साधना कितनी जरूरी है...
और आप 'स्वर' साधने में यकीन करते हैं या 'सुर' ....
स्वर और व्यंजन.... जीवन में संतुलन के लिए कुछ लोग स्वर साधते हैं. स्वर की साधना करते हैं। इससे उन्हें 'व्यंजन' मिलता है। कुछ लोग सुर की साधना करते हैं। यह साधना कुछ ज्यादा कठिन होती है।
जीवन में संतुलन, बैलेंस बनाना, कितना जरूरी होता है। इस बात का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते है कि कुछ लोग जीवनभर साधते ही रहते हैं। इन्हें उसका फल भी मिलता है। रिजल्ट भी मिलता है। लेकिन जरूरी नहीं कि सभी को मिले।
अगर आप एक मामूली-सा 100-500 शब्द का आर्टिकल भी पढ़े तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि लेखक ने अपने आर्टिकल में जोरदार प्रहार किया है। तीखा प्रहार किया है। या बैलेंस बनाया है। तो जो लोग जीवन में बैलेंस बनाकर चलते हैं। क्या वे लोग ज्यादा कामयाब होते हैं। या वे लोग ज्यादा सफल होते हैं जो हमेशा तीखा प्रहार करते हैं। कड़ी आलोचना करते हैं।
आपका अनुभव क्या कहता है।
जहां तक मेरी बात की जाए तो मैं लगभग बैलेंस बनाकर चलता हूं। लेकिन यह भी है कि मुझे इसका बहुत ज्यादा फायदा जीवन में नहीं मिला है। मेरे बारे में कई लोगों की राय है कि मैं किसी से भी भिड़ जाता है। या मुझे ठीक ढंग से लोगों को साधना नहीं आता। तो जनाब मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। न बेवजह किसी को तवज्जो नहीं देता। न बेवजह किसी से उलझता हूं।
कुछ लोग बैलेंस बनाने में इतने काबिल होते हैं कि उनके लिए एक नया शब्द गढ़ा गया है। छोड़िए...।
लेकिन स्वर की साधना जरूरी है या सुर की साधना...। बड़ा सवाल तो है। 'व्यंजन' आपको ज्यादा मात्रा में स्वर की साधना से ही मिलता है। सुर की साधना से कम।
ऐसा मेरा आकलन है। आप क्या सोचते हैं...
©® ब्लॉगर और पत्रकार *रामकृष्ण डोंगरे*
1 comment:
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