उन्होंने हमें मना नहीं किया। वे आज होते तो शायद घर-परिवार का माहौल अलग होता। उनके बगैर अब मां परिवार को संभाल रही है। अपनी जीविका के लिए हम दो छोटे भाई घर से दूर है। कभी बहुत याद आता है वो अपना घर- परिवार और सबको जोड़कर रखने वाले भाऊ। कहां चले गए वो दिन और वो लम्हें। 

पिताजी को सादर नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि।
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आज पिताजी की पुण्यतिथि है।
उन्हें मैं हृदय से नमन करता हूं। 

आज मेरे पिताजी (भाऊ) श्री सम्पतराव डोंगरे जी को इस संसार को छोड़े हुए 16 बरस हो गए। उनकी याद हमेशा आती है। उस पल का याद नहीं करना चाहता, जब आप हमें छोड़कर हमेशा के लिए जा रहे थे। क्योंकि उस वक्त मैं सिर्फ रो रहा था। अपने आप को संभाल नहीं पा रहा था। 

आप रहते थे तो देखते कि आपके बच्चे क्या कर रहे हैं। काश आप होते तो हमें आपकी सेवा का अवसर मिलता।

अगर आप आज हमारे बीच होते तो हम
आपका 72वां जन्मदिन मना रहे होते।

आपने कभी कोई निर्णय या बंधन हम पर नहीं थोपा।
आप हमेशा मुझे खुद से फैसले लेने के प्रेरित करते थे।

कोशिश करता हूं कि आपकी तरह बनूँ।
मुझसे कभी किसी को बुरा नहीं हो।
हमेशा दूसरों की सहायता करूं।

विनम्र श्रद्धांजलि

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Tuesday, June 21, 2022

Gust Writer : गुजरातियों के छत्तीसगढ और मध्य प्रान्त में आने की कहानी


डाॅ. परिवेश मिश्रा 
सन् 1882 में नागपुर से राजनांदगांव के बीच जब मीटरगेज रेल लाईन बिछाने का काम शुरू हुआ तब बीच का इलाका घने जंगलों और नदी नालों वाला, किन्तु आमतौर पर सपाट था। लाईन आसानी से बिछ गयी। सिर्फ एक हिस्सा छूट रहा था। गोंदिया के पास जहां मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र की सीमाएं मिलती हैं, वहां पहाड़ था और बिना सुरंग (बोगदा) बने लाईन नहीं जा सकती थी। 

प्रचलित कहानी के अनुसार बड़े इंजीनियर ने दीवार पर टंगे नक्शे पर निशान लगाते कर कहा था यहां से पहाड़ खोदना शुरू करो। किन्तु युवा अंग्रेज़ इंजीनियर अनुभवहीन था और काम शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसे किसी जबर्दस्त मोटिवेशन की आवश्यकता थी। सो बड़े ने सुझाव दिया :  कल्पना करो कि पहाड़ के उस पार तुम्हारी पत्नी खड़ी है। तुम्हे वहां पहुंचना है और उसे "किस" करना है। लेकिन इंजीनियर के लिए हिम्मत जुटाना आसान नहीं था। काम शुरू करने से पहले मजदूरों ने अपने साहब को दसियों बार बड़बड़ाते सुना - "शैल आय किस हर ?" "शैल आय किस हर ?" (मैं उस छोर को "किस" कर पाऊंगा?)। युवा इंजीनियर के तमाम अविश्वास और शंकाओं के बावज़ूद काम शुरू हुआ। तब तक यह वाक्य, मजदूरों की अपनी जुबान में, उनके उच्चारण में, उनका नारा बन गया था। 

और एक दिन मजदूरों ने वह पत्थर हटाया जिसके दूसरी ओर रौशनी थी, सिरा मिल गया था। युवा इंजीनियर खुशी के मारे चीख उठा -"देयर आय किस हर" ( मैंने सही सिरा चूम ही लिया)। खुश मजदूर भी थे। उनके बीच भी नारा उठा, उनकी जुबान में, - "देअर आय किस हर"। पहले छोर की तरह यहां भी मजदूरों की दूसरी बस्ती बसी। दोनों बस्तियों के स्थान पर - सुरंग के दोनों सिरों पर - स्टेशन बने। इनके नाम मजदूरों ने पहले ही तय कर दिये थे। सलेकसा (शैल आय किस हर) और दरेकसा (देअर आय किस हर)। 

नागपुर-राजनांदगांव सेक्शन शुरू होते ही छत्तीसगढ को अपना घर बनाने वाले गुजरातियों के आगमन का मार्ग खुल गया। 
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उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध का समय, विशेषकर 1870 के बाद का, गुजरातियों के लिए बहुत कष्ट का दौर था। सूखे और अकाल के इन वर्षों में अंग्रेज़ों के व्यवसायिक लालच का दुष्परिणाम कृषि पर दिखने लगा था। आमदनी के स्रोत घटने पर राज्य ने भूमि, नमक और शराब पर टैक्स अनाप-शनाप बढ़ा दिये थे। गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से लड़ाई हारते हज़ारों परिवार गुजरात छोड़ने के लिए मजबूर हुए। उन्नीसवीं सदी के "द ग्रेट इंडियन माईग्रेशन" में बड़ी संख्या में गुजराती समुद्र पार गये। लेकिन उतनी ही संख्या में लोगों ने देश के भीतर पूर्व की दिशा में - बंगाल और बर्मा तक - पलायन किया। ऐसे लोगों का बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ों के सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज़ (सी.पी.) में आया। 

सन 1870 में जब नागपुर और मुम्बई के बीच रेलमार्ग बनना शुरू हुआ, तब तक नागपुर से आगे छत्तीसगढ की ओर रेल लाईन लाने का अंग्रेज़ों का कोई ठोस इरादा नहीं बन पाया था। लेकिन यहां लाईन जनता की मांग के कारण नहीं बल्कि अंग्रेज़ों की मजबूरी और उनके स्वार्थ के चलते आयी। मध्य प्रान्त में रेल लाना अपरिहार्य हो गया था।  
* दो रेल पटरियों को जोड़ने के लिए बीच में बिछाई जाने वाली पट्टी - रेल्वे स्लीपर - जो अब कांक्रीट की होती हैं, कुछ समय पहले तक लोहे की और उससे भी पहले - शुरुआती दौर में - लकड़ी की बनी होती थी। वनों को काटकर बड़े वृक्षों से स्लीपर बनाये जाते थे। भारत भर में इनकी भारी मांग थी और अधिकांश जंगल मध्य भारत में थे। इंजिन भाप से चलते थे और इसी इलाके में कोयला के भंडार भी थे। 

* छत्तीसगढ के महानदी कछार में, विशेषकर धमतरी-राजिम-कुरुद इलाके में सरप्लस धान पैदा हो रहा था। इसे गुजरात जैसे उन इलाकों में भेजा जा सकता था जहां के खेत अफ़ीम, कपास, तम्बाखू और नील से पाट दिये गये थे और जहां खाने के लिए अनाज नहीं था। साथ ही यहां की वनोपजों का तब तक व्यापारिक दोहन शुरू नहीं हुआ था लेकिन इसकी असीम सम्भावनाएं जगजाहिर थी। प्रमुख था तेन्दू पत्ता जिससे बीड़ी बनती थी। 

इस पृष्ठभूमि में नागपुर और राजनांदगांव के बीच रेल लाईन की शुरुआत हुई थी। बनाने की जिम्मेदारी दी गयी सी.पी. सरकार की छत्तीसगढ स्टेट रेल्वे को (1888 में बंगाल-नागपुर रेल्वे ने इसे खरीदकर ब्राॅडगेज में बदला और हावड़ा से जोड़ा)। 
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गुजरातियों की कहानी रेल लाईन, वनोपज, चावल मिलों और बीड़ी के बिना बताना संभव नहीं है। 

यहां "गुजराती" शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त है जिनकी भाषा, बोली, खान-पान की पद्धतियां, जीवन-शैली आदि समान थीं। लेकिन एक और समानता इन्हे आपस में बांधती थी। ये सारे परिस्थितियों के मारे, मजबूरी में, अपनी जड़ों से उखड़कर आजीविका की तलाश में यहां आये थे। सब ने गरीबी देखी थी। कुछ ने भुखमरी की हद तक। अनेक के पास हुनर और सब के पास भविष्य के लिए सपने और विश्वास था। इन गुजरातियों में जैन, वैष्णव हिन्दू, पाटीदार, कच्छी मेमन, खोजा, पारसी और दाऊदी बोहरा परिवार शामिल हैं। केवल एक समुदाय था जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत खुशहाल था। फिर भी बेहतर भविष्य की तलाश में बाहर निकला था। यही वह समाज था जो बाकी गुजरातियों की उंगली पकड़ उन्हे रास्ता दिखाते इस इलाके में लाया था। यह समुदाय था "कच्छी गुर्जर क्षत्रिय" समुदाय। 
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गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र इलाके में बसे कच्छी-गुर्जर-क्षत्रिय समाज को निर्माण (कन्स्ट्रक्शन) और माईनिंग के क्षेत्र में पुश्तैनी महारत हासिल थी। जिन दिनों भारत में इंजीनियरिंग काॅलेज नहीं खुले थे, इस समाज के बच्चे पैदा होते ही, पिता, भाई और समुदाय के अन्य लोगों के साथ सिविल इंजीनियरिंग का काम सीखने में जुट जाते थे। और यह परम्परा सदियों से चली आ रही थी। कच्छ और सौराष्ट्र में महलों, किलों, नहरों आदि का निर्माण यही समाज करता आया था। समय के साथ देश में इनकी ख्याति आर्किटेक्ट और निर्माण-ठेकेदार के रूप में स्थापित हो गयी थी। स्थानीय लोग इन्हे "मिस्त्री" या "ठेकेदार" के रूप में संबोधित करते थे। कच्छ के राजा साहब के दिये धनोटी, कुम्भारिया, लोवारिया, मालपार, मेघपार, जैसे अठारह गांवों में बसा यह समुदाय राठौड़, सोलंकी, परमार, चौहान, सावरिया जैसी उपजातियों में बंटा रहा है। सरनेम का चलन आने पर अनेक लोग "मिस्त्री" शब्द का प्रयोग भी करते हैं। 
उन्नीसवीं सदी में गुजरात के दूसरे लोगों की तरह यह समुदाय भी बेहतर जीवन की संभावनाएं कच्छ के बाहर तलाश रहा था। 1850 के दशक में जब अंग्रेज़ों ने रेल निर्माण का फ़ैसला किया तो इस समुदाय ने लपक कर इस अवसर को जकड़ लिया और समय के साथ रेलमार्गों पर अपना लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया। सिन्ध और रावलपिंडी से लेकर असम और चेन्नई तक इन्होने रेल लाईनों में और झारखण्ड की कोयला खदानों तक में इन्होने ठेकेदारी की। किन्तु लेख की बढ़ती लम्बाई मुझे विवश करती है मैं फ़ोकस छत्तीसगढ और मध्य प्रान्त पर रखूं। 

रेल से पहुंचे गुजरातियों के शुरुआती जत्थे में अनेक मिस्त्री ठेकेदार परिवार थे। इनमें कुम्भरिया (कच्छ) के गंगानी परिवार के सात भाईयों का समूह भी था, जिनमें से एक भाई जगमल गांगजी सावरिया ने जयराम मंदान के साथ मिलकर 1890 में बिलासपुर का स्टेशन बनाया। इनमें वालजी रतनजी चौहान भी थे। जगमल सावरिया के बेटे मूलजी सावरिया के साथ साथ वालजी के बेटे जयराम वालजी चौहान को आगे चलकर अंग्रेज़ों ने "राय साहब" के ख़िताब से नवाज़ा। रेल्वे ने अपने ठेकेदार के सम्मान में बम्बई-हावड़ा लाईन पर बिलासपुर के पास एक स्टेशन पाराघाट का नाम बदलकर जयरामनगर रखा। टाटानगर के अलावा संभवतः यह एकमात्र स्टेशन है जिसका नाम अंग्रेज़ों ने किसी भारतीय पर रखा। सावरिया भाईयों में वालजी मेघजी सावरिया ने रायपुर का रेलवे-स्टेशन बनाया और वहीं बसे, श्यामजी गांगजी सावरिया ने रायगढ़ का स्टेशन बनाया और वहीं बसे और वस्ता गांगजी सावरिया ने खरसिया का स्टेशन बनाया। सिंगूरा गांव के रघु पान्चा टांक ने राजनांदगांव स्टेशन बनाया। बहुत लम्बी लिस्ट हैं मिस्त्री समाज के लोगों की उपलब्धियों की। 

गैर-मिस्त्री परिवार आमतौर पर धान/चावल और वनोपज (हर्रा, बेहरा, चिरौंजी, शहद आदि के अलावा मुख्य रूप से तेन्दू पत्ता) के व्यापार में रहे। ऐसे अधिकांश गुजराती कच्छ और सौराष्ट्र जैसी पृष्ठभूमि से आये थे और छत्तीसगढ के राजे-रजवाड़ों के माहौल में घुलमिल जाने में उन्हे परेशानी नहीं हुई। कुछ मदद अंग्रेज़ों ने भी की। 

जैसे सौराष्ट्र के राजकोट के पास उपलेटा से निकलकर आये हाजी अब्बाहुसैन हाजी मोहम्मद दल्ला जिन्होने शुरुआत सुहेला में की थी, वनोपज और चावल के व्यापार के साथ। पड़ोसी राज्य फुलझर के राजा साहब लालबहादुर सिंह जी से परिचय करा कर उन्हे राज्य मुख्यालय सरायपाली में बसाने में अंग्रेज़ मददगार रहे। बाद में इनका और राजा साहब का संबंध घनिष्ठ हुआ और हाजी अब्बाहुसैन के पुत्र हाजी अब्दुल सत्तार दल्ला बसना में स्थापित हुए। हाजी अब्दुल सत्तार के पुत्र डाॅ. अब्दुल रज़्ज़ाक (ऐ.आर.) दल्ला छत्तीसगढ के ख्यातनाम वरिष्ठ सर्जन हैं। अपनी पत्नी डाॅ. नूरबानो दल्ला तथा बहू डाॅ. तबस्सुम दल्ला के साथ रायपुर में ज़ुबेस्ता अस्पताल का संचालन करते हैं। सिकल-सेल बीमारी पर इनके किये काम की देश भर में प्रशंसा हुई है। 

युवा गुजराती गोरधनदास भगवानदास दोशी जी ने हर्रा का व्यवसाय करने के इरादे से धमतरी से जगदलपुर पहुंच कर बस्तर राजा साहब से जंगल ठेके पर ले लिया। किन्तु अनुभव न होने के कारण पहले ही साल गहरे नुकसान में चले गये। तब राजा साहब के सामने वकालत करने अंग्रेज़ अधिकारी ही आया। उसने समझाया कि यदि इस युवा को हतोत्साहित होने दिया गया तो आगे और कोई इतनी दूर जंगल में आये, इसकी संभावना कम ही है। गोरधनदास जी के लिये अगले दो साल तक जंगल टैक्स-फ्री कर दिया गया। उनका व्यवसाय चल निकला।  उस ज़माने में लगभग चालीस हज़ार वर्ग किलोमीटर के जंगल को एक अंग्रेज़ अधिकारी मात्र दो डी.एफ.ओ. और 12 रेन्जरों की मदद से संभालता था। गोरधनदास जी के बेटे श्री किरीट दोशी (श्री भूजीत दोशी के पिता) प्रख्यात पत्रकार रहे। इसी दोशी परिवार की श्रीमती जयाबेन धमतरी से विधायक रहीं। 

गुजरात के मेहसाणा इलाके से निकलकर खरसिया के पास बंजारी गांव में आकर बसे छन्नालाल मेहता के परिवार ने बिलासपुर से आगे की यात्रा बैलगाड़ी पर की थी। रायगढ़ के श्री यतीश गांधी की दादी श्रीमती समरत बेन और खरसिया के श्री हितेंद्र मोदी की दादी श्रीमती तारा बेन छन्नालाल मेहता जी की बेटियां थीं। 

हंसराज राकुण्डला जी के परिवार की बैलगाड़ी यात्रा रायपुर तक रेल पहुंचने के बाद हुई थी। वे रायपुर से कोई तेरह मील पर रसनी गांव में बसे। कुछ वर्षों के बाद- सन् 1901 में - रायपुर से धमतरी तक रेल लाईन बनी और धान की पैदावार बढ़ाने के लिए अंग्रेज़ों ने घमतरी के पास नदी पर एक बांध भी बना दिया। उद्धाटन करने पहुंचे सी.पी. के गवर्नर सर फ्रैंक जाॅर्ज स्ली। इंजीनियर ने सुझाव दिया नये बांध का नाम गवर्नर की पत्नी - मैडम स्ली  के नाम पर रखा जाये। सबने हामी भरी। और "मैडम स्ली" बांध उद्धाटित हो गया। समय के साथ "मैडम" और "स्ली" का स्थानीयकरण हुआ। अब यह बांध "माड़म सिल्ली" के नाम से जाना जाता है। खेती बढ़ी तो किसान मेढ़ों पर दाल उगाने लगे और राकुण्डला परिवार ने रसनी से वहां पहुंच कर पहली दाल मिल स्थापित कर दी। 

इन गुजरातियों ने छत्तीसगढ में चावल मिलों की स्थापना में भी अगुवाई की। सरायपाली-बसना की पहली मिल दल्ला परिवार ने, रायगढ़ के खरसिया के पास पहली मिल छन्नालाल मेहता के परिवार ने और सारंगढ़ की पहली चावल मिल पारसी खुदादाद डूंगाजी ने स्थापित की। 

गोंदिया से नैनपुर और वहां से जबलपुर जुड़ते ही तब तक गोंदिया पहुंचे गुजरातियों के लिए जबलपुर के साथ साथ आगे दमोह और सागर जैसे तेन्दूपत्ता से समृद्ध वनाच्छादित इलाकों में पहुंचने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 

1919 में गुजरात के खैरा (नादियाड) ज़िले से छोटाभाई पटेल अपने बेटे जेठाभाई के साथ व्यवसाय करने गोंदिया पहुंचे। गुजरात में खैरा, वदोडरा और आणन्द ज़िलों में ही तम्बाखू ही मुख्य पैदावार होती रही है। कर्णाटक जैसे अन्य इलाकों की तम्बाखू जहां सिगरेट के लिए उपयुक्त माना जाता है, वहीं गुजरात की तम्बाखू बीड़ी के लिए प्रयुक्त होती रही है। अधिकांश तम्बाखू उत्पादक पाटीदार हैं। इन्होने अपने फ़र्म की एक शाखा मध्यप्रदेश के सागर में खोली और उसे अपना मुख्यालय बना लिया। लगभग एक दशक के बाद छोटाभाई के भतीजे मनोहरभाई भी गुजरात से आ गये और गोंदिया का काम भतीजे ने सम्भाल लिया। तम्बाखू गुजरात से मंगा कर यहीं बीड़ी बनाने और बेचने का क्षेत्र और काम बढ़ गया। एक समय इनकी 27 नम्बर (और बंदर छाप) बीड़ी देश की दूसरी सबसे अधिक बिकने वाली बीड़ी  थी। मनोहरभाई ने कम समय में बहुत सफलताएं पायीं। एक समय चालीस से अधिक फैक्ट्रियों में पांच से छह करोड़ बीड़ियां रोज बनती थीं। उनका अपना "सेसना" विमान और अपनी हवाई पट्टी भी थी। समय के साथ बीड़ी का चलन कम होता गया और छोटाभाई जेठाभाई के नाम पर शुरू हुए सीजे ग्रुप का कारोबार अब बीड़ी से हट कर दवा-उत्पादन, रियल एस्टेट, पैकेजिंग, फायनेन्स, और तेल के क्षेत्रों में फैल चुका है। लगभग साठ हज़ार लोग अब भी रोजगार पा रहे हैं। मनोहरभाई के बेटे हैं सांसद श्री प्रफुल्ल पटेल जो विदर्भ (महाराष्ट्र) के बीड़ी-किंग कहलाते हैं। 

सागर की फ़र्म छोटाभाई जेठाभाई ही कहलायी। हालांकि बाद में परिवार के मुखिया मणिभाई पटेल हुए किन्तु उनके परिवार के विट्ठल भाई पटेल को फिल्म गीतकार के रूप में अधिक प्रसिद्धि मिली। वे बाॅबी फ़िल्म में "झूठ बोले कौवा काटे" के अलावा अनेक गानों के रचयिता के रूप में याद किये जाते हैं। 

श्री मोहनलाल जबलपुर में सड़क के किनारे बैठकर बीड़ी बनाया करते थे। यह सन् 1902 की बात है। और फिर उन्होने अपनी बीड़ी को "शेर" ब्रैन्ड के साथ बेचना शुरू किया।  मेहनत रंग लायी और "मोहनलाल हरगोविंद दास"  देश की "नम्बर वन" बीड़ी उत्पादक फ़र्म बनी। मोहनलाल ने अपना कारोबार दत्तक पुत्र परमानन्द भाई को सौंपा। उनके बाद पुत्र श्रवण पटेल ने कमान सम्भाली। 
1930 के आसपास जिन दिनों मोहनलाल हरगोविंद दास फ़र्म अपना कारोबार बढ़ा रही थी, प्रभुदास भाई फ़र्म में मुनीम थे। उन्होने काम छोड़ अपना कारोबार शुरू किया। बेटों जसवन्तलाल और प्रह्लाद भाई ने कुछ समय पिता के साथ काम करने के बाद दमोह में एक बीड़ी फैक्टरी स्थापित की। एक समय ऐसा आया जब इनके "टेलीफोन" छाप की प्रतिदिन दस करोड़ बीड़ियां बनने लगीं और फ़र्म लगभग चार लाख रुपये प्रतिदिन एक्साइज ड्यूटी के रूप में पटाने लगी।  

रायपुर में डी.एम. ग्रुप रियल एस्टेट सेक्टर में बहुत बड़ा नाम है। डायालाल मेघजी भाई के नाम से स्थापित यह कम्पनी किसी समय अपनी मशहूर बादशाही बीड़ी के लिए जानी जाती थी। धमतरी के मीरानी परिवार की गोला बीड़ी हो या रायगढ़ के पास भूपदेवपुर की बाबूलाल बीड़ी, अनेक गुजराती परिवार बीड़ी उद्योग से जुड़े और सफल हुए। इनमें गैर-पाटीदार भी शामिल हैं। 
बीड़ी व्यवसाय में उतरे गुजरातियों में से अनेक मध्य प्रान्त की राजनीति में भी आये। आर्थिक सम्पन्नता के साथ साथ हज़ारों की संख्या में रोज़गार के लिये बीड़ी पर आश्रित ग्रामीण आमतौर पर इनके राजनैतिक करियर का आधार बने। उदाहरण अनेक हैं (पर स्थान कम है)। गुजराती समाज छत्तीसगढ और मध्य प्रान्त की संस्कृति में रच-बस जाने के बावज़ूद अपनी भाषा, खान-पान और सांस्कृतिक परम्पराओं को सहेज कर रखने में काफी हद तक सफल रहा है। इनकी जीवनशैली में सादगी आमतौर पर अब भी बरकरार है। 
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डाॅ. परिवेश मिश्रा
गिरिविलास पैलेस 
सारंगढ़  

साभार : फेसबुक वाल
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Tuesday, May 3, 2022

Women Journalist : भास्कर समूह के ऐलान से महिला पत्रकारों में नई उम्मीदें

"महिलाएं काम के मामले में बहुत सिंसियर, ईमानदार होती है। वे हर टास्क को सिंसेरली पूरा करती है। जबकि पुरुष वर्ग के कई साथी हमेशा लापरवाही करते नजर आते हैं।" -

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हिंदी के एक बड़े समाचार पत्र समूह ने ऐलान किया है कि अगले 1 वर्ष में प्रिंट और डिजिटल के लिए 50 महिला पत्रकारों की नियुक्ति करेगा। पत्रकारिता में महिला की स्थिति बाकी फील्ड की तरह ही है। मतलब उंगलियों पर गिनने लायक नाम। और कुछ जगह तो एक बड़ा शून्य…। 

लगभग दो दशक के अपने पत्रकारिता सफर के आधार पर ही इस पर चर्चा करता हूं। 2003-04 में आकाशवाणी छिंदवाड़ा के इंटरव्यू के दौरान का किस्सा है। वहां एनाउंसर, कंपेयर के रूप सबसे ज्यादा महिलाओं का ही सलेक्शन हुआ था। यह अच्छा संकेत माना जा सकता है कि लगभग 40 नियुक्तियों में 36 महिलाएं थी। 

जब मैंने 2003 में लोकमत समाचार छिंदवाड़ा ज्वाइन किया। वहां पर भी कोई महिला पत्रकार नहीं थीं। लोकमत ब्यूरो में लगभग 8-10 लोगों का स्टाफ था। भोपाल के स्वदेश समाचार पत्र में भी साल 2004 के दौरान कोई महिला पत्रकार नहीं थीं। अगले संस्थान सांध्य दैनिक अग्निबाण में जरूर एकमात्र महिला पत्रकार आरती शर्मा थीं। 

इसके बाद मेरे अगले संस्थान 'राज्य की नई दुनिया भोपाल' में एक महिला पत्रकार स्नेहा खरे की एंट्री हुई, इसमें छोटी सी भूमिका मेरी भी रही। मुझसे कहा गया था कि एक महिला पत्रकार चाहिए। उस वक्त स्नेहा किसी छोटे अखबार या मैग्जीन में थीं। इन दिनों वे मध्यप्रदेश के किसी सरकारी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर है। सबसे बड़े समाचार पत्र दैनिक भास्कर में उन दिनों दो महिला पत्रकार काफी सीनियर थीं, जिनमें नीलम शर्मा और रानी शर्मा का नाम है। इसके अलावा दिव्याज्योति पाल जैसे और भी कुछ नाम है। साल 2007 में मैंने अमर उजाला नोएडा ज्वाइन किया। यहां कुछ साल बाद दिव्याज्योति पाल ने भी ज्वाइन किया था। इस बड़े संस्थान में आधा दर्जन के करीब महिला पत्रकार रही होगी। इधर दैनिक भास्कर रायपुर में फिलहाल एक महिला पत्रकार लक्ष्मी कुमार है, जो कि सिटी भास्कर में कार्यरत है। और मेरे नए संस्थान में कोई महिला पत्रकार नहीं है।। 

… तो महिला पत्रकारों की संख्या मीडिया में, खासकर प्रिंट मीडिया में काफी कम है। जब उन्हें मौका ही नहीं दिया जाएगा तो उनकी तादाद कैसे बढ़ेगी। महिला पत्रकारों को हमेशा हेल्थ बीट, एजुकेशन बीट या लाइफस्टाइल या आर्ट एंड कल्चर कवर करने के लिए ही कहा जाता है। बहुत कम नाम ऐसे होते हैं छोटे शहरों में, जिन्हें क्राइम बीट या पॉलिटिकल बीट या बड़ी और बीट भी दी जाती हो। 

दूसरा उन्हें समय-समय पर प्रमोशन भी नहीं मिलता। अगर वह देर तक काम करने को खुद तैयार हैं तो उन्हें इसकी भी इजाजत नहीं दी जाती। जबकि हम समानता की बात करते हैं तो आज के समय में महिला - पुरुष में कोई अंतर नहीं है। जितना श्रम पुरुष करते हैं, उतना ही श्रम महिलाएं भी कर सकती है। और करती ही है। अमर उजाला नोएडा में हम जब 2:30 बजे रात को ऑफिस से घर के लिए निकलते थे, तो हमारे साथ दो-तीन महिला पत्रकार हुआ करती थीं। बकायदा उनको सबसे पहले ड्रॉप किया जाता था। 

महिलाओं का ख्याल रखना। या महिलाओं की सुरक्षा का ध्यान रखना, यह सब तो जरूरी है ही लेकिन उन्हें अवसर प्रदान करना और उनकी योग्यता का यथोचित सम्मान करते हुए उन्हें आगे बढ़ाना भी जिम्मेदारी बनती है सभी संस्थानों की। लेकिन पत्रकारिता फील्ड ही क्यों, सभी सेक्टर इसमें पीछे ही रहते है। महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन भी नहीं दिया जाता। और मौके तो क्या ही दिए जाएंगे। 

महिलाओं के नाम से कुछ सीनियर्स को 'डर' भी लगता है। इस वजह से भी उन्हें मौके नहीं दिए जाते। दूसरा महिलाओं पर इस तरह के आरोप भी लगाए जाते हैं कि वे आगे बढ़ने के लिए 'दूसरे' रास्ते अपनाती है। जबकि यह अपवाद ही होगा। आगे बढ़ना तो हर व्यक्ति चाहता है। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि कौन या सिर्फ महिला गलत रास्ते अपनाती है। पुरुष भी इस मामले में पीछे नहीं हैं, जो कि अपने बॉस, सीनियर्स की 'अनावश्यक तारीफ', चापलूसी, टीटीएम करके अपने नंबर बढ़ाने में लगे रहते हैं। जबकि उनका काम देखा जाए तो 'शून्य' होता है। वहीं महिलाएं काम के मामले में बहुत सिंसियर, ईमानदार होती है। वे हर टास्क को सिंसेरली पूरा करती है। जबकि पुरुष वर्ग के कई साथी हमेशा लापरवाही करते नजर आते हैं। 

अब हम मीडिया में हाई लेवल पर महिला पत्रकारों की संख्या गिनते हैं। तो पूरे इंडिया में दो-चार या आधा दर्जन नाम ही होंगे है, जो प्रिंट में संपादक के स्तर पर पहुंचे होंगे। लेकिन हम अगर हिंदी पत्रकारिता के प्रमुख राज्य चाहे वह यूपी-बिहार या मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब देखें तो अभी भी कोई बड़ा नाम हमें नजर नहीं आता। जो संपादक लेवल पर हो। हालांकि दैनिक भास्कर समूह ने अच्छी शुरुआत की है भोपाल में उपमिता वाजपेयी को स्थानीय संपादक बनाकर। अब एक साल में 50 महिला पत्रकारों की नियुक्ति के ऐलान ने नई उम्मीद जगाई है। दैनिक भास्कर समूह की यह बेहतरीन पहल दूसरे पत्रकारिता संस्थानों को भी प्रेरित करेगी कि अपने यहां ज्यादा से ज्यादा महिला पत्रकारों को स्थान दें। साथ ही उन्हें आगे बढ़ाने के लिए अवसर भी प्रदान करें। उन्हें पुरुषों के समान वेतन भी दें। 

(लेखक रामकृष्ण डोंगरे करीब दो दशक से प्रिंट मीडिया में सक्रिय है। आपने पत्रकारिता की शुरुआत मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के लोकमत समाचार से की थी। इन रायपुर छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित अखबार में डीएनई के रूप में कार्यरत है।)